Wednesday, April 11, 2018

यही अंत है...

जल्दी से कुछ लिख लें। जल्दी से कुछ कह दें। जल्दी से किसी को देख लें। जल्दी से कहीं छुप जाएं। जल्दी से कहीं भाग जाएं। जल्दी से कहीं चढ़ जाएं। जल्दी से कहीं उतर जाएं। जल्दी-जल्दी-जल्दी।
यहां से जाना, वहां से आना, वहां बैठना, कहीं और जाकर ठहर जाना, फूल देखना, पत्ती चुनना, हवा रोकना, पानी भरना। सब जल्दी-जल्दी-जल्दी-जल्दी।
ये खा लो, वो पहन लो, उससे मिल लो, वहां बात कर लो, वहां बोल दो, वहां चुप रहो, यहां से दूर रहो, वहां के पास रहो, उससे बोलो, उससे न बोलो, बैठे रहो, खड़े रहो, लेटे रहो। रहो-रहो-रहो। जल्दी में रहो।
धीमे-धीमे आती है बेचैनी। धीमे-धीमे चढ़ता है पारा। धीमे-धीमे उतरता है पानी। धीमे-धीमे चलती हैं आंखें। धीमे-धीमे आती है आवाज। धीमे-धीमे निकलती है बात। धीमे-धीमे पकता है सपना उधार का।
धीमी सी एक बात है- रह कर करेंगे क्या? कर के भी करेंगे क्या? करना क्यों है? क्यों ही क्यों है? जीवन ने मेरे से कभी न पूछा, मैं पूछने वाला कौन हूं?
चुप की बारात है, रोज घोड़े लेकर घेरती है। लकड़ी की मेज है, रोज सामने खड़ी रहती है। खूंटी पर टंगी शर्ट है, हवा चलने पर हिलती है। फिर मन का क्या करूं बुच्चन? सड़ रहे मन का क्या करूं बुच्चन?
एक बच्चा है, जो दूर है। एक दूर है, जो अभी बच्चा है। रुका हुआ पानी है। रुकी हुई कहानी है। लात मार-मारकर जिसे बढ़ाते हैं और पाते हैं कि वो तो हमसे भी पीछे चली गई है।
एक देह है, जो हद के पार कहीं दिखती है। एक आंख है, जिसके हाथ नहीं हैं। एक कमरा है, दीवारों से भरा हुआ। एक रसोई है, जिसमें न आटा है न आलू।
मन चंट है, फिर भी दीवार नहीं तोड़ पाता। पांव में चक्कर है जो पैताने पर मसल देता हूं। दांतों से आज मैं धुंआ पीसता हूं बुच्चन। यही अंत है। है न?

रात किसी बरसात से बाहर

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