मिलेगा तो देखेंगे- 5
जब भी आदमी अपने मन को माशूक कर थोड़ा सा भी मुलायम होने की सोचता, मन के सारे कोने कमरे की हर ओर से निकलकर एक साथ आ खड़े होते और शोर करने लगते। ये लालसा भी आदमी को उस शोर से बाहर न निकाल पाती जो कोने दर कोने उसके मन में पैवस्त हुए जाते थे। औरत बार बार भरोसा दिलाती थी, आंखों में मन को उतारती थी, हवाओं को बिछा देती थी, पहाड़ों में लहलहा उठती थी और टटोलने पर फूटकर बहने भी लगती थी। आदमी कुछ और कमजोर होकर कहता था कि वो यूं ही फूटकर बह जाएगी और उसके लब एक एक कतरा आब को यूं ही तरसते रहेंगे, बजाय इसके भी मन उस आब का माशूक है और आइंदा भी बना रहेगा। पहाड़ी नदी ने पत्थर पर कई कतरे बना डाले थे जिनमें से बूंद बूंद पानी पत्थर और उस नदी के होने तक रिसता रहेगा। ये एक सोची समझी नियति थी जो लाख मुफलिस वक्तों के होते हुए तय हो चुकी थी। आदमी को गुमान था कि वो होनी को टाल सकता है, औरत को यकीन था कि वो होनी को पलट सकती है। दोनों के मन का शोर उस मैदान में होते शोर के साथ बढ़ता जा रहा था, जो कई तारीखों का नया गवाह हुआ होना चाहता था। उस तनहा झंडे के साथ फैलता जा रहा था जो खुद ब खुद चमकने में नाकामयाब था, जिस दिन में दिन की तो रात में बिजली सी रोशनी की हर वक्त जरूरत थी, जो खुद लहराने या फहरने में भी किसी काम का न था अगर हवा न चले। कोने थे कि चुपके से कैसे आकर कमरे में खड़े हो जाते थे, शोर की उस डूब में पता ही न चलता था, लेकिन जब झिंझोड़ते थे तो दोनों उठ-उठकर अलग अलग या एक ही दिशा में बगैर एक दूसरे को देखे भागने लगते थे। इन सब के बीच कठोर हाथों में जो हाथ था, वो अपनी मुलायमियत न खोने के लिए दूसरे हाथ से लड़ रहा था, पर बार बार हारकर मायूस बैठ जाता था या कान में कुछ बुदबुदाने लगता था। कहीं भी न जाने का ये वक्त दोनों को बेंच से लगातार उठने को मजबूर कर रहा था और दोनों ने खुद भी कहीं न पहुंचने का शाप अपनी अपनी मर्जी से चुना। दोनों भागने के लिए बैठे रहे। इस बीच हाथ उन सारी खुशबुओं को याद करने के लिए उनके कोनों में दुबका रहा, जो अभी तक निकलकर कमरे में आने की हिम्मत नहीं कर पाए हैं, पर जिनका आना होना है और होना ही आ जाना।
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