Tuesday, March 3, 2015

मि‍लेगा तो देखेंगे-6

आदमी का मन है कि मन से बाहर बस यूं ही नि‍कल जाता है, पर मन सी बात कहीं पाता है-नहीं पाता है इसकी खबर लि‍ए बगैर ही मन से बाहर नि‍कलता और अक्‍सर तो बहता चला जाता है। औरत का मन है कि मन ही मन सि‍मटा और बगलों में चि‍पका कभी कभी सड़कों पर बेतरतीब घि‍सटता चला जाता है। आदमी फूटना चाहता है और औरत महसूस करना चाहती है। आदमी मन में बात करते करते बीत जाना चाहता है, औरत एक मजबूत जकड़न में जकड़े जकड़े रीतती जाती है। आदमी सामने लगे झंडे की बात करता है, औरत उसे उड़ाने वाली हवा की। आदमी को भूख भी लगी है, औरत को चाय की इच्‍छा है। आदमी रोना चाहकर भी नहीं रो सकता, औरत न चाहते हुए भी बार बार रो देती है। आदमी का मन, मन से जैसे ही बाहर आना चाहता है, औरत का मन झट से कहीं छुप जाता है। इस बीच हवा थोड़ी सी तेज चलती है, आदमी जैकेट पहन लेता है। औरत एक और वादा चाहती है, आदमी मन ही मन मुस्‍कुरा देता है। आदमी सपने देखता है, औरत कहती है कि वो सपनों से घबराती है क्‍योंकि उसे अकेले मरने के सपने आते हैं और यकीनन ये एक सार्वभौम सपना होगा जो ति‍रछी नजरों से नहीं देखा जाता होगा, जो बेइमानी के साथ कभी न बरता गया होगा। एक दिन आदमी ने औरत को एक सपना बताया। इसमें न आप था, न तुम था। जो था वो बस एक शायद था। ठीक दूसरे दि‍न औरत ने भी वही सपना देखा। दोनों अपने अपने सपनों में घि‍सट रहे थे, लोग दोनों को दोनों तरफ से खींच खींचकर आधा कर देना चाहते थे। पहले से ही दोनों की आधी जान और पूरा मन सपनों में ही जज्‍ब हो रहे थे, उसपर ये शायद के बाद की दुनि‍या, जि‍से कोई भी बर्दाश्‍त नहीं कर पा रहा था। सपनों में घसीटे जाने से ऊबकर दोनों ने एक दूसरे पर शर्तें लादने का नया दौर शुरू कर दि‍या। असल में ये दौर नहीं बल्‍कि शुरुआती मुफलि‍सी का मन में दायर वो मुकदमा था जि‍समें न तो मुद्दई था और न गवाह। न वकील था और न ही कोई मुंशी। दोनों जज थे और वो भी दोनों की तरफ पीठ कि‍ए हुए। कैसी अजीब पीठ थी उस मुकदमे की जि‍सके जज ही शायद की दुनि‍या में आकर एक दूसरे पर शर्त दर शर्त दुश्‍मन बने जाते थे। आदमी हंसता है कि वि‍दा का गीत दोनों ने शुरुआत से ही पढ़ा था। आंगन में बच्‍चा खि‍ला लेने की ख्‍वाहि‍श से लेकर जांघों की मछलि‍यों को एक साथ बरता था।
(जारी...)

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