हमारे युग का नायक
अविनाश मिश्र
हिंदी साहित्य के शिखर पुरुष राजेंद्र यादव अब सदेह हमारे बीच उपस्थित नहीं हैं। 28 अक्टूबर की रात उनका देहांत हो गया। वे 84 वर्ष के थे... इसके आगे और भी बहुत कुछ जोड़ा जाना चाहिए, मसलन मृत्यु की वजह, अब उनके परिवार में उनके पीछे कौन-कौन रह गया है, शिक्षा-दीक्षा, उनका सामाजिक और साहित्यिक अवदान, उनकी कृतियों के नाम, उनके अवसान पर उनके समकालीनों के विचार... वगैरह-वगैरह। ये सब कुछ निश्चित तौर पर इस दुखद खबर के साथ जोड़ा जाना चाहिए, लेकिन फिर भी बहुत त्रासद ढंग से बहुत कुछ छूट जाएगा। इसलिए यहां केवल यह जोड़ना चाहिए कि समग्र सकारात्मक अर्थों में राजेंद्र यादव की मृत्यु एक क्रांतिकारी सृजक की मृत्यु है। उन्होंने हिंदी साहित्य और समाज में बहुत कुछ बदला। वे एक लोकतांत्रिक, परिवर्तनकामी और युगद्रष्टा व्यक्तित्व थे। उनकी सारी खूबियों और खामियों के साथ अब उन पर बात करते हुए हम उनके लिए ‘थे’ का प्रयोग करेंगे। ‘हैं’ के ‘थे’ में बदल जाने पर हमें यकीन करना होगा।
कथा सम्राट प्रेमचंद की ओर से शुरू की गई साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ का राजेंद्र यादव 1986 से संपादन कर रहे थे। वे अपनी अंतिम सांस तक सक्रिय रहे। ‘हंस’ का संपादन करते और संपादकीय लिखते रहे। उनकी किताबें और उन पर किताबें हाल-हाल तक आती रहीं और अब भी कई प्रकाशन-प्रक्रिया में हैं। मीडिया में उनकी बाइट्स/वर्जन भी बराबर सुनने/पढ़ने को मिलते रहे। 31 जुलाई को प्रेमचंद जयंती और 28 अगस्त को अपना जन्मदिन वे प्रतिवर्ष बहुत लगन और उत्साह से आयोजित करते रहे। मृत्यु से चंद दिनों के फासले पर खड़े और अस्वस्थ होने के बावजूद भी राजेंद्र यादव साहित्यिक आयोजनों में अध्यक्षीय भूमिका निभाते दिखते रहे। उन्होंने कभी किसी एकांत, एकाग्रता और अनंतता की चाह नहीं की। भीड़-भाड़, रंगीनियां, चहल-पहल, साहित्यिक शोर और विवाद उन्हें पसंद थे। बगैर लड़े कोई महान और बड़ा नहीं बनता। वे उम्र भर लड़ते रहे... पाखंड से, जातीयता से, शुद्धतावाद से, हिंदी के प्राचीन और अकादमिक छद्म और षड्यंत्र से, कट्टरता से, सांप्रदायिकता से और सत्ता से भी।
एक लैटिन अमेरिकी कहावत है कि मृतकों के विषय में अप्रिय नहीं कहना चाहिए। लेकिन राजेंद्र यादव अपने संपादकीयों में कइयों को आहत करते रहे। इसमें जीवित और मृतक दोनों ही रहे। जब कभी इस कहे/लिखे पर फंसने की सूरत आई, उन्होंने अगले ही अंक में माफी भी मांग ली। उन्होंने ‘हंस’ में कई बार अपने मित्रों, करीबियों और साहित्यकारों के अवसान पर बेहद भावपूर्ण और मार्मिक संपादकीय भी लिखे। इस तरह के संपादकीयों में वे दो बातें बहुत जोर देकर कहते रहे। पहली यह कि हमें मृतक की कमियों पर भी बात करनी चाहिए और दूसरी यह कि देह के साथ व्यक्ति से जुड़ी बुराइयां खत्म नहीं होतीं। शेक्सपीयर ने अपने नाटक ‘जूलियस सीजर’ में भी कुछ ऐसा ही कहा है... ‘मनुष्य की बुराइयां उसके बाद भी जीवित रहती हैं, अच्छाइयां अक्सर हड्डियों के साथ दफन हो जाती हैं।’ राजेंद्र यादव अपने अंतिम दिनों में शेक्सपीयर के नाटकों के मुख्य पात्रों की त्रासदियों के नजदीक जाते नजर आते हैं।
‘स्वस्थ व्यक्ति के बीमार विचार’ लिखवाने की स्थिति में जब वे पहुंचे तब उनकी विरासत का प्रश्न उनके उत्तराधिकारियों के सम्मुख खड़ा हो गया। आनन-फानन में उनके अंत को निकट देख ‘हंसाक्षर ट्रस्ट’ में बड़े बदलाव किए गए। राजेंद्र यादव जब अपने ‘अंत’ को पछाड़कर लौटे तब भीड़ से घिरे होने के बावजूद बहुत अकेले और टूटे हुए थे। ‘हंस’ अब उनके सपनों का ‘हंस’ नहीं रह गया था...। उनकी शारीरिक विकलांगता उन्हें लोगों का सहयोग लेने और उन पर भरोसा करने के लिए बाध्य करती थी। उनके कुछ करीबियों, लेखक-लेखिकाओं ने उनकी इस कमजोरी और यकीन का गलत फायदा उठाते हुए अपनी महत्वाकांक्षाएं पूरी कीं।
राजेंद्र यादव द्वारा संपादित ‘हंस’ का अतीत विमर्शों के पुनर्स्थापन प्रतिभाओं की खोज और एक बेबाक समझ व सत्य से संबंधित रहा है। ‘हंस’ ने कितनों को कहानीकार, कवि, समीक्षक, विश्लेषक, समाजशास्त्री और संपादक (अतिथि) बना दिया, यह उसके प्रशंसकों और आलोचकों से छुपा हुआ नहीं है। वे प्रतिपक्ष को स्पेस देना और उससे बहस करना पसंद करते थे। हिंदी में एक पूरी की पूरी स्थापित और स्थापित होने की ओर अग्रसर पीढ़ी है जो ‘हंस’ पढ़ते और राजेंद्र यादव से लड़ते हुए बड़ी हुई है। वे असहमतियों को सुनना जानते थे।
‘न लिखने के कारण’ बताते हुए उन्होंने अपने समय और समाज के सवालों से ‘हंस’ के संपादकीय पृष्ठों पर सीधी मुठभेड़ की। ‘मेरी तेरी उसकी बात’ कभी ‘मेरी मेरी मेरी बात’ नहीं लगी, हालांकि ‘कभी-कभार’ ऐसे आरोप जरूर लगे। एक कविता संग्रह के कवि होने के बावजूद उनकी छवि एक कविता-विरोधी व्यक्ति और संपादक की बनी, लेकिन एक दौर ऐसा भी था जब ‘हंस’ के कविता-पृष्ठों पर प्रकाशित होना किसी भी युवा कवि के लिए अपनी पहचान पुख्ता करने का एक माध्यम हुआ करता था। लेकिन गए पांच वर्षों से ‘हंस’ की स्तरीयता में भयानक कमी आई और वह केवल निकलने के लिए ही निकलती रही। ‘मैं हंस नहीं पढ़ता’ यह कहना अज्ञान और अजागरूकता का नहीं बेहतरीन साहित्यिक समझ का परिचायक हो गया। बावजूद इसके ‘हंस’ के ‘अपना मोर्चा’ में दूर-दराज के पाठकों के पत्र बराबर छपते रहे...।
वर्तमान समय का सबसे विराट संकट यदि कुछ है तो यही है- बड़े अध्वसाय से अर्जित की गई गरिमा को अंततः बचाकर रख पाना। इस अर्थ में राजेंद्र यादव के आखिरी दिन उनकी प्रतिष्ठा को आघात पहुंचाने वाले रहे। लेकिन अंततः व्यक्ति का काम ही शेष रहता है, तब तो और भी जब यह काम हाशिए पर जी रहे समाज के वंचित वर्ग के पक्ष में खड़ा हो। उन्हें स्वर दे रहा हो, जिनकी आवाज सदियों से कुचली जाती रही हो। स्त्रियों, दलितों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, किसानों... सबके लिए विमर्श उत्पन्न करने वाले राजेंद्र यादव को उनके व्यक्तिगत जीवन को लेकर ‘हमारे युग का खलनायक’ बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी गई। लेकिन राजेंद्र यादव खलनायक नहीं हैं, वे नायक हैं हमारे युग के नायक। वे जब तक रहे, काम करते हुए विवादों में रहे, अब यादों में रहेंगे...।
हिंदी साहित्य के शिखर पुरुष राजेंद्र यादव अब सदेह हमारे बीच उपस्थित नहीं हैं। 28 अक्टूबर की रात उनका देहांत हो गया। वे 84 वर्ष के थे... इसके आगे और भी बहुत कुछ जोड़ा जाना चाहिए, मसलन मृत्यु की वजह, अब उनके परिवार में उनके पीछे कौन-कौन रह गया है, शिक्षा-दीक्षा, उनका सामाजिक और साहित्यिक अवदान, उनकी कृतियों के नाम, उनके अवसान पर उनके समकालीनों के विचार... वगैरह-वगैरह। ये सब कुछ निश्चित तौर पर इस दुखद खबर के साथ जोड़ा जाना चाहिए, लेकिन फिर भी बहुत त्रासद ढंग से बहुत कुछ छूट जाएगा। इसलिए यहां केवल यह जोड़ना चाहिए कि समग्र सकारात्मक अर्थों में राजेंद्र यादव की मृत्यु एक क्रांतिकारी सृजक की मृत्यु है। उन्होंने हिंदी साहित्य और समाज में बहुत कुछ बदला। वे एक लोकतांत्रिक, परिवर्तनकामी और युगद्रष्टा व्यक्तित्व थे। उनकी सारी खूबियों और खामियों के साथ अब उन पर बात करते हुए हम उनके लिए ‘थे’ का प्रयोग करेंगे। ‘हैं’ के ‘थे’ में बदल जाने पर हमें यकीन करना होगा।
कथा सम्राट प्रेमचंद की ओर से शुरू की गई साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ का राजेंद्र यादव 1986 से संपादन कर रहे थे। वे अपनी अंतिम सांस तक सक्रिय रहे। ‘हंस’ का संपादन करते और संपादकीय लिखते रहे। उनकी किताबें और उन पर किताबें हाल-हाल तक आती रहीं और अब भी कई प्रकाशन-प्रक्रिया में हैं। मीडिया में उनकी बाइट्स/वर्जन भी बराबर सुनने/पढ़ने को मिलते रहे। 31 जुलाई को प्रेमचंद जयंती और 28 अगस्त को अपना जन्मदिन वे प्रतिवर्ष बहुत लगन और उत्साह से आयोजित करते रहे। मृत्यु से चंद दिनों के फासले पर खड़े और अस्वस्थ होने के बावजूद भी राजेंद्र यादव साहित्यिक आयोजनों में अध्यक्षीय भूमिका निभाते दिखते रहे। उन्होंने कभी किसी एकांत, एकाग्रता और अनंतता की चाह नहीं की। भीड़-भाड़, रंगीनियां, चहल-पहल, साहित्यिक शोर और विवाद उन्हें पसंद थे। बगैर लड़े कोई महान और बड़ा नहीं बनता। वे उम्र भर लड़ते रहे... पाखंड से, जातीयता से, शुद्धतावाद से, हिंदी के प्राचीन और अकादमिक छद्म और षड्यंत्र से, कट्टरता से, सांप्रदायिकता से और सत्ता से भी।
एक लैटिन अमेरिकी कहावत है कि मृतकों के विषय में अप्रिय नहीं कहना चाहिए। लेकिन राजेंद्र यादव अपने संपादकीयों में कइयों को आहत करते रहे। इसमें जीवित और मृतक दोनों ही रहे। जब कभी इस कहे/लिखे पर फंसने की सूरत आई, उन्होंने अगले ही अंक में माफी भी मांग ली। उन्होंने ‘हंस’ में कई बार अपने मित्रों, करीबियों और साहित्यकारों के अवसान पर बेहद भावपूर्ण और मार्मिक संपादकीय भी लिखे। इस तरह के संपादकीयों में वे दो बातें बहुत जोर देकर कहते रहे। पहली यह कि हमें मृतक की कमियों पर भी बात करनी चाहिए और दूसरी यह कि देह के साथ व्यक्ति से जुड़ी बुराइयां खत्म नहीं होतीं। शेक्सपीयर ने अपने नाटक ‘जूलियस सीजर’ में भी कुछ ऐसा ही कहा है... ‘मनुष्य की बुराइयां उसके बाद भी जीवित रहती हैं, अच्छाइयां अक्सर हड्डियों के साथ दफन हो जाती हैं।’ राजेंद्र यादव अपने अंतिम दिनों में शेक्सपीयर के नाटकों के मुख्य पात्रों की त्रासदियों के नजदीक जाते नजर आते हैं।
‘स्वस्थ व्यक्ति के बीमार विचार’ लिखवाने की स्थिति में जब वे पहुंचे तब उनकी विरासत का प्रश्न उनके उत्तराधिकारियों के सम्मुख खड़ा हो गया। आनन-फानन में उनके अंत को निकट देख ‘हंसाक्षर ट्रस्ट’ में बड़े बदलाव किए गए। राजेंद्र यादव जब अपने ‘अंत’ को पछाड़कर लौटे तब भीड़ से घिरे होने के बावजूद बहुत अकेले और टूटे हुए थे। ‘हंस’ अब उनके सपनों का ‘हंस’ नहीं रह गया था...। उनकी शारीरिक विकलांगता उन्हें लोगों का सहयोग लेने और उन पर भरोसा करने के लिए बाध्य करती थी। उनके कुछ करीबियों, लेखक-लेखिकाओं ने उनकी इस कमजोरी और यकीन का गलत फायदा उठाते हुए अपनी महत्वाकांक्षाएं पूरी कीं।
राजेंद्र यादव द्वारा संपादित ‘हंस’ का अतीत विमर्शों के पुनर्स्थापन प्रतिभाओं की खोज और एक बेबाक समझ व सत्य से संबंधित रहा है। ‘हंस’ ने कितनों को कहानीकार, कवि, समीक्षक, विश्लेषक, समाजशास्त्री और संपादक (अतिथि) बना दिया, यह उसके प्रशंसकों और आलोचकों से छुपा हुआ नहीं है। वे प्रतिपक्ष को स्पेस देना और उससे बहस करना पसंद करते थे। हिंदी में एक पूरी की पूरी स्थापित और स्थापित होने की ओर अग्रसर पीढ़ी है जो ‘हंस’ पढ़ते और राजेंद्र यादव से लड़ते हुए बड़ी हुई है। वे असहमतियों को सुनना जानते थे।
‘न लिखने के कारण’ बताते हुए उन्होंने अपने समय और समाज के सवालों से ‘हंस’ के संपादकीय पृष्ठों पर सीधी मुठभेड़ की। ‘मेरी तेरी उसकी बात’ कभी ‘मेरी मेरी मेरी बात’ नहीं लगी, हालांकि ‘कभी-कभार’ ऐसे आरोप जरूर लगे। एक कविता संग्रह के कवि होने के बावजूद उनकी छवि एक कविता-विरोधी व्यक्ति और संपादक की बनी, लेकिन एक दौर ऐसा भी था जब ‘हंस’ के कविता-पृष्ठों पर प्रकाशित होना किसी भी युवा कवि के लिए अपनी पहचान पुख्ता करने का एक माध्यम हुआ करता था। लेकिन गए पांच वर्षों से ‘हंस’ की स्तरीयता में भयानक कमी आई और वह केवल निकलने के लिए ही निकलती रही। ‘मैं हंस नहीं पढ़ता’ यह कहना अज्ञान और अजागरूकता का नहीं बेहतरीन साहित्यिक समझ का परिचायक हो गया। बावजूद इसके ‘हंस’ के ‘अपना मोर्चा’ में दूर-दराज के पाठकों के पत्र बराबर छपते रहे...।
वर्तमान समय का सबसे विराट संकट यदि कुछ है तो यही है- बड़े अध्वसाय से अर्जित की गई गरिमा को अंततः बचाकर रख पाना। इस अर्थ में राजेंद्र यादव के आखिरी दिन उनकी प्रतिष्ठा को आघात पहुंचाने वाले रहे। लेकिन अंततः व्यक्ति का काम ही शेष रहता है, तब तो और भी जब यह काम हाशिए पर जी रहे समाज के वंचित वर्ग के पक्ष में खड़ा हो। उन्हें स्वर दे रहा हो, जिनकी आवाज सदियों से कुचली जाती रही हो। स्त्रियों, दलितों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, किसानों... सबके लिए विमर्श उत्पन्न करने वाले राजेंद्र यादव को उनके व्यक्तिगत जीवन को लेकर ‘हमारे युग का खलनायक’ बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी गई। लेकिन राजेंद्र यादव खलनायक नहीं हैं, वे नायक हैं हमारे युग के नायक। वे जब तक रहे, काम करते हुए विवादों में रहे, अब यादों में रहेंगे...।
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