किसी शहर में खड़े खड़े
पेरिस के किसी स्टेशन पर कभी खड़े खड़े |
हर वक्त या तो गांव या फिर से गांव में ही खुद को खड़ा, बैठा, लेटा और चढ़ा भी पाने वाला आदमी इन दिनों जब खुद को शहर में देखता है तो परेशान हो जाता है कि यहां के पेड़ों की डालियां इतनी कमजोर क्यों होती हैं कि उंगली रखने से टूट जाती हैं। क्यों नहीं ये डालियां गांव के उन पेड़ों के जितनी मजबूत हैं, जिनपर मन भरकर लंफने के बाद भी सटाक से मन नीचे आकर गिर जाता था, लेकिन डाली मुस्कुराती, इठलाती चार पत्ती नुचवाकर वहीं पर हिलती रहती थी और थोड़ी देर बाद हिलनी बंद हो जाती थी। धान तो थोड़ा जिंक, जरा सा नमक या कभी कभी निरमा डालने पर कैसे तो हरा होकर ठठाकर हंसने लगता था, तो क्यों यहां के धान इन सबको डालने के साथ-साथ यूरिया और पोटाश भी डालने के बाद मुरझाए रहते हैं, और जो दाना देते भी हैं, वो इतना पतला, महीन और अर्थहीन होता है कि आदमी की आर्थिक हालत तक डावांडोल होने लगती है। गांव में पेड़ लगाता था तो दो दिन में ही एक कल्ला फोड़ देता था, यहां पर पेड़ लगाता है तो 40-40 दिन बाद भी क्या मजाल कोई नया कल्ला फोड़ें, उल्टे गमला जरूर फोड़ देते हैं।
इस शहर में आदमी खुद को खड़ा देखे भी तो कैसे देखे जहां लोग शादी में जाने के लिए न चुकाने वाला उधार तीन-तीन हजार लेकर जाते हैं, लेकिन साला कोई हरामखोर अपनी प्रेमिका से मिलने के लिए चार फूल गुलाब का खरीदने के लिए दो सौ रुपया भी उधार नहीं मांगता। ठेलों पर चभर चभर हर वक्त कुछ न कुछ चबाते चुम्हलाते लोगों के चेहरों पर झलकती तफरीह क्यों उस शहर को उसके अंदर खड़ा नहीं होने देती या फिर तफरीह का सारा मंत्र उस शहर की नींव में घुसकर लगातार खुद को पढ़-पढ़कर भोथरा कर रहा है कि न तो उस आदमी में शहर खड़ा हो पा रहा है और न ही वो आदमी उस शहर में खड़ा हो पा रहा है। होते हुए भी जो छूट गया है, दिखते हुए भी जो देखने से रह गया है, वो गांव बार बार क्यों उस शहर में आकर बस जा रहा है और आदमी के पैरों को थोड़ा सा और लुंजपुंज बना जा रहा है।
खड़ा होने का सारा ककहरा जिस जमीन पर चटाई बिछाकर कालिख लगाकर सीखा था, शहर की जमीन उससे कहीं ज्यादा चिकनी, चमकदार और सलीकादार भी है तो भी वो सीखा ककहरा क्यों यहां फिसल जा रहा है जो गांव की उबड़खाबड़ जमीन पर इधर उधर उग आई घास या बन आए गड्ढों में पड़ा रहता था और खड़े खड़े पड़ा रहता था। ककहरा कुरेदने के लिए पहले एक गड्ढा था, इस शहर की चिकनी सड़कों पर चप्पल घिसते घिसते
खुद चप्पल में एक गड्ढा हो गया और दूसरा ककहरा अपने आप उग आया। दोनों तरफ के शोरों से बेतरतीबी बटोर कर हिलते हुए दोनों को उगल देने की आदत से परेशान इस आदमी का ये पैर इन शहरों की चिकनी सड़कों पर चप्पल और बगल में भी एक गड्ढा लिए खड़ा हो भी तो कैसे हो। गांव की पोली जमीन में पैर धंस जाते थे, चिपक जाते थे, आगे उठने का नाम नहीं लेते थे, तब जाकर खड़े होने की और आसपास देखने की बात समझ में आती थी। आखिर ये आदमी शहर में कहीं किसी कोने, किसी फ्लाईओवर, किसी बस, किसी मेट्रो या किसी लोकल में खड़ा हो भी तो कैसे हो जब ये शहर ही उसमें खड़ा होना तो दूर, झांकने भी नहीं आता।
अब तक जो कुछ भी ये आदमी समझा, वो ये समझा कि शहर में खड़ा होना पूरी तरह से बेमानी है। शहर में उड़ना चाहिए, तैरना चाहिए, लेकिन खड़ा कभी नहीं होना चाहिए। शहर की छतें बहुत नीची होती हैं, सिर फट जाता है, दिमाग बाहर निकलकर चिकनी सड़क पर फैल जाता है।
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