अभी कुछ दिन पहले ही तो, आदमी फिर से उसी लंबोतरी बेंच के पास गया, जहां कभी उसका मन बैठा था। उस कुर्सी पर उजाला तामीर था जिसे देखकर आदमी बुरी तरह से घबरा गया और तुरंत दूर का वो कोना तलाश किया, जहां अंधेरा बरस रहा था। उस बरसते अंधेरे में लेटकर आदमी बहुत देर तक उस कुर्सी और उसपर तामीर होता उजाला टुकुर टुकुर ताकता रहा, मरघिल्ले मन के कुपोषित पिल्ले को दिलासा देता रहा कि शायद किसी दिन उस कुर्सी से उजाला दूर हो जाएगा और वो दोबारा उस कुर्सी पर जाकर बैठ पाएगा, लेकिन देर रात तक अंधेरे में ताकते ताकते जब भीड़ भगाई जाने लगी, तब उसे विश्वास हुआ कि वो तो अभी भी उसी भीड़ का ही एक हिस्सा है जो रात दिन अभिशप्त है कड़वा खाने और खिलाने के लिए। बेवजह की सर्दी से ठिठुरते हुए आधी बांह की शर्ट में अपनी दोनों बाहों को खुद ही रगड़कर गर्म करने की कवायद में आदमी अभी तक नहीं भूला कि मन का लगना कुछ दिनों में भूल जाने की वो सलाह क्या सच में सलाह थी या कोई सोची समझी बेइमानी, जो पूरी तरह से प्रोग्राम करके बरती गई। आदमी का मन कड़वा होकर कहीं थूक आने का भी नहीं हो रहा था, बल्कि बेइमानी को बरतते हुए उसे कुछ देर और चूसने और उसका सारा रस निकालकर उसी लंबोतरी बेंच के पास फेंक आने का हो रहा था, जहां उसने अपने मन को कुछ दिन पहले बैठा देखा था। हवा उस दिन भी बेइमान थी, औरत के बालों से बरबस ही खेलकर उसे वो नकाब दे रही थी जिसमें हर किसी के पीछे मन भर उजाला दिखता है, हवा उस दिन भी बेइमान ही थी जब आदमी दोबारा उस बेंच पर गया। इस बार आदमी ने पाया कि लोग बेइमान या ईमानदार नहीं होते, हवाएं उन्हें ऐसा दिखाती हैं।
(जारी...)
आदमी परेशान था पर खुद को परेशान होते बिलकुल भी नहीं देखना चाहता था। अंधेरे के बरसने से उसकी परेशानी की फसल के कटने में थोड़ी आसानी होती थी, इसीलिए वो अंधेरे को हमेशा बरसने देना चाहता था। उस फसल को वो चुपचाप बगैर किसी से बताए दिखाए काटकर पीठ पर लादकर किसी ऐसे बाजार में यूं ही फेंक देना चाहता था, जहां वो बिके या न बिके या पड़े पड़े सड़ जाए, तो भी उसकी बदतमीज मायूसियों को उतने चैन का मोल न मिले, जितना कि औरत को बस यूं ही की तफरीह में मिल जाता था। बदतमीज मायूसियों की ये लंबी हरी बेंच हिलती भी नहीं थीं कि तकिया सीने से साटकर हिलते डुलते किसी दिन यूं ही नींद आ जाती और सपने में कोई काला घेरा बनता। हिलते हिलते आदमी का मन दोनों हाथ जोड़कर अपनी नाक पर जा बैठता तो औरत उसे तुरंत टोक देती कि अब इतना पुराना भी मन न हुआ जो मन भर जाए। मन से बाहर निकलने का मन तो खैर कभी हुआ नहीं, पर मन की कैद भी उससे तामीर न हो पाई, अलबत्ता औरत ने चीजों को तुरंत मन से बाहर फेंक दिया तो आदमी भी लालबाग की गुलजार गलियों में बेमन से घूमने लगा और उसी झंडे को बार बार देखने लगा, जहां कभी मन बैठा था- डर डर के बैठा था, अविश्वास के साथ बैठा था, बेइमानी के साथ बैठा था, लेकिन क्रिया यही थी कि बैठा था, एक दिन, एक पल के लिए ही सही, पर बैठा तो था। आदमी ने पूछा, क्या उसने कभी किसी के मन को उठाया है, औरत ने बताया कि अभी तक तो नहीं, शायद पहली बार कोशिश की है लेकिन बहुत डर लग रहा है। आदमी ने कहा, रहने दो... मन को यूं ही बाजार में पड़ा सड़ने दो।
(जारी...)
पूरी रात अंधेरा बरस रहा है, लेकिन क्या मजाल जो उठकर आदमी खिड़की की चिटखनी खोल दे या बिजली का बल्ब दबाकर उजाला फैलाकर उस उजाले के फैलाव में मन को तनिक भी समेट ले। अंधेरा बरस बरस के पूरे कमरे को तर करता जा रहा है और आदमी है कि मन की मायूसियों से उतनी ही बदतमीजी से चिपका हुआ है, जितना कि वो औरत कभी उसे जबरदस्ती घसीटकर खुद से इतनी जोर से चिपकाती थी कि आदमी को ही डर लगने लगता था कि वो जिंदा रहेगा या इसी पल अल्ला मियां का दरवाजा खटखटा रहा होगा। उठकर बैठना या बैठकर खड़ा होना या खड़ा होकर चल देना आदमी के लिए इतना मुश्किल कभी नहीं रहा, जितना कि इस बरसते में ख्वाबों को कालिख से बचाना लगा। क्या था आखिर, एक मुर्दा मन ही तो, जो न तो दफन था और न ही अपनी कब्र से बाहर था। चौकोर कमरे में बनी खुली कब्र में एक छत का बस भ्रम था जो उसपर लटके पंखे की तरह खराब हो होकर बार बार बस यही दिलासा देना चाहता था कि पंखा चलेगा और एक दिन जरूर चलेगा। ...और पंखे को नहीं ही चलना था जिसका कारण भी उतना ही साधारण था, जितना अंधेरे का बेवजह बरसते जाना या जितना मन के मरघिल्ले पिल्ले का किसी गाड़ी के नीचे आकर कुचलकर मर जाना। फिर भी, सवाल ये नहीं कि जिंदा कौन रहना चाहता था, सवाल ये है कि मरना कौन चाहता था। लगातार बरसता अंधेरा या उजाले के फैलाव की प्राचीन इच्छा या मरघिल्ला मन, जो बार बार आशा की नजर से उस अनजान चेहरे की तरफ बार बार यूं ही देखता था और बार बार दुत्कारे जाने के बावजूद दो घड़ी आसमान की तरफ देखने के बाद फिर उसी चेहरे की तरफ देखने लगता था।
(जारी...)
अब कइसे बचे जमीन
बैइठा बाटे बड़ा महीन
लेइहैं गोरू पगहा छीन
कइसे गइहैं मातादीन?
पांणे होंय या चाहे वर्मा
ठाकुर, तेली, विश्वकर्मा
संसद अंबानी मा लीन
ओनही बड़ा औ सब नीन
अब कइसे बचे जमीन
कइसे गइहैं मातादीन?
गाल बजावै पीएम सार
मन भर पनही धै के मार
हंसिया पे धै ल्या अब तौ धार
टाई वाले सब जहीन
काटा इनकै फिलिम से सीन
गाय के रहिहैं मातादीन
बचाय के रहिहैं सगरी जमीन।
कुछ नहीं कहूंगा मैं
बादल फटे
गोली चले
उम्र घटे
चोट लगे
बत्तीसी निकाले
हरदम हसूंगा मैं
और चुप रहूंगा मैं
कुछ नहीं कहूंगा मैं।
लाल-लाल दांतों को
अनोखा कहूंगा मैं
नींद टूटे
चौंक उठे
घर्र घर्र
गला रुंधे
लाल दांतों को छुपा
हंसी में फसूंगा मैं
और चुप रहूंगा मैं
कुछ नहीं कहूंगा मैं।
कोई आए, आता रहे
कोई जाए, जाता रहे
धूप चढ़े, चढ़ती रहे
भीड़ बढ़े, बढ़ती रहे
अ से अलिफ तक के
सपने सब सहूंगा मैं
कुछ न कहूंगा मैं
चुप ही रहूंगा मैं।
कई बार उस आदमी ने सोचा कि खुद को शहर में कहीं तो खड़ा पाए। न खड़ा पाए तो कम से कम बैठा या लेटा तो पाए। इनमें से कुछ भी न पाए तो खुद से चार गुनी बड़ी कांच की खिड़की से शहर को देखता पाए या फिर सर्द कांच के कठोर केबिन में किसी किनारे खुद को पाए, लेकिन आदमी की इतनी चाहतों के बावजूद, रोज ब रोज की लट्ठमलट्ठे और गुत्थमगुत्थे के बावजूद आदमी खुद को शहर में खड़ा लेटा बैठा तो दूर, खुद को देख भी नहीं पा रहा था। न फ्लाईओवरों के ऊपर या शॉर्टकट के चक्कर में नीचे से गुजरते हुए, न रेड लाइट पर बेशर्मी से भीख मांगती बुढ़ियाओं को गरियाते हुए, न चाय वाले से नजदीकी बढ़ाते हुए और न ही हर तीसरे महीने एक नया प्रेम करते हुए, आदमी परेशान था कि वो खुद को पा क्यों नहीं पा रहा है, कहीं पहुंचा क्यों नहीं पा रहा है। साल भर की चार प्रेमिकाओं और उनके मासिक धर्म भी उसे पाने में आखिर क्यों नहीं कोई मदद कर पा रहे हैं। क्या वो आदमी इतना भोथर हो चुका है कि साल भर में चार बार मासिक धर्म पूरी तन्मयता से निभाने के बावजूद उसके पेट में उठने वाला वो दर्द भी उसे वो रास्ता नहीं दिखा पा रहा है, जो मुहल्ला मोतीबाग की गली नंबर चार से तो कतई होकर नहीं जाता है, भले ही उस गली नंबर चार में चार सौ किलोमीटर साइकिल चल चुकी हो।
हर वक्त या तो गांव या फिर से गांव में ही खुद को खड़ा, बैठा, लेटा और चढ़ा भी पाने वाला आदमी इन दिनों जब खुद को शहर में देखता है तो परेशान हो जाता है कि यहां के पेड़ों की डालियां इतनी कमजोर क्यों होती हैं कि उंगली रखने से टूट जाती हैं। क्यों नहीं ये डालियां गांव के उन पेड़ों के जितनी मजबूत हैं, जिनपर मन भरकर लंफने के बाद भी सटाक से मन नीचे आकर गिर जाता था, लेकिन डाली मुस्कुराती, इठलाती चार पत्ती नुचवाकर वहीं पर हिलती रहती थी और थोड़ी देर बाद हिलनी बंद हो जाती थी। धान तो थोड़ा जिंक, जरा सा नमक या कभी कभी निरमा डालने पर कैसे तो हरा होकर ठठाकर हंसने लगता था, तो क्यों यहां के धान इन सबको डालने के साथ-साथ यूरिया और पोटाश भी डालने के बाद मुरझाए रहते हैं, और जो दाना देते भी हैं, वो इतना पतला, महीन और अर्थहीन होता है कि आदमी की आर्थिक हालत तक डावांडोल होने लगती है। गांव में पेड़ लगाता था तो दो दिन में ही एक कल्ला फोड़ देता था, यहां पर पेड़ लगाता है तो 40-40 दिन बाद भी क्या मजाल कोई नया कल्ला फोड़ें, उल्टे गमला जरूर फोड़ देते हैं।
इस शहर में आदमी खुद को खड़ा देखे भी तो कैसे देखे जहां लोग शादी में जाने के लिए न चुकाने वाला उधार तीन-तीन हजार लेकर जाते हैं, लेकिन साला कोई हरामखोर अपनी प्रेमिका से मिलने के लिए चार फूल गुलाब का खरीदने के लिए दो सौ रुपया भी उधार नहीं मांगता। ठेलों पर चभर चभर हर वक्त कुछ न कुछ चबाते चुम्हलाते लोगों के चेहरों पर झलकती तफरीह क्यों उस शहर को उसके अंदर खड़ा नहीं होने देती या फिर तफरीह का सारा मंत्र उस शहर की नींव में घुसकर लगातार खुद को पढ़-पढ़कर भोथरा कर रहा है कि न तो उस आदमी में शहर खड़ा हो पा रहा है और न ही वो आदमी उस शहर में खड़ा हो पा रहा है। होते हुए भी जो छूट गया है, दिखते हुए भी जो देखने से रह गया है, वो गांव बार बार क्यों उस शहर में आकर बस जा रहा है और आदमी के पैरों को थोड़ा सा और लुंजपुंज बना जा रहा है।
खड़ा होने का सारा ककहरा जिस जमीन पर चटाई बिछाकर कालिख लगाकर सीखा था, शहर की जमीन उससे कहीं ज्यादा चिकनी, चमकदार और सलीकादार भी है तो भी वो सीखा ककहरा क्यों यहां फिसल जा रहा है जो गांव की उबड़खाबड़ जमीन पर इधर उधर उग आई घास या बन आए गड्ढों में पड़ा रहता था और खड़े खड़े पड़ा रहता था। ककहरा कुरेदने के लिए पहले एक गड्ढा था, इस शहर की चिकनी सड़कों पर चप्पल घिसते घिसते
खुद चप्पल में एक गड्ढा हो गया और दूसरा ककहरा अपने आप उग आया। दोनों तरफ के शोरों से बेतरतीबी बटोर कर हिलते हुए दोनों को उगल देने की आदत से परेशान इस आदमी का ये पैर इन शहरों की चिकनी सड़कों पर चप्पल और बगल में भी एक गड्ढा लिए खड़ा हो भी तो कैसे हो। गांव की पोली जमीन में पैर धंस जाते थे, चिपक जाते थे, आगे उठने का नाम नहीं लेते थे, तब जाकर खड़े होने की और आसपास देखने की बात समझ में आती थी। आखिर ये आदमी शहर में कहीं किसी कोने, किसी फ्लाईओवर, किसी बस, किसी मेट्रो या किसी लोकल में खड़ा हो भी तो कैसे हो जब ये शहर ही उसमें खड़ा होना तो दूर, झांकने भी नहीं आता।
अब तक जो कुछ भी ये आदमी समझा, वो ये समझा कि शहर में खड़ा होना पूरी तरह से बेमानी है। शहर में उड़ना चाहिए, तैरना चाहिए, लेकिन खड़ा कभी नहीं होना चाहिए। शहर की छतें बहुत नीची होती हैं, सिर फट जाता है, दिमाग बाहर निकलकर चिकनी सड़क पर फैल जाता है।
प्रश्न: दिल्ली में तीन सवारी पर तुरंत चालान होता है.. उत्तर: क्या मतलब बेटी**** ?? प्रश्न: मतलब कुछ नहीं, बस ऐसे ही बताया.. उत्तर: नहीं भो*** के, तुमने जरूर कोई उल्टी बात की है प्रश्न: कुछ नहीं। अब आप क्या करेंगे? उत्तर: सांडे का तेल बेचेंगे बे, तुमसे मतलब?? प्रश्न: मेरा मतलब है, दिल्ली में तो आपकी सरकार नहीं बन पाई? उत्तर: अभी देखना। जब दिल्ली वालों की गां*** फटेगी, तब मजा आएगा प्रश्न: वो कैसे? उत्तर: साला देशद्रोही है ये केजरीवाल प्रश्न: पर वो तो महात्मा गांधी की बात करते हैं? उत्तर: कहां से लाए दो करोड़ के गांधी? प्रश्न: मुझे क्या पता, आप बताइये? उत्तर: सब आईएसआई से आया प्रश्न: मतलब? उत्तर: पाकिस्तान ने साजिश की है प्रश्न: कैसी साजिश? उत्तर: पाकिस्तान देश तोड़ना चाहता है प्रश्न: तो इसलिए केजरीवाल जीते हैं? उत्तर: पर हम ऐसा होने नहीं देंगे प्रश्न: पर अब तो जीत गए? उत्तर: हम उनकी गां*** तोड़के हाथ में दे देंगे प्रश्न: किसकी, केजरीवाल की? उत्तर: जितने देशद्रोही हैं, सबकी प्रश्न: और देशद्रोही कितने हैं? उत्तर: हमको पता है, पेशी में तुम कैसे पेले गए प्रश्न: अच्छा, यही बता दीजिए कि देशद्रोही कौन हैं? उत्तर: जितने कटुए हैं, सब साले देशद्रोही हैं प्रश्न: पर केजरीवाल ने तो बुखारी को मना कर दिया था? उत्तर: बाहर से प्रश्न: क्या बाहर से? उत्तर: अब इतने भी अनजान न बनो प्रश्न: मतलब छुपकर समर्थन लिया? उत्तर: दो करोड़ कहां से आए? प्रश्न: आपकी पार्टी को कितना चंदा मिला? उत्तर: हम कोई भूखे नंगे नहीं उसकी तरह प्रश्न: मतलब? उत्तर: हिंदू राष्ट्र है, हर हिंदू ने रुपया दिया प्रश्न: भीख दी? उत्तर: तुम्हारी गां*** अबकी पक्का टूटेगी प्रश्न: चंदा भी नहीं, भीख भी नहीं, तो फिर आखिर क्या दिया? उत्तर:..... प्रश्न: किरण बेदी...? उत्तर: ऐसा है भो**** के, अब निकल लो बहुत तेज प्रश्न: पर किरण...? उत्तर: पतली गली पकड़ रहे हो या लगाएं गां*** पे लात?
नई दिल्ली/अहमदाबाद/गोरखपुर. विश्व हिंदुत्व परिषद के सोगड़िया पिछले तीन महीने और मूरखधाम पीठ के खादित्यनाथ आठ महीने के गर्भ में हैं। अल्ट्रासाउंड रिपोर्ट में सामने आया है कि सोगड़िया के गर्भ में तीन और खादित्यनाथ के गर्भ में आठ बच्चे पल रहे हैं। इस समाचार के बाद देश की कई साध्वियों ने हर्ष व्यक्त किया है। उमा सारथी ने दोनों को सेब और संतरे सरकारी कोटे से भिजवाए हैं।
हिंदुत्व धर्म की रक्षा के लिए इन दोनो संतों ने इस पुनीत कार्य के लिए हामी भरी। इसके लिए वीर्य विशेष रूप से हिंदुत्व स्पर्म बैंक से मंगवाया गया। हालांकि परिषद के सूत्रों का कहना है कि इस पुनीत कार्य के लिए वीर्य नहीं बल्कि सीधे वीर्यदान करने वाले बुलाए गए थे, जिन्होंने प्राकृतिक रूप से मंत्रोच्चार के साथ इनके मुखद्वार से गर्भाधान किया। जल थल और नभ सहित हिंदुत्व का लिंग पकड़कर हिलाने वाले सैकड़ों लोग इस पुनीत कर्म के साक्षी बने। खुद भक्षी महाराज ने दोनों को क्रमश: तीन और आठ पुत्रवतू का आर्शीवाद दिया।
मुख में हुए गर्भाधान और साथ के साथ भक्षी महाराज के आर्शीवचनों के चलते अब इनके पेट में पल रहे बच्चे लात भी मारने लगे हैं। परिषद के एक प्रवक्ता ने नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि खादित्यनाथ के मलद्वार से कभी-कभी भगवा पानी भी अब रिसने लगा है, जिसका मतलब है कि डिलेवरी अब नजदीक आ रही है। सारे बच्चे अठमासे न पैदा हों, इसके लिए उन्हें विशेष वाई श्रेणी की भी सुरक्षा दी जा रही है। नाल काटने के लिए संवैधानिक ब्लेड लेकर शिश्नसेना पहले से ही तैयार है और सारे औजारों को एक धर्म विशेष के खून में अच्छी तरह से स्टेरलाइज कर लिया गया है।
समाचार लिखे जाने तक खादित्यनाथ के मलद्वार से भगवा पानी का निकलना जारी था। उनके डॉक्टरों के बोर्ड ने उसपर दो रुपये वाला बैंडेड चिपका कर उसे रोकने की कोशिश की, पर असफल रहे। बहरहाल, उन्हें 24 में से 36 घंटे के सुपरविजन में रखा गया है। वहीं सोगड़िया ने गर्भावस्था के दौरान दोबारा मुखमैथुन कर लिया है, जिसकी वजह से उनके गर्भ में पल रहे तीन में से एक बच्चे का लिंग गर्भ में ही परिवर्तित हो गया है। एक बार फिर से नाम ना छापने की शर्त पर परिषद के एक प्रवक्ता ने बताया कि लाख मना करने पर भी सोगड़िया मुखमैथुन की आदत से बाज नहीं आ रहे हैं जिसके चलते परिषद में चिंता है कि गर्भ में पल रहे सभी बच्चों का ही लिंग परिवर्तन न हो जाए।
प्रश्न- बीटिंग रीट्रीट देखी? उत्तर- तुम्हारी तरह राष्ट्रदोही थोड़े हैं बे प्रश्न- आपके नमो तो सुर्रा बॉल पे आउट हो गए? उत्तर- .... प्रश्न- बताइये ना, दोबारा क्यों सलामी ली? उत्तर- भो**** के, जब सेना सलामी देगी तो सलामी नहीं लेंगे तो का झां*** लेंगे? प्रश्न- पर सेना तो राष्ट्रपति को सलामी दे रही थी? उत्तर- तुम्हरी गां*** का दर्द कैसा है अब? प्रश्न- पूरा देश हंस रहा है? उत्तर- राष्ट्रद्रोही हंस रहे है प्रश्न- राष्ट्रप्रेमी भी हंस रहे हैं? उत्तर- स्टालिन की नाजायज औलादें होंगी मा**** प्रश्न- किरण बेदी... ? उत्तर- सुन भो**** के। बत्तमीजी तो करना मत हमारे साथ प्रश्न- पर किरण बेदी कोई बत्तमीजी नहीं, समझदार महिला हैं? उत्तर- बीटिंग रीट्रीट पे बात कर रहे थे ना, वही करो प्रश्न- उपराष्ट्रपति ने बीटिंग रीट्रीट में भी सलामी नहीं ली? उत्तर- चलो भो*** के, किरण बेदी पे ही बात कर लो प्रश्न- दिल्ली से किरण बेदी जीत रही हैं? उत्तर- दिल्ली से हमारी पार्टी जीत रही है बस प्रश्न- किरण बेदी का कहना है कि छोटे मोटे रेप को तूल देना ठीक नहीं? उत्तर- क्या बड़ी बात कही है। सीखो भो*** के तुम लोग प्रश्न- सर्वे बता रहे हैं कि आपकी पार्टी हार रही है? उत्तर- तुम सब साले बिके हुए हो प्रश्न- किरण बेदी पर आपकी 'माल' और 'हाए' नहीं निकली? उत्तर- तुम्हरा लौंडा तो हार्डवेयर की दुकान से एकदम सही नट निकाल के देता है प्रश्न- वो इंटरव्यू छोड़ छोड़कर भाग रही हैं? उत्तर- ई बताओ कि पानी लोगे या सोडा? प्रश्न- पानी उत्तर- रहे न भो*** के गंवार के गंवार। प्रश्न- मुझे दिल्ली में आपको स्पष्ट बहुमत मिलता नहीं दिख रहा? उत्तर- पहली बार मन की बात बोले प्रश्न- मतलब? उत्तर- आप नहीं जीतने वाली प्रश्न- मैं आम आदमी पार्टी की नहीं, आपकी बात कर रहा हूं? उत्तर- तुम तो भो*** के ये भी कह रहे थे कि नमो नहीं जीतेंगे प्रश्न- 30 फीसद वोटों का प्रधानमंत्री है वो? उत्तर- सुलग रही है ना बेटी****। अब तो 2021 तक हम हैं प्रश्न- अगला चुनाव आप नहीं जीतने वाले? उत्तर- अपने लौंडे से कब मिले आखिरी बार? प्रश्न- नई सरकार पुरानी सरकार से कहीं ज्यादा तेजी से देश बेच रही है? उत्तर- अबे बेचेंगे नहीं तो इनकम कैसे होगी? प्रश्न- कंपनियों को हजारों करोड़ की छूट दे रही है? उत्तर- तुम आओ अबकी, हम कुछ कंप्रोमाइज की कोशिश करते हैं प्रश्न- सवाल का जवाब दीजिए? उत्तर- क्या सवाल किया तुमने? प्रश्न- कंपनियों को हजारों करोड़ की छूट दे रही है? उत्तर- अब देखो भो*** के, हर सरकार अपनी तरह विकास करती है प्रश्न- ये आपकी सरकार का विकास है? उत्तर- तुम्हारी लैफ की तरह बकवास नहीं है बेटी*** प्रश्न- स्वास्थ्य सेवाओं से हजारों करोड़ की कटौती कर दी? उत्तर- तो का तुम चाहते हो कि डॉक्टरै भुक्खे मरें? प्रश्न- नहीं, पर गरीब तो मर जाएगा? उत्तर- सौ में से एक गरीब भूख से मरता है प्रश्न- स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिलेंगी तो सौ में से 70 मरेंगे? उत्तर- हमरे लं*** से मरें बे। बहुत बड़ा देस है प्रश्न- हजारों किसानों ने आत्महत्या कर ली? उत्तर- चूतिये हैं साले प्रश्न- वो कैसे? उत्तर- खेती का लिए गां*** में दम चाहिए होता है। पसीना छोड़ाना पड़ता है गां** से। प्रश्न- वो कर्ज के बोझ से मरे? उत्तर- तो काहे लिए कर्ज, तुम्हरे मामा पर्चा पर लिख के दिए रहे का? प्रश्न- आप इंसान की मौत पर इतने क्रूर कैसे हो सकते हैं? उत्तर- तुम अपनी गां** का दर्द का बात कहो, तूड़े थे जबसे, कुछ कम हुआ या नहीं? प्रश्न- पैग बनाइये आप? उत्तर- बना के रखे हैं भो*** के। तुमको बक**** से टैम मिले तब ना प्रश्न- चियर्स उत्तर- मन तो नहीं है बेटी*** तुम्हरे साथ चियर्स करने का, मुला ठीक है... चियर्स।
नी मिल्या यार कहर विच भारय ओ
अते नैनां
अते नैंना चरही खुमारी
काले रूप तयार दंगां नूं
ओदे हथ विच हुस्न कटारी
लाई बे-कदरां नाल यारी, ते टुट गई तड़क करके
हो बल्ले बल्ले, ते टुट गई तड़क करके
बचपन गया जवानी आई
खिरियां ने गुलजारां
बाए गल्लां सूहे रंग वताए
तख्न अजब बहारां
बाए पींग माही दी झूटन आइयां
बस्तल अल्हण मुटयारां
वारों वारी पींग झुझेवां
कर कर नाज हजारां
वारों वारी पींग झुठठेवां
कर कर नाज हजारां
जद्दों आई टटरी दी वारी
ते टुट गई तड़क करके
लाई बे-कदरां नाल यारी
ते टुट गई तड़क करके
हो बल्ले बल्ले, ते टुट गई तड़क करके
जद्दों सइयो मस्त जवानी हो च आवां लाग्गी
ओ जागे भागे माही घर आया शगन मनावन लाग्गी
बुल्लां नाल लगी जद प्याली... हाए
ते टुट गई तड़क करके
लाई बे-कदरां नाल यारी
ते टुट गई तड़क करके
हो बल्ले बल्ले, ते टुट गई तड़क करके
चैतर चिट अचानक माही वेहरे आन खलोया
मैं चुन चुन फुल्ल उम्मदां वाले
सोहना हार पिरोया
चाएन चाए चक के हार नूं नाल गले दे छोया
भैरी निकली डोर नकारी
ते टुट गई तड़क करके
लाई बे-कदरां नाल यारी, ते टुट गई तड़क करके
हो बल्ले बल्ले, ते टुट गई तड़क करके
लाई बे-कदरां नाल यारी, ते टुट गई तड़क करके
ते टुट गई तड़क करके