Friday, May 18, 2007

मसौधा पंहुचे हरी पाठक

हरी का सर रह रहकर घूम रहा था। उसके साथ जो हुआ, बार बार उसके दिमाग में चक्कर काट रहा था। जब उसे लगा कि अब आगे चलना मुश्किल है तो वह रेल के फाटक के सामने वाले तालाब के किनारे जाकर बैठ गया। सोचने लगा। थोडा सोचता और एक कंकड़ उठाता और तालाब के हरे पानी में फेंक देता। टपाक की आवाज़ आती और हरी फिर से सोचता। तभी उसे शक्तिमान याद आया। उसके साथ भी तो ऎसी ही अजीब अजीब चीज़े होती रहती थीं। हरी ने फिर से एक कंकड़ तालाब मे थोडा नचाकर फेंका। कंकड़ ने पानी पर दो तीन टापले खाए और डूब गया। हरी के दिमाग का बल्ब जल गया। अब उसे काफी कुछ समझ मे आने लगा था। उसे लगने लगा कि वह ही शक्तिमान है। वह उठ खड़ा हुआ। अपनी जगह पर खडे होकर उसने चारों तरफ घूम कर सात आठ चक्कर लगाए। और जब हरी पाठक रुका तो.... ! जब रुका तब भी वह उसी पाजामे और शर्ट में था और सामने खादी साईकिल उसे चिढ़ाती सी लगी। अन्मनेपन से उसने साईकिल से मुह फेर लिया और फिर से तालाब की तरफ देखने लगा। सोचा कि अगर भगवान् शंकर जी ने उसे आर्शीवाद दिया हैचाम्त्कारों का , तब तो वह पानी पर भी चल सकता है। यह सोच कर हरी ने तालाब की तरफ कदम बढाया और पूरे आत्मविश्वास से तालाब के पानी पर अपना पहला पैर रखा। भच्च की आवाज़ आयी और उसका पैर चप्पल सहित तालाब की मिटटी में धंस गया। पैर बाहर खींचा तो चप्पल उसी मिटटी मे धंसा का धंसा रह गया। बुदबुदाते हुए हरी ने हाथ डालकर मिटटी से चप्पल निकाली और पैर और चप्पल दोनो धुले। अब हरी को यकीन हो गया था उसमे कोई चमत्कारिक शक्ति नही है। सुबह के दस बज चुके थे और दस बजे वाली ट्रेन आने वाली थी इसलिये फाटक बंद हो गया था। हरी ने गहरी सांस ली और स्टेशन की तरफ बढ़ा।
जब हरी स्टेशन पंहुचा तो ट्रेन आकर खडी हो गयी थी। उसने साईकिल उलटी की और पैडल के सहारे उसे डब्बे की खिड़की से फंसाकर लटका दी। अन्दर जाकर उसे अपने अन्गौछे से बाँध दिया। अब साईकिल सुरक्षित थी। हरी आकर ट्रेन के दरवाज़े की सीढ़ियों पर बैठ गया। वहाँ से साईकिल भी दिखाई देती थी और साईकिल के पहिये की तरह गोल गोल घूमते खेत , पेड और सबकुछ भी। गोल घूमते खेतों को देखकर हरी उसी मे गुम हो गया। ध्यान तब टूटा जब मसोधा , जहाँ कि उसे उतरना था, आ गया। हरी उतरा और साईकिल लेकर आराम से पैडल मारते हुए दुकान पंहुचा। मालिक आ गया था और चुंकि उसने ही दुकान खोली थी इसलिये बुरी तरह से भन्नाया हुआ था।

2 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

कल्पना और यथार्त को दर्शाती एक अच्छी रचना है। एक अबोध की हताशा से उबरनें की छट्पटाहट स्पष्ट दीख पड़ती है।बहुत अच्छी रचना है।बधाई।

रंजू भाटिया said...

likhne ka tareeka bahut interesting hai ...aage padhne ki jigyasa dil jaag jaati hai....likhte rahe ..hame hari pathak ke karnaamo ka intezaar rahega ....