मैनें उससे ये कहा/ मुर्शिद/ हबीब जालिब
क्या चचा गालिब अल्ला ताला को प्यारे हो गए ? क्या मियां मीर नूर खानम की याद में नहर का बर्फ जैसा पानी पी-पीक गला इतना खराब कर लिए कि उनकी आवाज अब किसी को सुनाई नहीं देती है ? खैर, वो दौर और था वो वक्त और था..
मरहूम हबीब जालिब हों या पाश, हालिया ना गुजरने वाले गुजरे वक्त के जरिए बहुत कम आवाजें सुनाई देती हैं, दोनों उन्हीं आवाजों में हैं। बाअदब माफ करने वाली गुस्ताखी के साथ मैं ये अर्ज करना चाहता हूं कि हर दौर की तरह इन्हें भी वो खिताब मिलना चाहिए, ये उस वक्त का सम्मान होगा, जिसमें इन्होंने कहने के लिए जलते हुए हर्फों का हल उठाया। वरना अंगुलिमाल वाजपेयी भी आप हो सकते हैं और दो सौ चालीस रिसर्च खुदपर कराकर चश्मा पेट पे उगती नाक पर लगाकर एक पेट तक लटकता चेहरा पैदा करने में महारत हासिल कर खिताब और किताब, दोनों की ले सकते हैं।
मैंने उससे ये कहा
ये जो दस करोड़ हैं
जेहल का निचोड़ हैं
इनकी फ़िक्र सो गई
हर उम्मीद की किरण
ज़ुल्मतों में खो गई
ये खबर दुरुस्त है
इनकी मौत हो गई
बे शऊर लोग हैं
ज़िन्दगी का रोग हैं
और तेरे पास है
इनके दर्द की दवा
मैंने उससे ये कहा
तू ख़ुदा का नूर है
अक्ल है शऊर है
क़ौम तेरे साथ है
तेरे ही वज़ूद से
मुल्क की नजात है
तू है मेहरे सुबहे नौ
तेरे बाद रात है
बोलते जो चंद हैं
सब ये शर पसंद हैं
इनकी खींच ले ज़बाँ
इनका घोंट दे गला
मैंने उससे ये कहा
जिनको था ज़बाँ पे नाज़
चुप हैं वो ज़बाँ-दराज़
चैन है समाज में
वे मिसाल फ़र्क है
कल में और आज में
अपने खर्च पर हैं क़ैद
लोग तेरे राज में
आदमी है वो बड़ा
दर पे जो रहे पड़ा
जो पनाह माँग ले
उसकी बख़्श दे ख़ता
मैंने उससे ये कहा
हर वज़ीर हर सफ़ीर
बेनज़ीर है मुशीर
वाह क्या जवाब है
तेरे जेहन की क़सम
ख़ूब इंतेख़ाब है
जागती है अफ़सरी
क़ौम महवे ख़ाब है
ये तेरा वज़ीर खाँ
दे रहा है जो बयाँ
पढ़ के इनको हर कोई
कह रहा है मरहबा
मैंने उससे ये कहा
चीन अपना यार है
उस पे जाँ निसार है
पर वहाँ है जो निज़ाम
उस तरफ़ न जाइयो
उसको दूर से सलाम
दस करोड़ ये गधे
जिनका नाम है अवाम
क्या बनेंगे हुक्मराँ
तू "चक़ीं" ये "गुमाँ"
अपनी तो दुआ है ये
सद्र तू रहे सदा
मैंने उससे ये कहा
मरहूम हबीब जालिब हों या पाश, हालिया ना गुजरने वाले गुजरे वक्त के जरिए बहुत कम आवाजें सुनाई देती हैं, दोनों उन्हीं आवाजों में हैं। बाअदब माफ करने वाली गुस्ताखी के साथ मैं ये अर्ज करना चाहता हूं कि हर दौर की तरह इन्हें भी वो खिताब मिलना चाहिए, ये उस वक्त का सम्मान होगा, जिसमें इन्होंने कहने के लिए जलते हुए हर्फों का हल उठाया। वरना अंगुलिमाल वाजपेयी भी आप हो सकते हैं और दो सौ चालीस रिसर्च खुदपर कराकर चश्मा पेट पे उगती नाक पर लगाकर एक पेट तक लटकता चेहरा पैदा करने में महारत हासिल कर खिताब और किताब, दोनों की ले सकते हैं।
मैंने उससे ये कहा
ये जो दस करोड़ हैं
जेहल का निचोड़ हैं
इनकी फ़िक्र सो गई
हर उम्मीद की किरण
ज़ुल्मतों में खो गई
ये खबर दुरुस्त है
इनकी मौत हो गई
बे शऊर लोग हैं
ज़िन्दगी का रोग हैं
और तेरे पास है
इनके दर्द की दवा
मैंने उससे ये कहा
तू ख़ुदा का नूर है
अक्ल है शऊर है
क़ौम तेरे साथ है
तेरे ही वज़ूद से
मुल्क की नजात है
तू है मेहरे सुबहे नौ
तेरे बाद रात है
बोलते जो चंद हैं
सब ये शर पसंद हैं
इनकी खींच ले ज़बाँ
इनका घोंट दे गला
मैंने उससे ये कहा
जिनको था ज़बाँ पे नाज़
चुप हैं वो ज़बाँ-दराज़
चैन है समाज में
वे मिसाल फ़र्क है
कल में और आज में
अपने खर्च पर हैं क़ैद
लोग तेरे राज में
आदमी है वो बड़ा
दर पे जो रहे पड़ा
जो पनाह माँग ले
उसकी बख़्श दे ख़ता
मैंने उससे ये कहा
हर वज़ीर हर सफ़ीर
बेनज़ीर है मुशीर
वाह क्या जवाब है
तेरे जेहन की क़सम
ख़ूब इंतेख़ाब है
जागती है अफ़सरी
क़ौम महवे ख़ाब है
ये तेरा वज़ीर खाँ
दे रहा है जो बयाँ
पढ़ के इनको हर कोई
कह रहा है मरहबा
मैंने उससे ये कहा
चीन अपना यार है
उस पे जाँ निसार है
पर वहाँ है जो निज़ाम
उस तरफ़ न जाइयो
उसको दूर से सलाम
दस करोड़ ये गधे
जिनका नाम है अवाम
क्या बनेंगे हुक्मराँ
तू "चक़ीं" ये "गुमाँ"
अपनी तो दुआ है ये
सद्र तू रहे सदा
मैंने उससे ये कहा
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