Tuesday, June 5, 2007

महानगर का चूल्हा

संदीप कुमार


जिस गांव की मिट्टी ने

पाला-पोसा

पढ़ाया-लिखाया

वहां के लिए नाकाबिल निकला

इस अनजान महानगर ने

दो टके की नौकरी क्या दी

सारा दिन खून जलाना पड़ता है

तब जाकर चूल्हा जल पाता है

दो जून की रोटी

नसीब हो पाती है।

1 comment:

Anonymous said...

एक बहुत ही अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है आपने | यह कविता तारीफ़-ए-काबिल है | बहुत ही नयापन दिखा इसमें |
- रवि कुमार

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