कॉर्नर वाला कमरा
आते जाते वो नजरों से बच नहीं पाता था
आना जाना प्रकृति तो नहीं, पर मजबूरी थी
नजरों का उठना, चीजों को देखना
जरूर प्रकृति ही थी।
हालांकि वो प्राकृतिक नहीं था
फिर भी, नजरों से न बच पाना
उसकी नियति थी।
वो गली में कॉर्नर वाला कमरा था।
कमरा, मकान और घर में बस समझने का फेर है।
उसने इसे कमरे का ही तो नाम दिया।
और साथ में बसाई
एक चारपाई, एक कुर्सी और मेज।
खिड़की के पास पड़ी मेज और उसपर पड़े बरतन
अक्सर दिखाई देते थे।
खड़खड़ करते बरतन
सुनाई भी पड़ते थे, संडे के संडे।
एक दिन, और उस एक दिन के बाद के कई दिनों तक
अचानक उस कमरे में बरतनों की आवाज बढ़ गई।
शायद बरतन भी बढ़ गए थे।
कई दिनों बरतन खड़खड़ कर गली में ध्यान खींचते रहे
कई दिनों तक उस कमरे की चुप
आश्चर्य में भी डालती रही।
कई दिनों तक उस कमरे से
आवाजें भी आती रहीं।
सिर्फ बरतनों की ही नहीं
लोगों की भी।
पर उन आवाजों में कुछ कॉमन था
कॉमन थी वहां से आती
तेज, धीमी आवाज और फुसफुसाहट भी
कराह भी और खिलखिलाहट भी।
और कान भी आते जाते होने लगे थे अभ्यस्त।
एक दिन, उसी कॉनर्र वाले मकान पर ताला लगा था,
दूसरे दिन भी लगा रहा और आने वाले कई दिनों तक
उस मकान में ताला लटकता रहा।
उन दिनों, भारी बरसात का मौसम था
और सड़ने शुरू हो चुके थे, उस मकान के दरवाजे
ताला बदस्तूर लटका हुआ था,
पर दरवाजे कमजोर पड़ चुके थे।
और फिर एक दिन
ताले सहित दरवाजा भरभराकर नीचे गिरा पाया गया
मोहल्ले में शुरू हो गईं बातें
तरह तरह की बातें
उजली पीली स्याह बातें
बातों का क्या है,
अब कमरे के भीतर तो पड़ोस वाली ताई भी तो न गई थीं।
इसीलिए बातें बनीं, और खूब बनीं।
सड़ा हुआ दरवाजा पड़ा रहा, और उस पर
जमने लगी फंफूद और कुकुरमुत्ते।
एक एक करके गायब हुए सारे बरतन
कुर्सी और चारपाई भी।
कमरे में लोटने लगे कुत्ते और
खड़ी होने लगी उसमें गायें।
पूंछ हिलातीं, पगुरातीं और सिर इस तरह से हिलातीं
जैसे कमरे की दीवारें
उन्हें बता रही हों अपनी दास्तान
और वो किसी बात से
दीवारों से असहमति जता रही हों।
कमरा गिर गया,
दरवाजा तो पहले ही गिर चुका था।
कुछ दिन तो चीजें यूं ही गिरी पड़ी रहीं
और फिर से एक दिन आया
कमरे की नीवें फिर से डाली गईं,
कब्जा कर लिया गया उस पर
और इस बार बनाए गए उसमें
पूरे तीन कमरे
जिनमें से एक में
अब रोज सुबह
मंत्रोच्चार और घंटी की आवाज आती है,
सब सुखी हैं अब वहां।
और उन कमरों से आती आवाजें
अब बरबस ध्यान नहीं खींचतीं।
आना जाना प्रकृति तो नहीं, पर मजबूरी थी
नजरों का उठना, चीजों को देखना
जरूर प्रकृति ही थी।
हालांकि वो प्राकृतिक नहीं था
फिर भी, नजरों से न बच पाना
उसकी नियति थी।
वो गली में कॉर्नर वाला कमरा था।
कमरा, मकान और घर में बस समझने का फेर है।
उसने इसे कमरे का ही तो नाम दिया।
और साथ में बसाई
एक चारपाई, एक कुर्सी और मेज।
खिड़की के पास पड़ी मेज और उसपर पड़े बरतन
अक्सर दिखाई देते थे।
खड़खड़ करते बरतन
सुनाई भी पड़ते थे, संडे के संडे।
एक दिन, और उस एक दिन के बाद के कई दिनों तक
अचानक उस कमरे में बरतनों की आवाज बढ़ गई।
शायद बरतन भी बढ़ गए थे।
कई दिनों बरतन खड़खड़ कर गली में ध्यान खींचते रहे
कई दिनों तक उस कमरे की चुप
आश्चर्य में भी डालती रही।
कई दिनों तक उस कमरे से
आवाजें भी आती रहीं।
सिर्फ बरतनों की ही नहीं
लोगों की भी।
पर उन आवाजों में कुछ कॉमन था
कॉमन थी वहां से आती
तेज, धीमी आवाज और फुसफुसाहट भी
कराह भी और खिलखिलाहट भी।
और कान भी आते जाते होने लगे थे अभ्यस्त।
एक दिन, उसी कॉनर्र वाले मकान पर ताला लगा था,
दूसरे दिन भी लगा रहा और आने वाले कई दिनों तक
उस मकान में ताला लटकता रहा।
उन दिनों, भारी बरसात का मौसम था
और सड़ने शुरू हो चुके थे, उस मकान के दरवाजे
ताला बदस्तूर लटका हुआ था,
पर दरवाजे कमजोर पड़ चुके थे।
और फिर एक दिन
ताले सहित दरवाजा भरभराकर नीचे गिरा पाया गया
मोहल्ले में शुरू हो गईं बातें
तरह तरह की बातें
उजली पीली स्याह बातें
बातों का क्या है,
अब कमरे के भीतर तो पड़ोस वाली ताई भी तो न गई थीं।
इसीलिए बातें बनीं, और खूब बनीं।
सड़ा हुआ दरवाजा पड़ा रहा, और उस पर
जमने लगी फंफूद और कुकुरमुत्ते।
एक एक करके गायब हुए सारे बरतन
कुर्सी और चारपाई भी।
कमरे में लोटने लगे कुत्ते और
खड़ी होने लगी उसमें गायें।
पूंछ हिलातीं, पगुरातीं और सिर इस तरह से हिलातीं
जैसे कमरे की दीवारें
उन्हें बता रही हों अपनी दास्तान
और वो किसी बात से
दीवारों से असहमति जता रही हों।
कमरा गिर गया,
दरवाजा तो पहले ही गिर चुका था।
कुछ दिन तो चीजें यूं ही गिरी पड़ी रहीं
और फिर से एक दिन आया
कमरे की नीवें फिर से डाली गईं,
कब्जा कर लिया गया उस पर
और इस बार बनाए गए उसमें
पूरे तीन कमरे
जिनमें से एक में
अब रोज सुबह
मंत्रोच्चार और घंटी की आवाज आती है,
सब सुखी हैं अब वहां।
और उन कमरों से आती आवाजें
अब बरबस ध्यान नहीं खींचतीं।
No comments:
Post a Comment