अयोध्या में दंगा भड़काने की कोशिश की नरेंद्र मोदी ने
अयोध्या फैजाबाद में रैली करने के लिए बहुत सारे मैदान हैं। बचपन से आज तक देखता आया हूं कि राजनीतिक रैलियों के लिए दो मैदान (लालकुर्ती कैंट और गुलाबबाड़ी) का मैदान लगभग सभी दलों को मुफीद लगता रहा है। दोनों ही मैदान खासे बड़े हैं और शहर के दो छोरों पर हैं। ऐसे में राजकीय इंटर कॉलेज के मैदान में, जिसमें 6-7 हजार से ज्यादा की भीड़ किसी भी तरह से नहीं आ सकती है, वहां राम की फोटो लगाकर हिंदू गर्जना करने के निहितार्थ क्या हैं, इसे थोड़ा समझने की जरूरत है। काबिलेगौर है कि यह गर्जना ऐसे माहौल में की गई, जब शहर दंगे के दर्द से निकलने की कोशिश में था और यह भी कि शहर में यकीनन बेतरतीब तनाव, डर, घृणा, आक्रोश जैसी भावनाएं बेभाव में तैर रही थीं।
इससे पहले कि किसी रिजल्ट पर पहुंचा जाए, एक बार राजकीय इंटर कॉलेज के आसपास की भौगोलिक स्थिति समझ लेनी चाहिए। जीआईसी के मेन गेट के सामने ही एक मशहूर मस्जिद है जो अपनी तार्किक तकरीरों के लिए मुस्लिमों में ही नहीं, हिुदओं में भी एक सदभाव की नजर से देखी जाती रही है। इस मस्जिद के बगल से ही मुस्लिम आबादी का मोहल्ला कसाबबाड़ा शुरू होता है जिसकी सीमा फतेहगंज चौराहे पर जाकर खत्म होती है। जीआईसी के मेन गेट की दाहिनी तरफ की आबादी में 70 फीसद से ज्यादा मुस्लिम परिवार हैं। जीआईसी के पिछले गेट की तरफ रेल की पटरी है जिसको पार करके विश्व विख्यात बहू बेगम के मकबरे को जाने वाली रोड है जो कि बमुश्किल डेढ़ सौ मीटर दूर जाकर मकबरा तिराहे पर मिलती है। वहां भी मुस्लिम मिश्रित आबादी है। जीआईसी के बाईं तरफ प्रिंसिपल का मकान है जिसको पार करते ही फिर से मुस्लिम आबादी है। यहां पर याद दिला दें कि दो साल पहले फैजाबाद में विजयादशमी के दिन दंगे की चिंगारी जीआईसी के मेन गेट से लेकर फतेहगंज चौराहे के बीच ही भड़की थी। फतेहगंज भाजपा को समर्थन देने वाले बनिया व कायस्थों का इलाका है जिसमें गाहे बगाहे कुर्मी और पंडित भी रहते देखे जा सकते हैं।
अब जो पहला सवाल जेहन में उठता है कि लालकुर्ती और गुलाबबाड़ी जैसी सेफ और जनता के लिए सुविधाजनक मैदानों को छोड़ एक मुस्लिम आबादी के बीच हिंदुत्व की हुंकार बाकायदा राम की तस्वीर के साथ क्यों भरी गई। आखिर वह कौन सा कारण रहा होगा जो दो साल से रिस रहे दंगे के घाव को बजाए भरने के, उसे और खोदने की कोशिश की गई। एकबारगी दिमाग जवाब देता है कि सत्ता प्राप्ति। और शायद यही पहला जवाब भी होगा। लेकिन जिस तरह से जीआईसी मैदान में नरेंद्र मोदी ने जहर उगला है, कसाबबाड़ा के मुसलमान सत्ता प्राप्ति के सवाल से जरा सा भी मुतमईन नहीं हैं। मेरे कई दोस्तों ने साफ कहा कि अगर मोदी सत्ता में आते हैं तो जाहिराना तौर पर उनकी आंख में मुस्लिमों के लिए बाल जरूर रहेगा, जैसा कि मोदी की क्राइम केस हिस्ट्री हमें पहले भी बताती आई है।
मतदान वाले दिन शहर में कई लोगों से बातचीत करने के बाद जो निष्कर्ष निकला, जिस तरह से नरेंद्र मोदी की जीआईसी मैदान में रैली आयोजित की गई, उसका पूर्वानुमान लगाना कोई कठिन नहीं था। जीआईसी में हुई रैली के चलते जो मुस्लिम वोट पारंपरिक रूप से समाजवादी पार्टी में जाता था, वह भी पलटकर कांग्रेस के पास आ गया। और ये सिर्फ शहरी क्षेत्र में ही नहीं हुआ, लखनऊ रोड पर रुदौली तक और इलाहाबाद रोड पर तकरीबन बीकापुर तक मुस्लिम मतदाताओं की एकजुटता कांग्रेस के प्रति दिखाई/सुनाई दी। यह वही इलाका है जो दो साल पहले भीषण दंगे की चपेट में आया था। ये वही दंगा था जिसकी चिंगारी जीआईसी मैदान से भड़की और आगजनी चौक में शुरू हुई। जीआईसी मैदान में सभा करने का साफ मतलब था कि हिंदू मतों का साफ विभाजन। अब ये विभाजन भले ही दंगे की शक्ल में होता तो इससे भी नरेंद्र मोदी को कोई खास मतलब नहीं था। हजारों करोड़ रुपये के खर्च में सौ पचास लोगों की जान भी चली जाए तो मुझे नहीं लगता कि नरेंद्र मोदी को कोई खास फर्क पड़ने वाला है या था। फर्क पड़ता होता तो अब तक भगोड़ा ना साबित हुए होते। इस बार के मतदान में कांग्रेस एक तरह से फैजाबाद में सांप्रदायिकता विरोध और धर्मनिरपेक्ष राजनीति का परचम वोट के लालच में ही सही, पर उठाती दिखी, जबकि इसकी भी क्राइम केस हिस्ट्री दंगों की ही रही है।
बहरहाल, फैजाबाद में दो धर्मों के बीच की खाई को पाटने की बजाए नरेंद्र मोदी इसे और गहरा करने में थोड़ा बहुत कामयाब भी हुए, वो तो अयोध्या (अ+युद्ध+आ=जहां युद्ध न होता हो, वहां आइये) में अभी भी गंगा जमुनी तहजीब कायम रह पाई है जो कसाबबाड़ा से लेकर कुरैश निस्वां स्कूल कंधारी बजार तक के मेरे बचपन के मुस्लिम दोस्तों ने पूरी शिद्दत से बरती। जिस दिन मोदी जीआईसी के मैदान में दंगा कराने आए थे, रात भर कई दोस्तों के फोन आते रहे जो लगातार समुदाय में डर की चर्चा करते रहे। उन्हें तो यहां तक चिंता थी कि क्या उन्हें अपने मत के प्रयोग का भी अधिकार मिलेगा या उन्हें अपने घरों में कैद रहना पड़ेगा। राम की तस्वीर के साथ मंदिर निर्माण और राम कसम और राम राज जैसे शब्दों या जुमलों से कौन सा मुस्लिम मुतमईन हुआ है और रह सकता है। और वो कैसा प्रधानमंत्री होगा जो एक मुस्लिम इलाके में जाकर उनकी मस्जिद पर एक मंदिर निर्माण की कसम खाता है। जीआईसी में हुई सभा में कोशिश तो ये थी कि शक्ति प्रदर्शन कर साफ तौर पर यह संदेश दिया जाए कि यदि आप हमारे साथ नहीं हैं तो आपका हाल फिर से वही किया जाएगा, जो दो साल पहले किया गया था। दो साल पहले भाजपा और योगी आदित्यनाथ के गुर्गों द्वारा भड़काए गए दंगे में कई मुस्लिम भाइयों की जान गई थी और दर्जनों मुस्लिम भाइयों को अपनी रोजी रोटी से हाथ धोना पड़ा था।
इस रैली का रिजल्ट देखें (मतदान के दिन की प्वाइंट्स से बातचीत पर आधारित)
1- मुस्लिमों ने खुलकर सांप्रदायिकता के विरोध में मतदान किया।
2- हिंदुओं ने खुलकर सांप्रदायिकता के पक्ष में मतदान किया।
3- गंगा जमुनी तहजीब को मानने वालों ने भी खुलकर सांप्रदायिकता के विरोध में मतदान किया।
अब एक बार फिर से फैजाबाद की फिजां में जहर घुल चुका है जो सिर्फ और सिर्फ जीआईसी के मैदान में हिंदुत्व की हुंकार भरने से हुआ। आने वाले दिन वाकई मुश्किल भरे हैं, फिर भी, मुझे अपने शहर की गंगा जमुनी तहजीब पर भरोसा तो है, पर इस भरोसे में मोदीवादी हिंदुत्व के वीर्यवान आताताई दीमक लगाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं।
आज मोदी बनारस के बेनियाबाग में सभा न होने देने को लेकर सांप्रदायिकता का जो नंगा नाच बनारस में कर रहे हैं, गनीमत है कि वो लाख कोशिश करने के बाद भी फैजाबाद में न हो पाया। पर ये गनीमत कब तक रहेगी, कुछ नहीं कहा जा सकता। बनारस में तो दंगा कराने की पूरी कोशिशें चल रही हैं।
इससे पहले कि किसी रिजल्ट पर पहुंचा जाए, एक बार राजकीय इंटर कॉलेज के आसपास की भौगोलिक स्थिति समझ लेनी चाहिए। जीआईसी के मेन गेट के सामने ही एक मशहूर मस्जिद है जो अपनी तार्किक तकरीरों के लिए मुस्लिमों में ही नहीं, हिुदओं में भी एक सदभाव की नजर से देखी जाती रही है। इस मस्जिद के बगल से ही मुस्लिम आबादी का मोहल्ला कसाबबाड़ा शुरू होता है जिसकी सीमा फतेहगंज चौराहे पर जाकर खत्म होती है। जीआईसी के मेन गेट की दाहिनी तरफ की आबादी में 70 फीसद से ज्यादा मुस्लिम परिवार हैं। जीआईसी के पिछले गेट की तरफ रेल की पटरी है जिसको पार करके विश्व विख्यात बहू बेगम के मकबरे को जाने वाली रोड है जो कि बमुश्किल डेढ़ सौ मीटर दूर जाकर मकबरा तिराहे पर मिलती है। वहां भी मुस्लिम मिश्रित आबादी है। जीआईसी के बाईं तरफ प्रिंसिपल का मकान है जिसको पार करते ही फिर से मुस्लिम आबादी है। यहां पर याद दिला दें कि दो साल पहले फैजाबाद में विजयादशमी के दिन दंगे की चिंगारी जीआईसी के मेन गेट से लेकर फतेहगंज चौराहे के बीच ही भड़की थी। फतेहगंज भाजपा को समर्थन देने वाले बनिया व कायस्थों का इलाका है जिसमें गाहे बगाहे कुर्मी और पंडित भी रहते देखे जा सकते हैं।
अब जो पहला सवाल जेहन में उठता है कि लालकुर्ती और गुलाबबाड़ी जैसी सेफ और जनता के लिए सुविधाजनक मैदानों को छोड़ एक मुस्लिम आबादी के बीच हिंदुत्व की हुंकार बाकायदा राम की तस्वीर के साथ क्यों भरी गई। आखिर वह कौन सा कारण रहा होगा जो दो साल से रिस रहे दंगे के घाव को बजाए भरने के, उसे और खोदने की कोशिश की गई। एकबारगी दिमाग जवाब देता है कि सत्ता प्राप्ति। और शायद यही पहला जवाब भी होगा। लेकिन जिस तरह से जीआईसी मैदान में नरेंद्र मोदी ने जहर उगला है, कसाबबाड़ा के मुसलमान सत्ता प्राप्ति के सवाल से जरा सा भी मुतमईन नहीं हैं। मेरे कई दोस्तों ने साफ कहा कि अगर मोदी सत्ता में आते हैं तो जाहिराना तौर पर उनकी आंख में मुस्लिमों के लिए बाल जरूर रहेगा, जैसा कि मोदी की क्राइम केस हिस्ट्री हमें पहले भी बताती आई है।
मतदान वाले दिन शहर में कई लोगों से बातचीत करने के बाद जो निष्कर्ष निकला, जिस तरह से नरेंद्र मोदी की जीआईसी मैदान में रैली आयोजित की गई, उसका पूर्वानुमान लगाना कोई कठिन नहीं था। जीआईसी में हुई रैली के चलते जो मुस्लिम वोट पारंपरिक रूप से समाजवादी पार्टी में जाता था, वह भी पलटकर कांग्रेस के पास आ गया। और ये सिर्फ शहरी क्षेत्र में ही नहीं हुआ, लखनऊ रोड पर रुदौली तक और इलाहाबाद रोड पर तकरीबन बीकापुर तक मुस्लिम मतदाताओं की एकजुटता कांग्रेस के प्रति दिखाई/सुनाई दी। यह वही इलाका है जो दो साल पहले भीषण दंगे की चपेट में आया था। ये वही दंगा था जिसकी चिंगारी जीआईसी मैदान से भड़की और आगजनी चौक में शुरू हुई। जीआईसी मैदान में सभा करने का साफ मतलब था कि हिंदू मतों का साफ विभाजन। अब ये विभाजन भले ही दंगे की शक्ल में होता तो इससे भी नरेंद्र मोदी को कोई खास मतलब नहीं था। हजारों करोड़ रुपये के खर्च में सौ पचास लोगों की जान भी चली जाए तो मुझे नहीं लगता कि नरेंद्र मोदी को कोई खास फर्क पड़ने वाला है या था। फर्क पड़ता होता तो अब तक भगोड़ा ना साबित हुए होते। इस बार के मतदान में कांग्रेस एक तरह से फैजाबाद में सांप्रदायिकता विरोध और धर्मनिरपेक्ष राजनीति का परचम वोट के लालच में ही सही, पर उठाती दिखी, जबकि इसकी भी क्राइम केस हिस्ट्री दंगों की ही रही है।
बहरहाल, फैजाबाद में दो धर्मों के बीच की खाई को पाटने की बजाए नरेंद्र मोदी इसे और गहरा करने में थोड़ा बहुत कामयाब भी हुए, वो तो अयोध्या (अ+युद्ध+आ=जहां युद्ध न होता हो, वहां आइये) में अभी भी गंगा जमुनी तहजीब कायम रह पाई है जो कसाबबाड़ा से लेकर कुरैश निस्वां स्कूल कंधारी बजार तक के मेरे बचपन के मुस्लिम दोस्तों ने पूरी शिद्दत से बरती। जिस दिन मोदी जीआईसी के मैदान में दंगा कराने आए थे, रात भर कई दोस्तों के फोन आते रहे जो लगातार समुदाय में डर की चर्चा करते रहे। उन्हें तो यहां तक चिंता थी कि क्या उन्हें अपने मत के प्रयोग का भी अधिकार मिलेगा या उन्हें अपने घरों में कैद रहना पड़ेगा। राम की तस्वीर के साथ मंदिर निर्माण और राम कसम और राम राज जैसे शब्दों या जुमलों से कौन सा मुस्लिम मुतमईन हुआ है और रह सकता है। और वो कैसा प्रधानमंत्री होगा जो एक मुस्लिम इलाके में जाकर उनकी मस्जिद पर एक मंदिर निर्माण की कसम खाता है। जीआईसी में हुई सभा में कोशिश तो ये थी कि शक्ति प्रदर्शन कर साफ तौर पर यह संदेश दिया जाए कि यदि आप हमारे साथ नहीं हैं तो आपका हाल फिर से वही किया जाएगा, जो दो साल पहले किया गया था। दो साल पहले भाजपा और योगी आदित्यनाथ के गुर्गों द्वारा भड़काए गए दंगे में कई मुस्लिम भाइयों की जान गई थी और दर्जनों मुस्लिम भाइयों को अपनी रोजी रोटी से हाथ धोना पड़ा था।
इस रैली का रिजल्ट देखें (मतदान के दिन की प्वाइंट्स से बातचीत पर आधारित)
1- मुस्लिमों ने खुलकर सांप्रदायिकता के विरोध में मतदान किया।
2- हिंदुओं ने खुलकर सांप्रदायिकता के पक्ष में मतदान किया।
3- गंगा जमुनी तहजीब को मानने वालों ने भी खुलकर सांप्रदायिकता के विरोध में मतदान किया।
अब एक बार फिर से फैजाबाद की फिजां में जहर घुल चुका है जो सिर्फ और सिर्फ जीआईसी के मैदान में हिंदुत्व की हुंकार भरने से हुआ। आने वाले दिन वाकई मुश्किल भरे हैं, फिर भी, मुझे अपने शहर की गंगा जमुनी तहजीब पर भरोसा तो है, पर इस भरोसे में मोदीवादी हिंदुत्व के वीर्यवान आताताई दीमक लगाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं।
आज मोदी बनारस के बेनियाबाग में सभा न होने देने को लेकर सांप्रदायिकता का जो नंगा नाच बनारस में कर रहे हैं, गनीमत है कि वो लाख कोशिश करने के बाद भी फैजाबाद में न हो पाया। पर ये गनीमत कब तक रहेगी, कुछ नहीं कहा जा सकता। बनारस में तो दंगा कराने की पूरी कोशिशें चल रही हैं।
1 comment:
कई तथ्यों को अपने में समेटे एक जानकारी भरी प्रस्तुति।।।
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