भाषा क्यों बिगड़ती है? अपभ्रष्ट होती है?
प्रश्न है- भाषा क्यों बिगड़ती है? अपभ्रष्ट होती है?
इसके कारण ऐतिहासिक और भौगोलिक हैं। अपभ्रंश का अर्थ (सामान्य रूप में) किसी भी भाषा के बिगड़े हुए रूप से लिया जा सकता है। इस दृष्टि से डा. श्रीधर व्यंकटेश केतकर ने अनेक उदाहरण दिए हैं।
''वे (पारसी लोग) लोग शुद्ध गुजराती नहीं बोलते, अपितु गुजराती का एक अपभ्रंश बोलते हैं। उन्हें आज भी 'ळ' का उच्चारण करना नहीं आता। जब कुछ लोग अपनी भाषा-रक्षण में पूरी तरह समर्थ नहीं होते; फिर भी वे एकत्रित रूप में (साहचर्य में) रहते हैं, तब उनकी भाषा स्थानीय न होकर पैतृक एवं स्थानीय, दोनों में से किसी एक का अपभ्रंश होती है। जिप्सी लोगों ने अपनी भाषा जीवित रखी और पारसियों ने उसे मृत होने दिया। ऊपर-ऊपर से ऐसा ही प्रतीत होता है किंतु गहराई से अवलोकन करें तो प्रतीत होगा कि पारसियों को जिप्सियों की अपेक्षा परदेश में अधिक काल तक रहना पड़ा है। ... और जिप्सी भाषा के जिप्सी स्वरूप की रक्षा हो जाना और पारसी भाषा के पारसी स्वरूप का लुप्त होना, इसमें बहुत अंतर नहीं है। अर्थात स्वभाषा रक्षण में जिप्सी पारसी लोगों से अधिक सफल हो गए, ऐसा मानने की आवश्यकता नहीं। क्योंकि जिप्सियों ने भी अपनी भाषा की वाक्यरचना बदल दी है और उसे अंग्रेजी का स्वरूप दिया है।
जब भी दो भिन्न भाषाओं का सन्निकर्ष होता है तो बलवान भाषा की रचना का स्वरूप बना रहता है किंतु दुर्बल राष्ट्र उस रचना के स्वरूप को स्वीकार कर लेता है, केवल अपने शब्द अपने रख पाता है, ऐसा प्रतीत होता है। संक्षेप में यदि मनुष्य के समुदायों का इतिहास लिखना हो तो उस भाषा के विकृत रूप (अपभ्रंश रूप) का साहित्य भी महत्वपूर्ण मानना चाहिए। क्योंकि उसकी सहायता से हमें लुप्त मानव इतिहास का ज्ञान होता है। और विशेष रूप से मानवी समुच्चयों की घटनाओं के विघटन का इतिहास मालूम होता है। उसके आधार पर जातियों की भ्रमणशील प्रवृत्तियों का भी बोल होता है।''
पृष्ठ- 103-04
इसके कारण ऐतिहासिक और भौगोलिक हैं। अपभ्रंश का अर्थ (सामान्य रूप में) किसी भी भाषा के बिगड़े हुए रूप से लिया जा सकता है। इस दृष्टि से डा. श्रीधर व्यंकटेश केतकर ने अनेक उदाहरण दिए हैं।
''वे (पारसी लोग) लोग शुद्ध गुजराती नहीं बोलते, अपितु गुजराती का एक अपभ्रंश बोलते हैं। उन्हें आज भी 'ळ' का उच्चारण करना नहीं आता। जब कुछ लोग अपनी भाषा-रक्षण में पूरी तरह समर्थ नहीं होते; फिर भी वे एकत्रित रूप में (साहचर्य में) रहते हैं, तब उनकी भाषा स्थानीय न होकर पैतृक एवं स्थानीय, दोनों में से किसी एक का अपभ्रंश होती है। जिप्सी लोगों ने अपनी भाषा जीवित रखी और पारसियों ने उसे मृत होने दिया। ऊपर-ऊपर से ऐसा ही प्रतीत होता है किंतु गहराई से अवलोकन करें तो प्रतीत होगा कि पारसियों को जिप्सियों की अपेक्षा परदेश में अधिक काल तक रहना पड़ा है। ... और जिप्सी भाषा के जिप्सी स्वरूप की रक्षा हो जाना और पारसी भाषा के पारसी स्वरूप का लुप्त होना, इसमें बहुत अंतर नहीं है। अर्थात स्वभाषा रक्षण में जिप्सी पारसी लोगों से अधिक सफल हो गए, ऐसा मानने की आवश्यकता नहीं। क्योंकि जिप्सियों ने भी अपनी भाषा की वाक्यरचना बदल दी है और उसे अंग्रेजी का स्वरूप दिया है।
जब भी दो भिन्न भाषाओं का सन्निकर्ष होता है तो बलवान भाषा की रचना का स्वरूप बना रहता है किंतु दुर्बल राष्ट्र उस रचना के स्वरूप को स्वीकार कर लेता है, केवल अपने शब्द अपने रख पाता है, ऐसा प्रतीत होता है। संक्षेप में यदि मनुष्य के समुदायों का इतिहास लिखना हो तो उस भाषा के विकृत रूप (अपभ्रंश रूप) का साहित्य भी महत्वपूर्ण मानना चाहिए। क्योंकि उसकी सहायता से हमें लुप्त मानव इतिहास का ज्ञान होता है। और विशेष रूप से मानवी समुच्चयों की घटनाओं के विघटन का इतिहास मालूम होता है। उसके आधार पर जातियों की भ्रमणशील प्रवृत्तियों का भी बोल होता है।''
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