Friday, April 27, 2007

हरी पाठक के कारनामे

एक शहर। जैसे कि पुराने शहर होते हैं , काफी कुछ वैसा ही ... एक शहर । भीड़ भरी सड़कें , सड़कों पे रिक्शे ,ठेले , साईकिल ,पैदल और कभी कभी मोटर साईकिल और स्कूटर भी। एक आम सा शहर जो कि आने वाले दिनों मे अंगूर बनने वाला है , उसे भी नही पता। अब आम से अंगूर !! ये क्या तुक हुआ ? हाँ , ये तुक तो हुआ और इसलिये हुआ क्योकि हमारी कहानी के नायक हरी पाठक यहीं पर पाये जाये है। कारनामे इनके अभी तक तो हुए नही हैं लेकिन जल्दी ही शुरू होने वाले हैं। बस... अब रहा नही जा रहा है इनके कारनामों की वजह से। जल्दी से शुरू करते हैं ।

शहर के बीच में चौक और चौक में क्लिष्ट किशोर सर्राफ़ की दुकान पर तैनात हरी पाठक। उम्र लगभग बयालीस साल , रंग गेन्हुआ टर्नड भूरा , क़द काठी सामान्य से कुछ कम। हाथ में लगभग सत्तर अस्सी चाबियों वाला गुच्छा। पैरों मे चप्पल और बदन पर कमीज और पैजामा। इतना सब अपने ऊपर लादकर हरी पाठक रोज़ सवेरे उन्नीस किलोमीटर दूर से सवेरे आठ बजे तक दुकान पंहुच जाते। साथ में रहती उनकी साईकिल । कैसे पन्हुचते ? घर से चलते रस्ते पर आते। बीच मे अक्सर ट्रेन दिख ही जति थी सवेरे वाली। बस हरी पाठक अपनी साईकिल उसी पर लाद लेते और टिकट चेक न हो इसलिये शहर से एक स्टेशन पहले उतार लेते। वहाँ से आते मलिक के घर चाबी लेने। चाबी लेकर दुकान आते , शटर उठाते और उसके बाद पूरी दुकान के ताले खोलते , दरवाजे खोलते। ये काम वह पिछले अट्ठारह साल सात महीने से करते चले आ रहे थे। हालांकि दुकान पर काम करते हुए उन्हें पूरे बाईस साल हो गए थे और इन बारह सालों में उनकी जिंदगी मे सिर्फ एक चमत्कार हुआ था और वह भी अट्ठारह साल सात महीने पहले। पहले वह दुकान पर पानी पिलाते थे लेकिन अट्ठारह साल सात महीने पहले धनतेरस वाले दिन मलिक ने उनकी तरक्की कर उन्हें पानी पिलाने की ड्यूटी से हटाकर दुकान खोलने की ड्यूटी पर लगा दिया । गाँव देस में बड़ा हल्ला मचा कि भईया अब दुकान के मलिक हो गए हैं... आख़िर चाबी तो उन्ही के पास रहती है। और हरी पाठक खुद को दुकान का मलिक समझने भी लगे। तब से कंधे और सर मिलाकर ऐसे अकडे कि अभी तक देखते इधर हैं और बात उधर करते हैं। बस ...कुछ इसी तरह उनकी जिंदगी कटती जा रही थी। सुबह दुकान खोलना और रात को बंद करना। अरे हाँ !! एक काम और था जो वह बडे मनोयोग से करते थे। दुकान के मुंशी जब पैसा जमा करवाने के लिए बैंक जाते तो रुपयों से भरा बैग हरी भईया ही सँभालते। ओफ्फो... हरी भईया उस समय तो ख़ुशी से फूल कर कुप्पा हो जाते । दिन भर दुकान की चाबी उनके हाथ में और दुकान का पैसा भी उन्ही के कर कमलों से बैंक में जमा होता । रात में बीवी से बताते कि आज दुकान की चार लाख की आमदनी हुई और कल साढ़े तीन लाख की हुई थी। बीवी को कोई अचरज नही होता क्योंकि पिछले अट्ठारह साल सात महीने से वह यही बात सुनती चली आ रही थी। और अब तो उसे कोफ़्त भी होने लगी थी। बिटिया जवान हो गयी थी इसलिये गाँव के कई लड़के उससे काफी इज़्ज़त से पेश आने लगे थे। अक्सर वो घर पर भी आ जाते पूछने कि चाची , कुछ चाहिऐ तो नही ?



(जारी....)

5 comments:

Anonymous said...

kahani achhi hai...jari rakhiye..

रंजू भाटिया said...

हरी पाठक के कारनामे क्या गुल खिलाते हैं
पढ़ने की उत्सुकता रहेगी...

अभय तिवारी said...

अच्छी शुरुआत है.. धन्यवाद है आपको ब्लॉग जगत के कहानी-शून्य संसार में एक कहानी ले कर आने के लिये.. और धन्यवाद आपको इसलिये भी है कि आप हमारे चन्दू भाई के मददगार हैं..

हरिराम said...

नए नए कारनामे जारी रखें।

Manas Path said...

अच्छी है

अतुल