मिलेगा तो देखेंगे-इंट्रो- विपुमेले में हिले हुए को कैसे देखें
हिलते-हिलते शुरू होता है। क्या मजाल दिन किसी भी दिन चैन से शुरू हो। कैसी उम्मीद भरी नजरों से देखता हूं, मायूसियों के डूबे समंदर में बेहयाई से इस हिलन को थामकर सुस्थिरता की तरकीब हासिल करने को हाथ पैर पटकता हूं, मगर दिन की तो कोई क्या कहे, हरामखोर डोंगल तक जो अपनी जगह सुस्थिर रहे, कनेक्ट होता नहीं कि डिस्कनेक्ट होता हूं। ओह... कैसा हिलता हुआ डोंगल है और कैसे हिले हुए दिन। बेवकूफ लोग क्या जानें, क्या हमारी हसरत थी, खूब थी कि हम भी तीन नई किताबों के कवर के साथ फोटो खिंचाएं। मगर क्या मजाल कि फोटो चैन से खिंच जाए, वह भी साली मिली, तो हिली हिली। एक प्रेम था ठहरा हुआ, चल रहा सा, मगर आज खबर हुई कि वह भी अपनी जगह था हिला-हिला सा। सन्न हूं... यह कैसा दौर है? कैसा समय है? कैसे लोग हैं? और कैसा मैं हूं? इतने हैं फोटो लहरा रहे, क्या क्या हिला रहे, फिर ऐसा क्यों है कि मैं ही हिला हिला हुआ हूं? दिखता हूं कभी कभी पुस्तक मेलों में खुद को, मगर वह सुस्थिर मैं नहीं, 'मेरा मैं' हिला हुआ है।
मेरे महबूब तुम्हारा शुक्रिया कि तुमने ऐसा हिलाया।
मेरे महबूब तुम्हारा शुक्रिया कि तुमने ऐसा हिलाया।
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