Thursday, January 7, 2016

मेरा मन चंपक होने लगता है

मैं अपना प्रस्‍थान अनदेखा रहने देता हूं। लोग मुझे आते हुए तो देखते हैं लेकि‍न मेरा जाना नहीं देख पाते। मेरी पूरी कोशि‍श रहती है कि मुझे जाते हुए कोई न देख पाए। शुतुरमुर्ग की तरह मैं जाने से पहले गर्दन उठाकर चारों तरफ देखता हूं और जब कोई नहीं देख रहा होता है तो मैं चुपचाप दौड़कर नि‍कल जाता हूं। जो कुछ भी जि‍तने हाहाकारी तरीके से नि‍कल चुका है, उसने मेरे जाने की उन ति‍हत्‍तर अदाओं को चुप कर दि‍या है जि‍नसे मैं कभी कभार बति‍याते चंपि‍याते नि‍कलता था। मेरा मन चंपक होने लगता है जब मैं देखता हूं कि कोई मेरा जाना देख रहा होता है। उम्र बढ़ रही है इसलि‍ए मैं मेरे मन का चंपक होना टॉलरेट नहीं कर सकता और इसीलि‍ए सर्दी की गर्म रातों में मैं नहाने का पानी गर्म करके खुद पर बर्फ उड़ेल लेता हूं। रात भी मैनें यही कि‍या, रात भी मैं यही करने वाला हूं सर...

डायरी-3


गजब हाल है कि अपने होने का सबूत दि‍ए बगैर हम कहीं भाग भी नहीं सकते। रि‍हाई क्‍या होती है, ये मुझे तो ठीक ठीक समझ में आती है, महान और अगर उससे भी ऊपर कोई शब्‍द है तो वो यूज करते हुए मेरे साथ रहने वालों को भी आ जाती तो दुनि‍या की पंचानवे फीसद समस्‍या हल हो गई होती। अभी सुबह मैनें कहीं लि‍खा देख लि‍या कि बहादुर आदमी ही रोते हैं और तबसे मैंने बहुत बहादुर बनने की नाकामयाब कोशि‍श करके भी देख ली। न मेरे कमरे में आलमारि‍यां या कोई ऐसा ताखा है जि‍से बहादुर बनते वक्‍त पकड़ा जा सके और न ही टॉयलेट या बाथरूम में। कि‍चन में कुछएक ताखे हैं जि‍नका मैं खुद को कायर बनाने की सतत प्रक्रि‍या के तहत ही इस्‍तेमाल करता हूं। मैं बहादुर नहीं, अलबत्‍ता जो चाहे पैसे देकर मुझे बहादुर बना सकता है। बहादुर कौन सी भाषा का शब्‍द है, इसके लि‍ए मैं राग भोपाली भी नहीं गाने वाला क्‍योंकि मेरे पास न तो उसकी कैसेट है और न कैसेट नंबर। सीडी और पेनड्राइव भी मेरी बहादुर के नाम पर नहीं हैं। यशवंत सिंह मेरे अच्‍छे दोस्‍त हैं और मैनें उनसे कबीर को सुना है।

डायरी-4

1 comment:

कविता रावत said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति ..