आखिरकार उसकी जिंदगी में एक ऐसा वक्त आया, जब उसे लगने लगा कि इस दुनिया में जो कुछ भी बाकी बचा रह गया है, वह सबकुछ एकसाथ मिलकर उसके सिर पर एक दिन कुछ यूं गिरेगा कि उसकी और उस जहाज की तबाही में कोई खास अंतर न रह जाएगा, जो एक दिन कहीं जाने को तो निकला था, लेकिन उसका आखिरी पुर्जा भी किनारों तक पहुंचने में सिरे से नाकामयाब रहा। उसे लगने लगा कि सारा दोष उसकी शक्ल का है, उसे यकीन होने लगा कि उसके बालों से सितारे बार बार उलझ जाते हैं और उसे ये भी लगने लगा कि अगर इस शक्ल को जल्द हटाया न गया तो दुनिया के उस बोझ से उसे मुक्ति नहीं मिलने वाली। मुक्ति की उसने नई नई परिभाषाएं गढ़नी शुरू कर दीं जिसमें से एक उस मासूम के चेहरे से भी होकर गुजरती थी जिसकी मासूमियत को वो ढाल बनाकर दुनिया के आगे आकर खड़ी होती थी, बगैर ये सोचे कि मासूम चीजें ढाल नहीं हुआ करतीं। कुछ ऐसी भी परिभाषाएं बनीं जो अपनी जगह ठीक से बैठ भी नहीं पा रही थीं पर इतनी लिजलिजी थीं कि दूसरों पर वो रोज ब रोज चिपकाई जाने लगीं। वो सोचना चाहती थी या नहीं, ये बात ज्यादा सोचने की नहीं, असल बात ये है कि वो करती क्या थी और उसका दुनिया पर फर्क क्या पड़ता था। खुद को छुपाने और बेखुद को दिखाने के अलावा भी दुनिया थी कि बहुत कुछ देखना चाहती थी और कमोबेश देख भी लेती थी। औरत के मन की रातें तक दुनिया के सामने कुछ यूं उजली बिखरी पड़ी थीं ज्यूं कि खुले काले आसमान में सारे सितारे छितराए रहते हैं। उसके भीतर का आदमी जिस रास्ते पर जा रहा था, गिरते पड़ते और अक्सर तो लड़ते लड़ते वो भी उसी रास्ते पर कदम बढ़ा रही थी जो आगे से बंद था, जिस रास्ते से आगे जाने का सिलसिला शुरू होने के साथ ही अपने अंत की भविष्यवाणी लेकर उस औरत की मुट्ठी में बंद था। लेकिन ये औरत ही थी जो मुट्ठी खोलने को तैयार नहीं थी। आदमी था कि आगे बंद रास्ते की तरफ बढ़ा जा रहा था। औरत दूर से आदमी का पीछा कर रही थी, बड़बड़ाते, गालियां देते और बार बार मुखौटे बदल बदलकर।
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