असुरों का ज्ञान सहेजने में जुटीं सुषमा
झारखंड में असुर आदिम जनजाति नेतरहाट के आसपास मिलते हैं. वैसे इनका निवास स्थान नेतरहाट से छत्तीसगढ. को जोड़ने वाली पट्टी तक फैला है. लेकिन , आज इनका अस्तित्व खतरे में है. ऐसे में एक असुर की बेटी ने इस जनजाति के संरक्षण का बीड़ा उठाकर मिसाल पेश की है. इनका नाम सुषमा असुर है. इनके पिता खंभीला असुर लातेहार जिला के नेतरहाट के रहने वाले हैं. इस जनजाति को बचाने के लिए जो काम सरकार को करनी चाहिए वह सुषमा कर रही हैं. बकौल सुषमा अगर असुर का अस्तित्व समाप्त हो गया तो झारखंड से एक इतिहास का अंत हो जायेगा. उनके मुताबिक 1872 में देश में पहली जनगणना हुई थी. उस समय 18 जनजातियों को मूल आदिवासी की श्रेणी में रखा गया था. इसमें असुर पहले नंबर पर थे. लेकिन, इन 150 वर्षों में जैसे सरकार ने इस आदिवासी समुदाय को भुला दिया है. नेतरहाट क्षेत्र में जहां इनका निवास स्थान है, वहां जीवन की मूलभूत सुविधाएं जैसे चिकित्सा, पेयजल, बिजली, सड़क आदि का आभाव है. शिक्षा के नाम पर इनके पास प्राथमिक विद्यालय तो है पर शिक्षक नहीं. दसवीं कक्षा पास आदिम जनजाति के लोगों को सीधे सरकारी नौकरी देने का प्रावधान है. लेकिन, कईलोग ऐसे हैं जो दसवीं पास हैं और नौकरी नहीं है. जिस इलाके में असुर जनजाति रहते हैं वह एक पठारी इलाका है. निचली जगह से उपर की ओर चढ.ने में दिक्कत होती है. उपरी इलाके में चढ.ने के लिए इन्हें बॉक्साइट लदे ट्रक का सहारा लेना पड़ता है. इन ट्रकों में इनके साथ अभद्र व्यवहार किया जाता है. ऐसा परिवहन की सुविधा नहीं होने के कारण होता है.
सुषमा बताती हैं कि असुर समुदाय के लोग अपने कला-कौशल के कारण जाने जाते थे. लेकिन, अब इनकी कला कौशल को बचाये रखना मुश्किल होता जा रहा है. अब लगता है असुर जाति केवल हमें किस्से-कहानियों में ही सुनने को मिलेंगे. कभी प्रचीन काल में दुश्मनों के छक्के छुड़ा देने वाले असुर आज की तारीख में अपनी जिंदगी की लड़ाई लड़ रहे हैं. असुरों की संख्या अब महज 10000 से भी कम बची है. ऐसे में इनके कला कौशल के संरक्षण की जरूरत है.
सुषमा असुर अपने जनजाति के ज्ञान का दस्तावेजीकरण करने की कोशिश में लगी हैं. इसके तहत वे वीडियो फुटेज बनाकर रखना चाहती हैं ताकि आने वाली पीढ.ियों को इस ज्ञान की संपदा हासिल हो सके. सुषमा के इस प्रयास को हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार उदय प्रकाश का सर्मथन और सहयोग मिला है. रांची से साहित्यकार अश्विनी कुमार पंकज लगातार उनके संपर्क में हैं और उनके काम को आगे बढ.ाने में हर तरह का सहयोग कर रहे हैं.
असुरों का महत्व
साहित्यकार अश्विनी पंकज के मुताबिक झारखंड के लोकगीतों में असुरों का उल्लेख मिलता है. इनमें असुरों की वीरता और उनके कार्यों की जानकारी मिलती है. ऐसा माना जाता है कि महाभारत के लिए हथियारों का निर्माण असुरों के द्वारा ही हुआ था. ये सारी बातें सादरी और कुड़ुख भाषा के लोकगीतों में सुनने को मिलती है. रामायण में भी इन असुरों का उल्लेख मिलता है. असुरों को इस काल में युद्ध करने वाला बताया जाता है. ये शारीरिक रूप से सृदृढ. होते थे. असुर दुनिया के सबसे पुराने बाशिंदे और धातुविज्ञानी हैं. ऐसा माना जाता है कि असुरों ने ही लोहा बनाने की विधि का अविष्कार किया जिससे स्टील बनाया जा सका. अध्ययनकर्ताओं और इतिहासकारों के मुताबिक एशिया व यूरोप में और कोई इंसानी समुदाय ऐसा नहीं बचा है जो यह प्राचीन धातुविज्ञान जानता हो. शायद अफ्रीका में एक-दो आदिवासी समुदाय हैं जिन्हें यह कला आती है.
खतरे में असुर
नेतरहाट क्षेत्र में असुरों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. इनकी जमीन पर बॉक्साइट खनन का काम होने से आजीविका का मूल स्रोत छिन गया है. इनके पास आजीविका का साधन नहीं होने के कारण ये भूखे रहने को मजबूर हैं. खेतों में बॉक्साईट के अपशिष्ट जमा हो जाने के कारण खेत उपजाऊ नहीं रहे. खेतो की उर्वरा शक्ति कम हो गई है. सरकार भी इनके लिए कुछ नहीं कर रही. सरकार की जितनी भी योजना इनके लिए बनी वह केवल कागजों में ही दब कर रह गई. पिछले कुछ सालों में इनकी आबादी लगातार कम होती जा रही है. जाहिर है, जिस रफ्तार के साथ असुरों की आबादी सिमट रही है, उसमें अब ये सवाल खड़ा होने लगा है कि क्या असुरों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा?
मदद को आगे आये
असुर जनजातियों के कला एवं कौशल के संरक्षण के लिए सुषमा को तकनीक की जरूरत थीा. इसके लिए इन्होंने सोशल मीडिया का सहारा लिया है. फेसबुक पर इन्होंने असुरों के आदि ज्ञान एवं सामुदायिक ज्ञान के संग्रह के लिए एक वीडियो एचडी कैमरा, एक ऑडियो रिकॉर्डर, कार्यक्षेत्र में स्टोरेज के लिए एक लैपटाप, ऑडियो, वीडिया एवं फोटो के व्यविस्थत संग्रहण व संपादन के सबटाइटलिंग के लिए एक मैक पीसी की डिमांड की. जिससे वे अपने विलुप्त होते ज्ञान को संरक्षित कर सकें.
इसके बाद असुरों की पीड़ा और विषय की गंभीरता को समझते हुये भारत के सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार उदय प्रकाश ने एक मिनी डीवी कैमरा इन्हें भेंट किया. इंग्लैंड के एक विश्वविद्यालय के छात्र तथागत नियोगी ने उन्हें कैनन का एक डिजिटल कैमरा दिया है. यह उनके लिए बहुत उपयोगी साबित हो रहा है.
तथागत का कहना है कि ‘असुरों के पास जो ज्ञान है अब वह कम से कम एशिया के किसी इंसानी समाज के पास नहीं बचा है. खासकर, धातुविज्ञान की प्राचीनतम परंपरा. एशिया से बाहर अफ्रीका के दो-तीन आदिवासी समाज में भी अभी यह ज्ञान परंपरा बची हुई है.’ असुरों के अनुसार उनकी संस्कृती को बचाने के लिए उन्हें और भी संसाधन की अवश्यकता है. असुर झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखडा संगठन ने भी इन असुरों की आवाज उठाई और इनका सर्मथन किया है.
असुरों का पर्व
हर आदिम जनजाति का अपना एक विशेष पर्व होता है. इसी प्रकार असुरों का भी अपना एक पर्व है. यह फागुन के महीने में मनाया जाता है. इसे ये लोग सड़सी कुटासी के नाम से मनाते हैं. इस पर्व में ये लोग अपने पुराने औजारों के साथ-साथ उस भट्ठी की भी पूजा करते हैं जिसमें ये औजार बनाते थे. इनके समुदाय में एक नेत्रहीन बुजुर्ग आज भी हैं जो कच्ची धातु को हाथ में उठा कर यह बता देते हैं कि इसमें धातु की कितनी मात्रा है.
सुषमा बताती हैं कि असुर समुदाय के लोग अपने कला-कौशल के कारण जाने जाते थे. लेकिन, अब इनकी कला कौशल को बचाये रखना मुश्किल होता जा रहा है. अब लगता है असुर जाति केवल हमें किस्से-कहानियों में ही सुनने को मिलेंगे. कभी प्रचीन काल में दुश्मनों के छक्के छुड़ा देने वाले असुर आज की तारीख में अपनी जिंदगी की लड़ाई लड़ रहे हैं. असुरों की संख्या अब महज 10000 से भी कम बची है. ऐसे में इनके कला कौशल के संरक्षण की जरूरत है.
सुषमा असुर अपने जनजाति के ज्ञान का दस्तावेजीकरण करने की कोशिश में लगी हैं. इसके तहत वे वीडियो फुटेज बनाकर रखना चाहती हैं ताकि आने वाली पीढ.ियों को इस ज्ञान की संपदा हासिल हो सके. सुषमा के इस प्रयास को हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार उदय प्रकाश का सर्मथन और सहयोग मिला है. रांची से साहित्यकार अश्विनी कुमार पंकज लगातार उनके संपर्क में हैं और उनके काम को आगे बढ.ाने में हर तरह का सहयोग कर रहे हैं.
असुरों का महत्व
साहित्यकार अश्विनी पंकज के मुताबिक झारखंड के लोकगीतों में असुरों का उल्लेख मिलता है. इनमें असुरों की वीरता और उनके कार्यों की जानकारी मिलती है. ऐसा माना जाता है कि महाभारत के लिए हथियारों का निर्माण असुरों के द्वारा ही हुआ था. ये सारी बातें सादरी और कुड़ुख भाषा के लोकगीतों में सुनने को मिलती है. रामायण में भी इन असुरों का उल्लेख मिलता है. असुरों को इस काल में युद्ध करने वाला बताया जाता है. ये शारीरिक रूप से सृदृढ. होते थे. असुर दुनिया के सबसे पुराने बाशिंदे और धातुविज्ञानी हैं. ऐसा माना जाता है कि असुरों ने ही लोहा बनाने की विधि का अविष्कार किया जिससे स्टील बनाया जा सका. अध्ययनकर्ताओं और इतिहासकारों के मुताबिक एशिया व यूरोप में और कोई इंसानी समुदाय ऐसा नहीं बचा है जो यह प्राचीन धातुविज्ञान जानता हो. शायद अफ्रीका में एक-दो आदिवासी समुदाय हैं जिन्हें यह कला आती है.
खतरे में असुर
नेतरहाट क्षेत्र में असुरों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. इनकी जमीन पर बॉक्साइट खनन का काम होने से आजीविका का मूल स्रोत छिन गया है. इनके पास आजीविका का साधन नहीं होने के कारण ये भूखे रहने को मजबूर हैं. खेतों में बॉक्साईट के अपशिष्ट जमा हो जाने के कारण खेत उपजाऊ नहीं रहे. खेतो की उर्वरा शक्ति कम हो गई है. सरकार भी इनके लिए कुछ नहीं कर रही. सरकार की जितनी भी योजना इनके लिए बनी वह केवल कागजों में ही दब कर रह गई. पिछले कुछ सालों में इनकी आबादी लगातार कम होती जा रही है. जाहिर है, जिस रफ्तार के साथ असुरों की आबादी सिमट रही है, उसमें अब ये सवाल खड़ा होने लगा है कि क्या असुरों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा?
मदद को आगे आये
असुर जनजातियों के कला एवं कौशल के संरक्षण के लिए सुषमा को तकनीक की जरूरत थीा. इसके लिए इन्होंने सोशल मीडिया का सहारा लिया है. फेसबुक पर इन्होंने असुरों के आदि ज्ञान एवं सामुदायिक ज्ञान के संग्रह के लिए एक वीडियो एचडी कैमरा, एक ऑडियो रिकॉर्डर, कार्यक्षेत्र में स्टोरेज के लिए एक लैपटाप, ऑडियो, वीडिया एवं फोटो के व्यविस्थत संग्रहण व संपादन के सबटाइटलिंग के लिए एक मैक पीसी की डिमांड की. जिससे वे अपने विलुप्त होते ज्ञान को संरक्षित कर सकें.
इसके बाद असुरों की पीड़ा और विषय की गंभीरता को समझते हुये भारत के सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार उदय प्रकाश ने एक मिनी डीवी कैमरा इन्हें भेंट किया. इंग्लैंड के एक विश्वविद्यालय के छात्र तथागत नियोगी ने उन्हें कैनन का एक डिजिटल कैमरा दिया है. यह उनके लिए बहुत उपयोगी साबित हो रहा है.
तथागत का कहना है कि ‘असुरों के पास जो ज्ञान है अब वह कम से कम एशिया के किसी इंसानी समाज के पास नहीं बचा है. खासकर, धातुविज्ञान की प्राचीनतम परंपरा. एशिया से बाहर अफ्रीका के दो-तीन आदिवासी समाज में भी अभी यह ज्ञान परंपरा बची हुई है.’ असुरों के अनुसार उनकी संस्कृती को बचाने के लिए उन्हें और भी संसाधन की अवश्यकता है. असुर झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखडा संगठन ने भी इन असुरों की आवाज उठाई और इनका सर्मथन किया है.
असुरों का पर्व
हर आदिम जनजाति का अपना एक विशेष पर्व होता है. इसी प्रकार असुरों का भी अपना एक पर्व है. यह फागुन के महीने में मनाया जाता है. इसे ये लोग सड़सी कुटासी के नाम से मनाते हैं. इस पर्व में ये लोग अपने पुराने औजारों के साथ-साथ उस भट्ठी की भी पूजा करते हैं जिसमें ये औजार बनाते थे. इनके समुदाय में एक नेत्रहीन बुजुर्ग आज भी हैं जो कच्ची धातु को हाथ में उठा कर यह बता देते हैं कि इसमें धातु की कितनी मात्रा है.
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