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बहुत वक्त बाद बोलता मिला एक जीवंत इंसान |
मैं क्या करने निकला था और क्या कर रहा था, इसका मुझे ठीक-ठीक कोई अंदाजा नहीं लग पा रहा था। अब तो जो कुछ भी था, सामने का रास्ता था, बुलेट की धड़-धड़ के साथ ठंडी हवा की कान के बगल से निकलती खड़खड़ थी। इस लंबे रास्ते पर उन सारी जगहों के मील के पत्थर लगे हुए थे, जहां मुझे नहीं जाना था लेकिन क्या मजाल कि जहां जाना था, वहां का एक भी मील का पत्थर पूरे रास्ते में कहीं मिल जाए। कुछ देर तक तो मैं चिढ़ के साथ मील के पत्थरों को खोजता आगे बढ़ता रहा और तकरीबन सौ सवा सौ किलोमीटर चलने के बाद जब उन्हें कहीं भी न पाया तो पूरी ऊब के साथ उन्हें तलाशता रहा। ये बड़ा अजीब रास्ता था। रास्ते पर चलने के लिए बहुत कुछ था लेकिन चलने वाले थे कि दूर दूर तक नज़र ही नहीं आते थे। बड़ी देर बाद जब मुझे रास्ते में कीचड़ में पांव लथेड़े सिर पर धान लादे मोबाइल पर जोर जोर से हलो-हलो करता एक आदमी दिखा तो मैनें तुरंत उसकी फोटो उतार ली। वो बहुत वक्त बाद बोलता मिला एक जीवंत इंसान था जिसके लिए धीमे बोलने का कोई खास अर्थ नहीं था।
यूपी में बहुत घनी आबादी है। यहां अगर हर तरफ से बंद सड़क न हो (जैसे मुरादाबाद से दिल्ली वाली या लखनऊ से फ़ैज़ाबाद वाली या एक्सप्रेस वे) तो साठ के ऊपर कुछ भी चलाना बहुत मुश्किल है। हर दो से तीन किलोमीटर पर दो से तीन गांव पड़ते हैं और गांव में रहने वालों का सड़क पर हर हाल में एक ठीहा होना ही होता है। ठीहा होगा तो कुत्ते से लेकर बच्चे तक उसपर होंगे तो घंटा स्पीड मिलेगी। बिहार में भी आबादी है लेकिन यूपी जितनी घनी नहीं। खासकर उस सड़क पर तो बिलकुल नहीं जो मोहनियां से पटना की तरफ मुड़ती है। ये सड़क मुझे हमेशा याद रहेगी। ठिठुरन, सिहरन, सड़न, करन, ऊबन... ऐसे कौन से भाव नहीं थे, जिनसे होते हुए मैं इस रास्ते से गुजरा। और वैसे भी, गिनती के 185 किलोमीटर के रास्ते पर अगर पांच घंटे लग जाएं तो इन सारे भावों का आना ग़ैरवाज़िब नहीं है। वो भी तब, जबकि ये रास्ता नब्बे फीसद खाली था। कभी कभार कोई बस या जीप दिख जाए तो सही रास्ते पर चलते रहने का यकीन होता था, नहीं तो कहां जा रहे हैं, इसका अंदाजा ही लगाना पड़ रहा था और वो भी ठीक-ठीक नहीं लग पा रहा था। इस रास्ते की उस रास्ते से भी तुलना की जा सकती है जो मुरादाबाद से रामपुर के चावल के कटोरे स्वार से होते हुए हल्त्द्वानी और फिर नैनीताल को जाता है।
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जहानाबाद से गया जाते हुए ताड़ के पेड़ |
रोहतास से निकलते ही शीत लहर ने जोर पकड़ा। हालांकि मैनें इनर के साथ गर्म पायजामा पहना हुआ था लेकिन सर्द हवाएं तेज़ हो रही थीं। एक जगह आराम करने के लिए बाइक खड़ी की तो बहुत दिन क्या बहुत साल पहले कभी देखा हुआ नज़ारा फिर से देखा। दाहिनी तरफ सूरज छुप रहा था और बाईं तरफ चांद निकल रहा था। यही नज़ारा फिर से एकबार जहानाबाद से गया जाते हुए ताड़ के पेड़ों के पार भी दिखा। आधे घंटे के अंदर मेरे सामने रात थी, उधड़ा हुआ पूरी तरह से बियाबान ऐसा रास्ता था जिसमें 30-30 किलोमीटर तक न तो कोई गांव दिखता था न इंसान। गाड़ी घोड़ा भी बहुत कम। भूख बहुत जोर की लगी थी क्योंकि दिन भर में जो खाने को मिला था वो बक्सर में वही काले होंठों वाली स्त्री के बनाए दो समोसे थे या निकलने से ठीक पहले मेवा मिली बनारस की ठंडई। कहीं आदमी नहीं दिख रहा था, कुछ ढंग के खाने की दूकान कहां से दिखती। बीती ताहि बिसारता भूखा पेट बुलेट लिए मैं भागा जा रहा था। ठिठुरता, सिहरता, डूबता पाटलिपुत्र की ओर।
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