मिलेगा तो देखेंगे-8
और फिर ऐसा वक्त आया जब हर गलत पर दोनों एक दूसरे की दाद देने लगे। आदमी ने सबसे पहले गलत बोलना शुरू किया और औरत ने सबसे पहले उस गलत पर वाह की दाद दी। आदमी मुसलसल गलत बयान करता जाता था। भाषा और उसकी खूबसूरती को पूरी दुर्दांतता से नष्ट करता जाता था और जब जब जितना भी क्रूर हुआ, हर क्रूरता के स्वागत में एक दाद बड़ी खामोशी से किसी पुल से उसे निहारते सबसे ऊंचे सुर में सराहती सहलाती हुई मिली। दोनों के हाथों में बस औरत की ही पकड़ मजबूत थी जो पूरे जोर के साथ हथेलियों को पकड़ती थी, दबाती थी और तफरीहन एक अंगूठे से दो उंगलियों के बीच सहलाती थी। मुख्तसर में अगर इसे समेट दें तो दोनों एक दूसरे के साथ बेहद क्रूर होने की कोशिश करने की जद्दोजहद में हर गलत को दाद देते देते कुछ इस कदर मुलायम होते जा रहे थे कि उनका आने वाला वक्त चिल्ला चिल्लाकर उनके न हो पाने की बात बता रहा था, पर दाद के शोर में और अंगूठे के जोर में न तो वो सुनाई दे पा रहा था और न ही उसका अहसास हो पा रहा था। ये वो वक्त था जब दोनों उस हरी बेंच पर बैठकर हवाओं के चलने और सामने लगे झंडे का लहराकर और बलखाकर भी उड़ने का इंतजार करते हुए एक दूसरे से हवाओं के न चलने की शिकायत किया करते थे, लेकिन उनकी लाख शिकायतों के बीच गलतियों का एक बीज फूटकर अपनी हरी पत्तियां बाहर फेंक चुका था और हर पत्ती के साथ एक मनमोहना फूल जानबूझकर नजरअंदाज की जाने वाली गलतियों के साथ खिल रहा था। उन्हें बिलकुल भी इसकी परवाह नहीं थी और जो होनी भी नहीं थी क्योंकि जो हो रहा था वो सबकुछ अपने आप बस होता ही जा रहा था। उसे होने से रोकना चाहते हुए भी, जिसमें किसी को कुछ साबित नहीं करना था या किसी को उसे होने के बारे में सोचना भी नहीं था, वो दोनों कुछ ऐसे लम्हों की बुनावट में लगे थे, जिनकी सलाइयों ने पहले के आठ फंदे ही इस कदर उलझा दिए कि उन्हें सुलझाते सुलझाते दोनों को कब ये लगने लगा कि दोनों पुराने हो गए हैं, पता नही नहीं चला। इस पता न चलने या पता न चलने देने की जबरदस्ती ने दोनों को कब उस बेंच से उठाकर हरे मैदान में बैठा दिया, कब दोनों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की जिद में बाजार ने उन्हें हाथोहाथ लिया, इसका जिक्र बेकार है। बल्कि बेकार वो सबकुछ ही है, जो है और जो होने से बचा हुआ है, वो भी।
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