झारखण्ड का आदिवासी इतिहास
- डॉ. रोज केरकेट्टा
झारखण्ड विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों का प्रदेश है। एक ओर यहां प्रागैतिहासिक सभ्यता के अवशेष और आदिम जीवन की स्वर लहरियां हैं तो दूसरी ओर अति आधुनिक जीवनदृष्टि भी। हजारों वर्षों में हुई भौगोलिक और ऐतिहासिक घटनाओं ने प्रकृति और सभ्यता-संस्कृति, दोनों ही स्तरों पर इसे समृद्ध बनाया है। यहां सुरम्य घाटियां, झरने, नदियां और नयनाभिराम प्राकृतिक संरचनाएं हैं। रत्नगर्भा धरती है। और हैं सामूहिक एवं समन्वित संस्कृति को पीढ़ी दर पीढ़ी जीने वाले जनजातीय समुदाय। जीवंत गीतों, नृत्यों और अपार साहस व शौर्य की धरती है यह झारखण्ड। आदिवासी पहचान, संस्कृति और स्वतंत्रता के अंतहीन संघर्ष और अदम्य जिजीविषा का प्रतीक।
ऋगवैदिक काल में झारखण्ड कीकट प्रदेश के नाम से जाना जाता था। उस समय का आदिम समुदाय घुमन्तु था और शिकार, पशुपालन तथा जंगली कंद-मूल पर उसका जीवन निर्भर था। ये लोग कौन थे? कहीं बाहर से आए थे या यहीं के मूल निवासी थे, इस बारे में कहीं कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। झारखण्ड के आदिम निवासियों में जिनके पदचिन्ह सर्वाधिक स्पष्टता से दिखाई पड़ते हैं, वे हैं असुर।
झारखण्ड कुल 30 आदिवासी समुदायों का निवास स्थल है। ये हैं - असुर, मुण्डा, संताल, हो, खड़िया, उरांव, माल एवं सौरिया पहाड़िया, बिरहोर, बैगा, बंजारा, बेदिया, बिंझिया, बिरजिया, बाथूड़ी, भूमिज, चेरी, चीक बड़ाईक, गौड़, गोड़ाइत, करमाली, खरवार, किसान, कोरा, कौरवा, लोहरा, महली, शबर खड़िया, खौंड और परहिया। इनमें संतालों की संख्या सर्वाधिक है और ये भारत के सबसे बड़े आदिवासी समूहों में गिने जाते हैं। झारखण्ड का संताल परगना मुख्यतः इन्हीं से आबाद है जबकि रांची पठार के पूर्वी भाग में मुण्डाओं की बहुलता है। पश्चिम में उरांवों का। नेतरहाट का क्षेत्र असुरों का है तो निम्न पठारीय भागों के उत्तर में भुंइयां, बिरहोर, संताल; पूर्व में संताल, पहाड़िया और भुंइयां; दक्षिण में हो और पश्चिम में चेरो, खरवार,कोरवा आदि।
इतिहासकारों के अनुसार महाभारत काल में झारखण्ड मगध के अंतर्गत था और मगध जरासंध के आधिपत्य में था। अनुमान है कि जरासंध के वंशजों ने लगभग एक हजार सालों तक मगध में एकछत्र शासन किया। जरासंध शैव था और असुर उसकी जाति थी। के. के. ल्युबा का अध्ययन है कि झारखण्ड के वर्तमान असुर महाभारतकालीन असुरों के ही वंशज हैं। झारखण्ड की पुरातात्विक खुदाईयों में मिलने वाली असुरकालीन ईंटों से तथा रांची गजेटियर 1917 में प्रकाशित निष्कर्षों से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। असुर मुख्यतः लोहा गलाने का व्यवसाय करते थे और असंदिग्ध रूप से मुण्डा एवं अन्य आदिवासी समुदायों के आने से पहले इस झारखण्ड में उनकी एक विकसित सभ्यता विद्यमान थी।
यह भी तथ्य है कि असुरों के समय में झारखण्ड के कुछ इलाकों में जैनियों का प्रभाव था। खासकर, हजारीबाग और मानभूम आदि इलाके में। पारसनाथ में जैन तीर्थ का होना तथा उस क्षेत्र में सराक जाति की उपस्थिति और उनके रीति-रिवाज इसके जीवंत साक्ष्य हैं। असुरकालीन समाज और सभ्यता के बारे में अब तक हुए अध्ययन कुछ सूत्र ही दे पाते हैं, विस्तृत परिचय नहीं। पर इतना तय है कि असुरों के समय में और उनके पहले भी झारखण्ड का इलाका निरापद नहीं था। हजारीबाग की इस्को गुफाओं में मिले प्रागैतिहासिक शैल चित्रों और वस्तुओं ने इस धारणा को और पुष्ट किया है। दामोदर नदी घाटी तथा समस्त झारखण्ड में पाये जाने वाले अनेक पुरातात्विक अवशेषों के वैज्ञानिक अध्ययन भविष्य में मानव जाति और सभ्यता के नितांत नये इतिहास का उद्घाटन कर सकते हैं।
नृजातीय रूप से झारखण्ड के तमाम आदिवासी समुदायों की पहचान - प्रोटो आस्ट्रेलाइड और द्रविड़, दो समूहों में की जाती है। उरांवों को छोड़कर जो कि द्रविड़ समूह के हैं, अधिकांश जनजातीय समुदाय प्रोटो आस्ट्रेलाइड समूह में आते हैं। झारखण्ड के गैर आदिवासी समुदाय जिन्हें कि यहां सदान कहा जाता है, आर्यन समूह के हैं। हालांकि वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों के दबाव में आज अधिकांश सदान अपने आपको अनार्य कहलाने पर ज्यादा जोर दे रहे हैं।
भाषायी वर्गीकरण के लिहाज से भाषाविद् झारखण्ड को तीन वर्गों में बांटते हैं। मुण्डा भाषा परिवार, द्रविड़ भाषा परिवार और आर्य भाषा परिवार। उरांव और पहाड़िया जनजातियों की भाषा ‘कुड़ुख’ द्रविड़ है जबकि सदानों की नागपुरी, सादरी, कुरमाली, खोरठा आदि आर्यन। मुण्डा, संताल, खड़िया, हो, बिरहोर आदि मुण्डा भाषा परिवार की भाषाएं बोलते हैं। रांची विश्वविद्यालय भारत का एकमात्र विश्वविद्यालय है जहां क्षेत्रीय एवं आदिवासी भाषाओं के अध्ययन एवं अध्ययापन की व्यवस्था एम. ए. स्तर पर है। फिलहाल झारखण्ड में मुण्डारी, संताली, हो, खड़िया, कुड़ुख, नागपुरी, पंच परगनिया, कुरमाली एवं खोरठा, 9 क्षेत्रीय एवं जनजातीय भाषाएं पढ़ाई जा रही हैं।
600 ईसा पूर्व जब मुण्डा लोग झारखण्ड आए तो उनका सामना असुरों से हुआ। मुण्डाओं की लोकगाथा ‘सोसोबोंगा’ में उनके आगमन और असुरों से संघर्ष का विस्तार से वर्णन है। भारत के विख्यात मानवशास्त्री शरत चंद्र राय अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘मुण्डाज एण्ड देयर कंट्री’ में इसका समर्थन करते हैं। मुण्डा जब झारखण्ड आए तो उनकी एक शाखा संताल परगना की ओर गई। इन लोगों को आज हम संताल के नाम से जानते हैं जबकि दूसरी शाखा रांची की पश्चिमी घाटियों में उतरी। रांचीकी ओर आनेवाली शाखा मुण्डा कहलाई। ये मुण्डा लोग ही असुरों से भिड़े।
बाद में, इतिहासकारों के अनुसार लगभग 1206 ई. में उरांव कर्नाटक की ओर से, नर्मदा के किनारे-किनारे विंध्य एवं सोन की घाटियों से होते हुए रोहतासगढ़ पहुंचे। जहां उन्होंने राज किया और फिर अपना राजपाट खोकर पराजित होने के पश्चात् रांची की ओर आए। तब उनका सामना मुण्डाओं से हुआ। उरांवों के आने के बाद मुण्डा लोग दक्षिण की ओर चले गए। यह इलाका आज का खूंटी क्षेत्र है जहां मुण्डाओं की बहुलता है।
असुर लोग कृषिजीवी नहीं थे और उस समय में झारखण्ड में कृषि प्रधान समाज की उपस्थिति के प्रमाण नहीं मिलते हैं। मुण्डा लोग जब यहां आए तब उन्होंने ही व्यवस्थित कृषि और जीवन-समाज पद्धति की मजबूत नींव डाली। मुण्डा लोग न सिर्फ कृषि कार्यों में कुशल थे बल्कि उनका सामाजिक संगठन और प्रशासन बेहद सुव्यवस्थित था। उनकी सामाजिक-प्रशासनिक व्यवस्था गणतांत्रिक थी। गांव का मुखिया मुण्डा कहलाता था और कई गांव के मुण्डाओं का चुना हुआ प्रतिनिधि ‘मानकी’ होता था। वे सामुदायिक जीवन जीते थे और सामुहिकता उनकी प्राण-वायु थी।
पहली शताब्दी में यहां नागवंशियों का आधिपत्य हो गया। अनुमान है कि पहली ईश्वी के शुरूआती दिनों में नाग जाति जो कि जनमेजय के नाग यज्ञ के बाद से कांतिहीन जीवन जी रहे थे, ने अपनी खोयी शक्ति वापस पा ली थी और समूचे मध्यदेश पर इनका प्रभुत्व स्थापित हो गया था। इसी नाग जाति के वंशज फणिमुकुट राय ने 19 वर्ष की अवस्था में 83 ईश्वी में यहां नागवंशी शासन की नींव डाली। सुतियाम्बे उनकी पहली राजधानी थी और मुण्डाओं के गणतंत्र का आखिरी सर्वोच्च केन्द्र।
नागवंशी शासन के बाद समूचे झारखण्ड में आर्य संस्कृति-सभ्यता का विस्तार हुआ। इस विस्तार ने आदिवासी एवं सदान, दोनों ही संस्कृतियों के सम्मिलन में युगांतकारी भूमिका निभायी। सांस्कृतिक सम्मिलन से झारखण्ड में ‘सहिया’ संस्कृति का विकास हुआ जिसके फलस्वरूप अंग्रेजों के आगमन तक दोनों के संबंध सौहार्द्रपूर्ण बने रहे। सामुदायिक और सामूहिक संस्कृति व जीवनशैली अविच्छिन्न रूप से गतिमान रहा। नागवंशियों का राजतंत्र और आदिवासियों की पारंपरिक गणतांत्रिक परंपरा की समानान्तर धाराएं बिना एक दूसरे को काटे अथवा बाधित किये चलती रही।
इसे छिन्न-भिन्न किया अंग्रेजी राज ने। जिसको यहां के आदिवासी और सदानों ने अपने तीव्र प्रतिरोधों से स्वतंत्रता प्राप्ति तक लगातार चुनौती दी। सिदो-कान्हू, चांद-भैरव, बाबा तिलका मांझी, बिरसा मुण्डा, जतरा टाना भगत, बुधु भगत, तेलंगा खड़िया, शेख भिखारी जैसे अनेक झारखण्डी नायकों ने। इन्होंने भारत के अंग्रेजी राज में स्वतंत्रता और स्वाभिमान के लिए हुए झारखण्डी जनता के जनविद्रोहों को संगठित, संचालित एवं उसका साहसी नेतृत्व किया। अपनी शहादतें दी।
झारखण्ड मूलतः आदिवासी जीवन-दर्शन के मूल सिद्धांतों सह-अस्तित्व, सामुदायिकता, सामूहिकता और सहभागी संस्कृति के विरासत का केन्द्र है। जीवन के उल्लास और इंसानियत के विभिन्न रंगों को यहां के गीतों, नृत्यों, पर्व-त्यौहारों व लोक कलाओं में सहज देखा व अनुभव किया जा सकता है। करमा, सरहुल, मागे, बन्दई मुख्य सामाजिक पर्व हैं। स्वर्णरेखा, कोयलकारो, दामोदर और शंख नदियां जीवनरेखा हैं तो हुण्डरू, दसोंग, हिरनी, पंचघाघ आदि जलप्रपात यहां की प्रकृति, वनस्पति और जीवन की स्थायी धड़कन।
(असुरनेशन.इन से साभार)
झारखण्ड विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों का प्रदेश है। एक ओर यहां प्रागैतिहासिक सभ्यता के अवशेष और आदिम जीवन की स्वर लहरियां हैं तो दूसरी ओर अति आधुनिक जीवनदृष्टि भी। हजारों वर्षों में हुई भौगोलिक और ऐतिहासिक घटनाओं ने प्रकृति और सभ्यता-संस्कृति, दोनों ही स्तरों पर इसे समृद्ध बनाया है। यहां सुरम्य घाटियां, झरने, नदियां और नयनाभिराम प्राकृतिक संरचनाएं हैं। रत्नगर्भा धरती है। और हैं सामूहिक एवं समन्वित संस्कृति को पीढ़ी दर पीढ़ी जीने वाले जनजातीय समुदाय। जीवंत गीतों, नृत्यों और अपार साहस व शौर्य की धरती है यह झारखण्ड। आदिवासी पहचान, संस्कृति और स्वतंत्रता के अंतहीन संघर्ष और अदम्य जिजीविषा का प्रतीक।
ऋगवैदिक काल में झारखण्ड कीकट प्रदेश के नाम से जाना जाता था। उस समय का आदिम समुदाय घुमन्तु था और शिकार, पशुपालन तथा जंगली कंद-मूल पर उसका जीवन निर्भर था। ये लोग कौन थे? कहीं बाहर से आए थे या यहीं के मूल निवासी थे, इस बारे में कहीं कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। झारखण्ड के आदिम निवासियों में जिनके पदचिन्ह सर्वाधिक स्पष्टता से दिखाई पड़ते हैं, वे हैं असुर।
झारखण्ड कुल 30 आदिवासी समुदायों का निवास स्थल है। ये हैं - असुर, मुण्डा, संताल, हो, खड़िया, उरांव, माल एवं सौरिया पहाड़िया, बिरहोर, बैगा, बंजारा, बेदिया, बिंझिया, बिरजिया, बाथूड़ी, भूमिज, चेरी, चीक बड़ाईक, गौड़, गोड़ाइत, करमाली, खरवार, किसान, कोरा, कौरवा, लोहरा, महली, शबर खड़िया, खौंड और परहिया। इनमें संतालों की संख्या सर्वाधिक है और ये भारत के सबसे बड़े आदिवासी समूहों में गिने जाते हैं। झारखण्ड का संताल परगना मुख्यतः इन्हीं से आबाद है जबकि रांची पठार के पूर्वी भाग में मुण्डाओं की बहुलता है। पश्चिम में उरांवों का। नेतरहाट का क्षेत्र असुरों का है तो निम्न पठारीय भागों के उत्तर में भुंइयां, बिरहोर, संताल; पूर्व में संताल, पहाड़िया और भुंइयां; दक्षिण में हो और पश्चिम में चेरो, खरवार,कोरवा आदि।
इतिहासकारों के अनुसार महाभारत काल में झारखण्ड मगध के अंतर्गत था और मगध जरासंध के आधिपत्य में था। अनुमान है कि जरासंध के वंशजों ने लगभग एक हजार सालों तक मगध में एकछत्र शासन किया। जरासंध शैव था और असुर उसकी जाति थी। के. के. ल्युबा का अध्ययन है कि झारखण्ड के वर्तमान असुर महाभारतकालीन असुरों के ही वंशज हैं। झारखण्ड की पुरातात्विक खुदाईयों में मिलने वाली असुरकालीन ईंटों से तथा रांची गजेटियर 1917 में प्रकाशित निष्कर्षों से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। असुर मुख्यतः लोहा गलाने का व्यवसाय करते थे और असंदिग्ध रूप से मुण्डा एवं अन्य आदिवासी समुदायों के आने से पहले इस झारखण्ड में उनकी एक विकसित सभ्यता विद्यमान थी।
यह भी तथ्य है कि असुरों के समय में झारखण्ड के कुछ इलाकों में जैनियों का प्रभाव था। खासकर, हजारीबाग और मानभूम आदि इलाके में। पारसनाथ में जैन तीर्थ का होना तथा उस क्षेत्र में सराक जाति की उपस्थिति और उनके रीति-रिवाज इसके जीवंत साक्ष्य हैं। असुरकालीन समाज और सभ्यता के बारे में अब तक हुए अध्ययन कुछ सूत्र ही दे पाते हैं, विस्तृत परिचय नहीं। पर इतना तय है कि असुरों के समय में और उनके पहले भी झारखण्ड का इलाका निरापद नहीं था। हजारीबाग की इस्को गुफाओं में मिले प्रागैतिहासिक शैल चित्रों और वस्तुओं ने इस धारणा को और पुष्ट किया है। दामोदर नदी घाटी तथा समस्त झारखण्ड में पाये जाने वाले अनेक पुरातात्विक अवशेषों के वैज्ञानिक अध्ययन भविष्य में मानव जाति और सभ्यता के नितांत नये इतिहास का उद्घाटन कर सकते हैं।
नृजातीय रूप से झारखण्ड के तमाम आदिवासी समुदायों की पहचान - प्रोटो आस्ट्रेलाइड और द्रविड़, दो समूहों में की जाती है। उरांवों को छोड़कर जो कि द्रविड़ समूह के हैं, अधिकांश जनजातीय समुदाय प्रोटो आस्ट्रेलाइड समूह में आते हैं। झारखण्ड के गैर आदिवासी समुदाय जिन्हें कि यहां सदान कहा जाता है, आर्यन समूह के हैं। हालांकि वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों के दबाव में आज अधिकांश सदान अपने आपको अनार्य कहलाने पर ज्यादा जोर दे रहे हैं।
भाषायी वर्गीकरण के लिहाज से भाषाविद् झारखण्ड को तीन वर्गों में बांटते हैं। मुण्डा भाषा परिवार, द्रविड़ भाषा परिवार और आर्य भाषा परिवार। उरांव और पहाड़िया जनजातियों की भाषा ‘कुड़ुख’ द्रविड़ है जबकि सदानों की नागपुरी, सादरी, कुरमाली, खोरठा आदि आर्यन। मुण्डा, संताल, खड़िया, हो, बिरहोर आदि मुण्डा भाषा परिवार की भाषाएं बोलते हैं। रांची विश्वविद्यालय भारत का एकमात्र विश्वविद्यालय है जहां क्षेत्रीय एवं आदिवासी भाषाओं के अध्ययन एवं अध्ययापन की व्यवस्था एम. ए. स्तर पर है। फिलहाल झारखण्ड में मुण्डारी, संताली, हो, खड़िया, कुड़ुख, नागपुरी, पंच परगनिया, कुरमाली एवं खोरठा, 9 क्षेत्रीय एवं जनजातीय भाषाएं पढ़ाई जा रही हैं।
600 ईसा पूर्व जब मुण्डा लोग झारखण्ड आए तो उनका सामना असुरों से हुआ। मुण्डाओं की लोकगाथा ‘सोसोबोंगा’ में उनके आगमन और असुरों से संघर्ष का विस्तार से वर्णन है। भारत के विख्यात मानवशास्त्री शरत चंद्र राय अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘मुण्डाज एण्ड देयर कंट्री’ में इसका समर्थन करते हैं। मुण्डा जब झारखण्ड आए तो उनकी एक शाखा संताल परगना की ओर गई। इन लोगों को आज हम संताल के नाम से जानते हैं जबकि दूसरी शाखा रांची की पश्चिमी घाटियों में उतरी। रांचीकी ओर आनेवाली शाखा मुण्डा कहलाई। ये मुण्डा लोग ही असुरों से भिड़े।
बाद में, इतिहासकारों के अनुसार लगभग 1206 ई. में उरांव कर्नाटक की ओर से, नर्मदा के किनारे-किनारे विंध्य एवं सोन की घाटियों से होते हुए रोहतासगढ़ पहुंचे। जहां उन्होंने राज किया और फिर अपना राजपाट खोकर पराजित होने के पश्चात् रांची की ओर आए। तब उनका सामना मुण्डाओं से हुआ। उरांवों के आने के बाद मुण्डा लोग दक्षिण की ओर चले गए। यह इलाका आज का खूंटी क्षेत्र है जहां मुण्डाओं की बहुलता है।
असुर लोग कृषिजीवी नहीं थे और उस समय में झारखण्ड में कृषि प्रधान समाज की उपस्थिति के प्रमाण नहीं मिलते हैं। मुण्डा लोग जब यहां आए तब उन्होंने ही व्यवस्थित कृषि और जीवन-समाज पद्धति की मजबूत नींव डाली। मुण्डा लोग न सिर्फ कृषि कार्यों में कुशल थे बल्कि उनका सामाजिक संगठन और प्रशासन बेहद सुव्यवस्थित था। उनकी सामाजिक-प्रशासनिक व्यवस्था गणतांत्रिक थी। गांव का मुखिया मुण्डा कहलाता था और कई गांव के मुण्डाओं का चुना हुआ प्रतिनिधि ‘मानकी’ होता था। वे सामुदायिक जीवन जीते थे और सामुहिकता उनकी प्राण-वायु थी।
पहली शताब्दी में यहां नागवंशियों का आधिपत्य हो गया। अनुमान है कि पहली ईश्वी के शुरूआती दिनों में नाग जाति जो कि जनमेजय के नाग यज्ञ के बाद से कांतिहीन जीवन जी रहे थे, ने अपनी खोयी शक्ति वापस पा ली थी और समूचे मध्यदेश पर इनका प्रभुत्व स्थापित हो गया था। इसी नाग जाति के वंशज फणिमुकुट राय ने 19 वर्ष की अवस्था में 83 ईश्वी में यहां नागवंशी शासन की नींव डाली। सुतियाम्बे उनकी पहली राजधानी थी और मुण्डाओं के गणतंत्र का आखिरी सर्वोच्च केन्द्र।
नागवंशी शासन के बाद समूचे झारखण्ड में आर्य संस्कृति-सभ्यता का विस्तार हुआ। इस विस्तार ने आदिवासी एवं सदान, दोनों ही संस्कृतियों के सम्मिलन में युगांतकारी भूमिका निभायी। सांस्कृतिक सम्मिलन से झारखण्ड में ‘सहिया’ संस्कृति का विकास हुआ जिसके फलस्वरूप अंग्रेजों के आगमन तक दोनों के संबंध सौहार्द्रपूर्ण बने रहे। सामुदायिक और सामूहिक संस्कृति व जीवनशैली अविच्छिन्न रूप से गतिमान रहा। नागवंशियों का राजतंत्र और आदिवासियों की पारंपरिक गणतांत्रिक परंपरा की समानान्तर धाराएं बिना एक दूसरे को काटे अथवा बाधित किये चलती रही।
इसे छिन्न-भिन्न किया अंग्रेजी राज ने। जिसको यहां के आदिवासी और सदानों ने अपने तीव्र प्रतिरोधों से स्वतंत्रता प्राप्ति तक लगातार चुनौती दी। सिदो-कान्हू, चांद-भैरव, बाबा तिलका मांझी, बिरसा मुण्डा, जतरा टाना भगत, बुधु भगत, तेलंगा खड़िया, शेख भिखारी जैसे अनेक झारखण्डी नायकों ने। इन्होंने भारत के अंग्रेजी राज में स्वतंत्रता और स्वाभिमान के लिए हुए झारखण्डी जनता के जनविद्रोहों को संगठित, संचालित एवं उसका साहसी नेतृत्व किया। अपनी शहादतें दी।
झारखण्ड मूलतः आदिवासी जीवन-दर्शन के मूल सिद्धांतों सह-अस्तित्व, सामुदायिकता, सामूहिकता और सहभागी संस्कृति के विरासत का केन्द्र है। जीवन के उल्लास और इंसानियत के विभिन्न रंगों को यहां के गीतों, नृत्यों, पर्व-त्यौहारों व लोक कलाओं में सहज देखा व अनुभव किया जा सकता है। करमा, सरहुल, मागे, बन्दई मुख्य सामाजिक पर्व हैं। स्वर्णरेखा, कोयलकारो, दामोदर और शंख नदियां जीवनरेखा हैं तो हुण्डरू, दसोंग, हिरनी, पंचघाघ आदि जलप्रपात यहां की प्रकृति, वनस्पति और जीवन की स्थायी धड़कन।
(असुरनेशन.इन से साभार)
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