वो काटा !!
पन्द्रह अगस्त के दिन मैंने अपनी छत से नोयडा के आसमान मे न जाने कितनी रंग बिरंगी पतंगों को नाचते , इठलाते देखा और शायद पतंग से ज्यादा लोगों को। अच्छा लगा । मैंने इस पतंग बाजी को आज़ादी से जोड़ने की कोशिश की तो यही नतीजा हाथ लगा कि जैसे पतंग आज़ादी से उड़ रही है लेकिन डोर किसी और के हाथ मे है , उसी तरह कहने को तो हम आजाद हैं पर डोर किसी दूसरे देश के हाथ मे हैं। फर्क यही है कि १९४७ के पहले हम मजबूरन गुलाम थे , आज हमने अपनी गुलामी मोल ले ली है। खैर, इस देश की राजनीति को छोड़ कर मैं अपनी सीधी साधी बात पर आती हूँ। मैं एक छोटे से शहर रांची की लडकी हूँ। हालांकि है तो वो भी एक राजधानी ही लेकिन so called delhi वाले , मेरा मतलब है नोयडा वाले बिना किसी भावना का ख्याल किये मुझे गाँव का ठहरा देते हैं। या शायद चार महानगरों को छोड़कर बाक़ी जगह इनके लिए गाँव जैसा ही है।
बहरहाल , वहाँ ऎसी पतंगबाजी का नज़ारा रोज़ ही होता है। इसके लिए किसी दिन विशेष का इन्तजार करने की जरूरत नही। बस मौसम का ख्याल जरूर होता है। इसे एक काम कि तरह नही लिया जाता है कि आज उडाना है , उड़ा लिया। और ऐसा उड़ाये कि बीस-पच्चीस हादसे तो तय हैं। मैंने अपने शहर मे इसका जो आनंद लिया , यहाँ ऎसी बात ही नही दिखी। ये सच है कि पतंग कोई मंहगी चीज़ नही पर इसका मर्म तो समझिए । वहाँ किसी की पतंग हलकी सी फटी तो चिपका के उडाई जाती है। किसी के छत पर चली गई तो जब तक उससे ले ना लें , चैन कहॉ ? सीढ़ी के नीचे चाहे चार पतंगे छुपा के रखी हों लेकिन किसी की लूटी हुई पतंग को उड़ाने का मजा कि कुछ और है। पर यहाँ ऐसा कुछ नही कि । एक कटी तो रईसों की तरह दूसरी निकली , हलकी सी फटी तो फाड़ के फेंक दिया । हो सकता है एक दिन उडाना है तो इस सबका ख्याल नही रखा जाता है। हमारे यहाँ तो रोज़ उडाना है , सो बज़ट के बारे मे भी सोचना पड़ता है।
पहले हम सभी छत पर चढ़ जाते थे। भाई पतंग उडाता और हम पीछे पीछे हेल्पर बनके रहते । कभी कभी डोर हमारे हाथ मे आ जाती , बस फिर क्या था.....हम लगते थे पगलाने। धीरे धीरे ये सब छूटता गया। अब उड़ाना तो नही हो पाता पर सबको उड़ाते चिल्लाते देख बहुत मजा आता है। और अगर कोई पतंग मेरे छत पर आ जाती है तो मैं चुपचाप उसे छुपा देती हूँ और सड़क पर घूमने वाले बच्चों को बुलाकर दे देती हूँ , जिनके लिए ये बहुत कीमती होता है और उसको पाकर उनके चहरे की ख़ुशी मेरे लिए शायद सबसे कीमती है।
4 comments:
सच कहां गया वो समय। अब तो बस यादों मे ही है।
प्रेम चन्द्र की कहानी बड़े भाईसाहब याद आ गयी।
cool link :)
सही कहा, डोर दूसरे के हाथ में है. ऐसे में क्या पतंग उडा़ना.
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