रोज थोड़ा सा और लंगड़े हो जाते हैं
कभी कभी सोचता हूं कि आदमी अपनी पूरी जिंदगी में कितनी बार मरता होगा। पानी नहीं है तो प्यास से मर जाता होगा, हवा नहीं है तो सांस से मर जाता होगा। जमीन तो जमीन, लोगबाग आसमान में भी जाकर मर जाते होंगे। फिर भी, एक अदद जिंदगी अपनी ही कितनी मौतों की जिम्मेवार होती होगी, इसका हिसाब लगाना जरा टेढ़ा काम है। सुख की तकलीफदेह पड़ताल में लगे हम लोग रोज ही तो मरते हैं। सुख मिले ना मिले, तकलीफ जरूर मिलती है। वास्तविक मौत की पीड़ा से दूर हम उसे ही रोज का मरन समझकर खुद को घसीटते रहते हैं, रोज अपनी टांग का एक हिस्सा काटकर कम कर देते हैं और रोज थोड़ा सा और लंगड़े हो जाते हैं। और फिर जब कोई कहता है कि सलीम लंगड़े पर मत रो, तो बेसाख्ता हंसी निकल ही जाती है। हम मरते हुए भी हंसते हैं और हंसते हुए भी मर रहे होते हैं। मरते मरते हमें मोबाइल फोन याद आने लगता है, उसके कीपैड पर उंगलियां तो फिराते हैं, पर असल में समझ नहीं पाते कि अपनी मौत के वक्त हम अपने सबसे पास किसे देखना चाहते हैं। दरअसल हम तय न करने की स्टेज में हमेशा होते हैं। तय न करने देना खुद को थोड़ा सा और ढीला छोड़ना है, मरने से पहले एक जरा सा आराम करना है, एक लंबी सांस होता है ये तय न करना। सांस निकली और दम छोड़ा। हर सांस के बाद की मृत्यु और हर सांस से पहले का जीवन हमें एक ऐसे कुंए में बैठाए रखता है, जहां बस हम ही हम होते हैं। और फिर हम कितना भी तय कर लें, कितना भी प्रेम कर लें, कितनी भी घृणा कर लें, कितने भी दुखी हो लें, कितना भी रो लें, कुंए में अकेले पड़े हम खुद को अंतत: जिंदा ही पाते हैं। शायद किसी के पास जवाब हो कि क्या सांस चलने का नाम ही जीवन है। शायद कोई ये बता दे कि मुक्ति कहां है और इसी एक शायद का जवाब पाने के लिए कहां कहां नहीं भटकते। ज्यादा परेशान होते हैं तो किसी मन वाले से बात करके दिलासा देते हैं कि हम बोल रहे हैं, हमसे आवाज निकल रही है, हम जिंदा हैं। और ज्यादा परेशान हुए तो मनपसंद जगह पर जाकर फिर एक बार दिलासा देते हैं कि वो पेड़ सुंदर है, पहाड़ सजीव है और फूल महकता है, इसलिए हम जिंदा हैं। पर क्या वाकई हमारी दिलासा हमको लगती है। क्या वाकई दिलासा नाम की कोई चीज होती है। क्या वाकई जीवन नाम की कोई चीज हम जीते हैं...
महानगरों की दीवारों के बीच कैद हुए हम अपनी टूटी चप्पल और जूते के छेद को निहारते हुए बस गुमसुम जिंदगी काटने को जिस तरह से अभिशप्त हैं, वो शाप रोज होने वाली मौतों से भी नहीं टूटता। दीवारें हैं कि चारों तरफ से खिसकती हुई खुद को खुद में चुनने के लिए आगे भी नहीं बढ़तीं, उनके आगे बढ़ने के लिए नशे की दरकार होती है। और फिर नशे के बाद वही दीवारें काटने को दौड़ती हैं, लहूलुहान कर देती हैं जहां इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो लाल हैं या सफेद या क्रीम कलर की। फर्श धुली हो या गंदी हो, कांच की जो किरचें रोज ब रोज चुभती हैं, उनसे निजात पाने के लिए उन्हें चुनचुन कर हटाने की जद्दोजहद कितना घायल कर जाती है, इसे समझने में पूरी एक जिंदगी निकल जाती है और हमें उन्हें न समझने के लिए, न सोच पाने के लिए कितने केमिकल अपने अंदर डालने होते हैं कि पूरी जिंदगी ही केमिकल का लोचा बन जाती है। सुंदरता के सुख को पाने के लिए हम रोज कितने धोखे देने के लिए तैयार रहते हैं, कितने धोखों के जाले अपने दिमाग में बनाते हैं, इसका कोई पार ही नहीं है। कोई हंसता है, कोई ठठाकर हंसता है, कोई पार्क जाकर हंसता है, कोई यमुना किनारे जाकर हंसता है, बस यही नहीं समझ में आता कि हम हंस रहे हैं या चिल्ला रहे हैं। वैसे हंसी आती है तब, जब पता चलता है कि हम अपनी रोज की मौतों से उतना परेशान नहीं होते हैं, जितना दूसरे की लंगड़ी चाल देखकर खुश होते हैं। अजीब हैं हम लोग.. एकदम अजीब।
महानगरों की दीवारों के बीच कैद हुए हम अपनी टूटी चप्पल और जूते के छेद को निहारते हुए बस गुमसुम जिंदगी काटने को जिस तरह से अभिशप्त हैं, वो शाप रोज होने वाली मौतों से भी नहीं टूटता। दीवारें हैं कि चारों तरफ से खिसकती हुई खुद को खुद में चुनने के लिए आगे भी नहीं बढ़तीं, उनके आगे बढ़ने के लिए नशे की दरकार होती है। और फिर नशे के बाद वही दीवारें काटने को दौड़ती हैं, लहूलुहान कर देती हैं जहां इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो लाल हैं या सफेद या क्रीम कलर की। फर्श धुली हो या गंदी हो, कांच की जो किरचें रोज ब रोज चुभती हैं, उनसे निजात पाने के लिए उन्हें चुनचुन कर हटाने की जद्दोजहद कितना घायल कर जाती है, इसे समझने में पूरी एक जिंदगी निकल जाती है और हमें उन्हें न समझने के लिए, न सोच पाने के लिए कितने केमिकल अपने अंदर डालने होते हैं कि पूरी जिंदगी ही केमिकल का लोचा बन जाती है। सुंदरता के सुख को पाने के लिए हम रोज कितने धोखे देने के लिए तैयार रहते हैं, कितने धोखों के जाले अपने दिमाग में बनाते हैं, इसका कोई पार ही नहीं है। कोई हंसता है, कोई ठठाकर हंसता है, कोई पार्क जाकर हंसता है, कोई यमुना किनारे जाकर हंसता है, बस यही नहीं समझ में आता कि हम हंस रहे हैं या चिल्ला रहे हैं। वैसे हंसी आती है तब, जब पता चलता है कि हम अपनी रोज की मौतों से उतना परेशान नहीं होते हैं, जितना दूसरे की लंगड़ी चाल देखकर खुश होते हैं। अजीब हैं हम लोग.. एकदम अजीब।
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