मिलेगा तो देखेंगे- 2
आदमी परेशान था पर खुद को परेशान होते बिलकुल भी नहीं देखना चाहता था। अंधेरे के बरसने से उसकी परेशानी की फसल के कटने में थोड़ी आसानी होती थी, इसीलिए वो अंधेरे को हमेशा बरसने देना चाहता था। उस फसल को वो चुपचाप बगैर किसी से बताए दिखाए काटकर पीठ पर लादकर किसी ऐसे बाजार में यूं ही फेंक देना चाहता था, जहां वो बिके या न बिके या पड़े पड़े सड़ जाए, तो भी उसकी बदतमीज मायूसियों को उतने चैन का मोल न मिले, जितना कि औरत को बस यूं ही की तफरीह में मिल जाता था। बदतमीज मायूसियों की ये लंबी हरी बेंच हिलती भी नहीं थीं कि तकिया सीने से साटकर हिलते डुलते किसी दिन यूं ही नींद आ जाती और सपने में कोई काला घेरा बनता। हिलते हिलते आदमी का मन दोनों हाथ जोड़कर अपनी नाक पर जा बैठता तो औरत उसे तुरंत टोक देती कि अब इतना पुराना भी मन न हुआ जो मन भर जाए। मन से बाहर निकलने का मन तो खैर कभी हुआ नहीं, पर मन की कैद भी उससे तामीर न हो पाई, अलबत्ता औरत ने चीजों को तुरंत मन से बाहर फेंक दिया तो आदमी भी लालबाग की गुलजार गलियों में बेमन से घूमने लगा और उसी झंडे को बार बार देखने लगा, जहां कभी मन बैठा था- डर डर के बैठा था, अविश्वास के साथ बैठा था, बेइमानी के साथ बैठा था, लेकिन क्रिया यही थी कि बैठा था, एक दिन, एक पल के लिए ही सही, पर बैठा तो था। आदमी ने पूछा, क्या उसने कभी किसी के मन को उठाया है, औरत ने बताया कि अभी तक तो नहीं, शायद पहली बार कोशिश की है लेकिन बहुत डर लग रहा है। आदमी ने कहा, रहने दो... मन को यूं ही बाजार में पड़ा सड़ने दो।
(जारी...)
(जारी...)
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