अंदर घर करती दीवारें
खिडकी के बाहर का आसमान, खिडकी तक ही रहता है। और दीवारें... वो तो अंदर तक घर कर जाती हैं। लिखना उन दीवारों पर कलम से तो कभी कभी पेंसिल से। एक गोला बनाना उनपर और गोला बनाकर उसमें घर कर जाना।
कमबख्त दीवारें। कमजर्फ दीवारें। चुगलखोर दीवारें। बाहर का खुला आसमान इन दीवारों को पाटना चाहता है। अहसास दिलाना चाहता है इन्हें.... खुरदुरी सख्त परतों को बादल सहलाते हैं। आसमान दिल्ली की बेमुरव्वत गर्मी से तर हो चुकीं इन दीवारों को मुलायमियत देना चाहता है।
अजीब अजाब है कि देने से कोई लेता नहीं। अजीयत है कि शक-ओ-शुब्ह की तीखी नजरें हर वक्त कुछ यूं पीछे पड जाती हैं कि मानों वक्त ठहर गया हो और चीजें स्लो मोशन में कभी इधर तो कभी उधर जा रही हों। पेंडलुम से भी धीमी।
इस बार मैगजीन में तुम्हारी जो तस्वीर आई, उसमें जर्दा ज्यादा महक रहा है। और काजल...वो तो हर वक्त बहने को तैयार क्यों रहता है। जर्दे की महक और काजल के बहने के बीच की तर बतर दीवार.... आसमान भी नहीं पाट पाया है।
चीजों में आसानी चाहना कितना मुश्किल है, ये तो उस आसानी की तलाश में पता चलता है। पर हर चीज आसान हो, क्या ये मुमकिन है। क्या ये मुमकिन होगा।
आखिर क्यों कल्पना की जाए कि कोई मेट्रो में सवार होगा। (वैसे कल्पनाओं का यह दौर डीटीसी के स्वर्णिम काल से जारी है।)
एक बात बताना। उस कविता और इस कहानी के बीच दीवार खडी कैसे हुई। वैसे दीवार तो हमेशा से ही थी कविता और कहानियों के बीच। शब्दों की, मात्राओं की। पूर्ण और अल्प विरामों की इतनी बडी और इतनी ऊंची दीवार खडी हो चुकी है कि ....
सुपर आनंद दायक फोटो सौजन्य दैनिक जागरण कश्मीर। |
अजीब अजाब है कि देने से कोई लेता नहीं। अजीयत है कि शक-ओ-शुब्ह की तीखी नजरें हर वक्त कुछ यूं पीछे पड जाती हैं कि मानों वक्त ठहर गया हो और चीजें स्लो मोशन में कभी इधर तो कभी उधर जा रही हों। पेंडलुम से भी धीमी।
इस बार मैगजीन में तुम्हारी जो तस्वीर आई, उसमें जर्दा ज्यादा महक रहा है। और काजल...वो तो हर वक्त बहने को तैयार क्यों रहता है। जर्दे की महक और काजल के बहने के बीच की तर बतर दीवार.... आसमान भी नहीं पाट पाया है।
चीजों में आसानी चाहना कितना मुश्किल है, ये तो उस आसानी की तलाश में पता चलता है। पर हर चीज आसान हो, क्या ये मुमकिन है। क्या ये मुमकिन होगा।
आखिर क्यों कल्पना की जाए कि कोई मेट्रो में सवार होगा। (वैसे कल्पनाओं का यह दौर डीटीसी के स्वर्णिम काल से जारी है।)
एक बात बताना। उस कविता और इस कहानी के बीच दीवार खडी कैसे हुई। वैसे दीवार तो हमेशा से ही थी कविता और कहानियों के बीच। शब्दों की, मात्राओं की। पूर्ण और अल्प विरामों की इतनी बडी और इतनी ऊंची दीवार खडी हो चुकी है कि ....
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