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-मोहनियां से पाटलिपुत्र जाते गड्ढों की एक छवि। |
अब ये पुराने जमाने की बात हो चली कि जब बुलेट चले तो दुनिया रास्ता दे। दुनिया में कोई रास्ता नहीं देता और न ही देने को तैयार है। बुलेट क्या, कार लेकर भी चलिएगा तो सड़क पर बैठा कुत्ता भी बगैर हौंकाए नहीं हटता, आदमी तो उससे भी ज्यादा जिद्दी ठैरा। ये बात जितनी जल्दी समझ में आ जाए, उतना अच्छा। और फिर रास्ता कोई देगा कैसे। रास्ता होगा तब ना देगा। होबे नहीं करेगा तो क्या घंटा देगा। जो कुछ भी रास्ता होता है वो होने से कहीं ज्यादा गड्ढा होता है, तालाब होता है जिसके किनारे से हर कोई बस कैसे भी करके निकल जाना चाहता है। सैकड़ों किलोमीटर गड्ढों और तालाब के किनारे किनारे निकलते जब मन मांझी होने लगता है तो पता चलता है कि कितनी भी हिम्मत बटोर लें, मन ही मन कितने भी पत्थर काट लें, गड्ढे में चलना, उसमें पड़े रहना ही हम सबकी नियति बन चुकी है। फिर चाहे हम ऊपी में हों या बिहार में, अंतत: हम रास्तों में बने गड्ढों में ही होते हैं।
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वही... |
रास्ता कैसे लिया जाता है, उससे ज्यादा कैसे सामने वाले को एकदम नहीं दिया जाता है, ये हम बनारस में अच्छी तरह से सीख सकते हैं। थोड़ा बहुत इसका असर पता नहीं कैसे मेरठ वालों पर पड़ा है, लेकिन पूरा पड़ने से रह गया है, इसलिए अभी भी मेरठ में दस मिनट की ड्राइव में हम दो मिनट इधर उधर देख सकते हैं। बनारस में दस मिनट गाड़ी चलाएंगे तो पंद्रह मिनट सिर्फ सामने से रास्ता छीनने को लपलपाते लोगों से ही निपटने में लगेगा। कहने को तो सब लाल बत्ती देखकर रुक जाते हैं लेकिन बत्ती जब हरी होती है तो वो सामने से आते ट्रक को भी नाली किनारे निकलने पर मजबूर कर दें। पटना और मेरठ में रास्ता ले लेने वालों में उन्नीस बीस का ही फर्क है, फिर भी जबरदस्ती आपका रास्ता छीनकर जिस कद़र बनारसी लाज़वाब करते हैं, वो या तो अपना सिर पीटने पर मज़बूर करता है या उनका। उनका तो पीट नहीं पाएंगे क्योंकि पीटने और पाटने में उन्हें ज्यादा यकीन है (बनारस से लेकर पुस्तक मेले में वो लोगों को इसकी धमकी भी देते रैते हैं।) तो बेहतर यही होगा कि मेरी तरह अपना माथा पीटें और बगैर किसी से पिटे घर सुरक्षित वापस लौटने का यकीन कर अपने हाथ पैर टो लीजिए कि सबकुछ सुरक्षित तो है या रास्ते के किसी गड्ढे में कुछ गिरा तो नहीं आए।
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वही... |
वैसे मोहनियां से पटना वाले रास्ते पर लोग खूब पास देते हैं। खुद किनारे किनारे जुगत लड़ाकर चलते रहते हैं और पास मांगिए तो झट आगे जाने के लिए हाथ दिखा देते हैं। आगे जाने के लिए जो चीज सामने होती है वो घुटने भर जितने बड़े गड्ढे होते हैं। चाहे रोहतास हो, बक्सर, भोजपुर या आरा ही हो, यहां के लोग चाहते ही नहीं कि कोई उनके यहां सही सलामत पहुंच जाए। अगर पहुंच जाता है तो खुशी मनाकर चार लोगों से जरूर गाते होंगे कि अरे, ई त एकदमे सुरच्छित पहुंच गइली हो। मुझे कोई ताज्जुब नहीं होगा अगर सालों से गड्ढे में चलते गिरते सुरक्षित घर पहुंचते इन जिलों के लोगों ने इसपर कोई लोकगीत भी बना लिया हो क्योंकि जो भी लोक है, वो गड्ढे में है और जो गड्ढे हैं, एक बार गिरकर देखिए, हर लोक का दर्शन होने की सुनिश्चित गारंटी है।
कइलीं गढ़इयन का पार
अइलीं रमेसर के सार
लवनी फटफटिया औ कार
उखड़ा नाहीं एक्को बार
चना जोर गरम।
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