Thursday, May 3, 2007

पेठिया का पावर

संदीप कुमार
पेठिया ऎसी चीज़ ही है कि जल्दी भूलती ही नही। और ये ना भूलना शायद हमारे अन्दर बची हुई इमानदारी को भी काफी सच्चाई से बाहर निकालता है , एक नयी दुनिया बनाता है , जिसके आस पास पेठिया है , उसमे टहलने वाले लोग हैं, चंद सामान रख कर कुछ बेचने वाले दूकानदार हैं और इन सब के बीच विचरते संदीप हैं । देखते हैं इस बार संदीप पर पेठिया ने कौन सा रंग चढाया है।

मैंने तो आप सबों को बताया ही था कि पेठिया का पड़ोसी हूं मैं। मेरे घर के सामने ही पेठिया (पेठिया माने साप्ताहिक हाट...बार-बार हिन्ट नहीं दूंगा... इसे रट लीजिए, बूझे) लगता-सजता है। हफ्ता में एक दिन ही सही लेकिन उस दिन (यानी गुरूवार को) अपने भाव कम नहीं होते। उस दिन पूरे पावर में रहता था मैं। ये उन दिनों की बात है जब मैं स्कूल में था। पिछले दशक से जबसे पढ़ने-लिखने (!) के बहाने घर से बाहर रहा और आज जब अपनी (कु)काबिलियत की वजह से टीवी के पर्दे के पीछे से मीडियाकारिता (पत्रकारिता नहीं जनाब) कर रहा हूं तो वो दिन बहुत याद आते हैं। दिहाड़ी के चक्कर में नोएडा-इंदिरापुरम अप-डाउन करते-करते चिर कुंवारा होते हुए भी यूं तो अपना कस्बा बगोदर और घर-परिवार बहुत याद तो नहीं आता पर जैसे ही गुरूवार का दिन आता है मुझे किसी की याद आए न आए, पेठिया की याद जरूर सताने लगती है।
अरे, वो भी क्या दिन थे जनाब। अपनी तो रज-गज (पूरी चलती) ही थी मानो। पेठिया में किरासन तेल (आपलोग इसे शायद घासलेट कहते हैं न...जब पहली बार मैंने किरासन तेल के लिए ये नाम सुना था, तो काफी हंसा था, आखिर तेल भी क्या घास पर लेट सकता है..) बिकता था। हफ्ते में एक दिन के लिए। किरासन की बड़ी किल्लत थी। राशन-कार्ड पर जो तीन-चार लीटर तेल महीने में मिलता था, उससे तीस दिन ढिबरी जलना मुश्किल था। सो बिना राशन-कार्ड पर मिलने वाले किरासन लेने के लिए पचीसियों गांव के लोग पेठिया के दिन कई कोस दूर से उमड़े चले आते थे। लाइन लगती थी लंबी-सी। लोग तो बुधवार की रात से ही मोबिल का पांच लीटर वाला डब्बा या कनस्तर लाइन में लगा देते थे। रात में लोग मेरे ही बरामदे में सोते और तीन-चार बजे सुबह पेठियाटांड़ में जम जाते। इतनी जुगत करने पर गुरूवार (पेठिया के दिन) की सुबह लोग किरासन तेल का ड्रम खत्म होने से पहले एक-दो लीटर पा पाते थे। लेकिन मुझे किरासन के लिए इस तरह की कोई कोशिश नहीं करनी पड़ती थी। तेल बेचने वाला डीलर मेरे दरवाजे पर ही मोटरसाइकिल लगाता था और इसकी एवज में बिना किसी मेहनत के मुझे चार लीटर किरासन मिल जाता था। हालांकि कीमत मैं चुकाता था पर किरासन मिल जाना ही अपने-आप में बहुत बड़ी बात थी नहीं तो पॉकेट में गड्डियां रहते हुए भी किरासन तेल नहीं मिल पाता था, जनाब।
साथ ही जो लोग दूर गांवों से पेठिया आते थे उनमें से अधिकतर लोग मेरे दरवाजे पर ही साइकिल लगाते। और ये मेरी मर्जी होती कि किसकी साइकिल यहां लगे और किसकी नहीं। और जो साइकिल भाया उसे चलाने का पूरा सुख भी उठाता। सीधी हैंडिल वाली रेंजर साइकिल अपने मोहल्ले में सबसे पहले मैंने ही चलाई थी। ये साइकिल एक गांव का लड़का लेकर आया था जिसकी हाल ही में शादी हुई थी और स्कूल जाने के लिए उस दूल्हे राजा को ससुराल वालों ने ये साइकिल और एक चमचमाती टाइटन घड़ी, संतोष कंपनी का रेडियो दिया था। बंदा हाईस्कूल में मुझसे सीनियर था पर पेठिया के बगल वाला होने के कारण मेरे हर नखरे सहता था। पेठिया के दिन उसे अपनी साइकिल मेरे दरवाजे पर लगाना जो होता था।
इसी तरह कई लोगों को झोला की भी जरूरत होती तो मेरे पास ही आते। एक बार उस मास्टर साहब को कटहल बहुत भा गया जो बच्चों को मारने-पीटने को लेकर बेहद बदनाम थे। कभी-कभी मुझे भी कनेठिया देते थे। पर मास्टर साहब कटहल लेकर कैसे जाएं, झोला तो था नहीं। उन्हें मेरी याद आई और मां की नजरों से बचाकर उन्हें झोला दे भी दिया। हालांकि आज तक वो झोला उस मास्टर साहब ने नहीं लौटाया पर क्या मजाल कि उस दिन के बाद कभी स्कूल में मुझे नजर उठाकर भी देखें। ऐसे मेरी मां को हमेशा मुझपर ही शक होता रहा कि मैंने उनका वो कढ़ाई किया हुआ झोला कहीं इधर-उधर कर दिया जो उन्होंने अपनी शादी के पहले ढिबरी की रोशनी में आंखें फोड़-फोड़कर बनाया था और उसपर लिखा था स्वागतम। (सच इसलिए बोल दिया क्यूंकि...मेरी मां इस कन्फेशन को नहीं पढ़ पाएगी...)
पेठिया के बगल वाला होने पर एक अदना-सा बच्चा भी पावरफुल हो जाता है। मुझे नहीं पता कि बगोदर में आजकल मेरी वो जगह किसने हासिल की है। शायद पड़ोसी का कोई बच्चा आजकल पूरे पावर में हो। मेरे जमाने में तो साइकिल ही हाथ लग पाता था। हो सकता है उसे बाइक उड़ाने का मौका मिल जाता हो।
इसे भी अब को-इंसीडेंट ही कहें कि मेरे कस्बे बगोदर में भी गुरूवार को ही पेठिया लगता है तो आज जिस इंदिरापुरम में मेरी भाड़े की रिहाइश है, वहां भी गुरूवार को ही पेठिया (अब यहां के लोग तो इसे बाजार ही कहते हैं, कहते रहे, मुझे क्या, मैं तो पेठिया ही कहूंगा) लगता है। पर यहां इंदिरापुरम में वो पावर कहां जो बगोदर में था, बॉस।

1 comment:

रंजू भाटिया said...

sandeep ji bahut nahi baandh paayi aapki yah rachna ...thoda sa isko aur interesting banaiye ....