Saturday, February 28, 2015

मि‍लेगा तो देखेंगे-3

अभी कुछ दि‍न पहले ही तो, आदमी फि‍र से उसी लंबोतरी बेंच के पास गया, जहां कभी उसका मन बैठा था। उस कुर्सी पर उजाला तामीर था जि‍से देखकर आदमी बुरी तरह से घबरा गया और तुरंत दूर का वो कोना तलाश कि‍या, जहां अंधेरा बरस रहा था। उस बरसते अंधेरे में लेटकर आदमी बहुत देर तक उस कुर्सी और उसपर तामीर होता उजाला टुकुर टुकुर ताकता रहा, मरघि‍ल्‍ले मन के कुपोषि‍त पि‍ल्‍ले को दि‍लासा देता रहा कि शायद कि‍सी दि‍न उस कुर्सी से उजाला दूर हो जाएगा और वो दोबारा उस कुर्सी पर जाकर बैठ पाएगा, लेकि‍न देर रात तक अंधेरे में ताकते ताकते जब भीड़ भगाई जाने लगी, तब उसे वि‍श्‍वास हुआ कि वो तो अभी भी उसी भीड़ का ही एक हि‍स्‍सा है जो रात दि‍न अभि‍शप्‍त है कड़वा खाने और खि‍लाने के लि‍ए। बेवजह की सर्दी से ठि‍ठुरते हुए आधी बांह की शर्ट में अपनी दोनों बाहों को खुद ही रगड़कर गर्म करने की कवायद में आदमी अभी तक नहीं भूला कि मन का लगना कुछ दि‍नों में भूल जाने की वो सलाह क्‍या सच में सलाह थी या कोई सोची समझी बेइमानी, जो पूरी तरह से प्रोग्राम करके बरती गई। आदमी का मन कड़वा होकर कहीं थूक आने का भी नहीं हो रहा था, बल्‍कि बेइमानी को बरतते हुए उसे कुछ देर और चूसने और उसका सारा रस नि‍कालकर उसी लंबोतरी बेंच के पास फेंक आने का हो रहा था, जहां उसने अपने मन को कुछ दि‍न पहले बैठा देखा था। हवा उस दि‍न भी बेइमान थी, औरत के बालों से बरबस ही खेलकर उसे वो नकाब दे रही थी जि‍समें हर कि‍सी के पीछे मन भर उजाला दि‍खता है, हवा उस दि‍न भी बेइमान ही थी जब आदमी दोबारा उस बेंच पर गया। इस बार आदमी ने पाया कि लोग बेइमान या ईमानदार नहीं होते, हवाएं उन्‍हें ऐसा दि‍खाती हैं।
(जारी...)

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