Saturday, September 28, 2019

मुसलमां हैं यूं बस खतावार हैं हम

व्हाटसएप्प पर एक बुजुर्ग इस लिखाई को सुनाते दिखे। पता किया तो सन 2017 में इनकी पहली रिकॉर्डिंग मिली, लेकिन नाम नहीं मिला। कुछ और पता किया तो पता चला कि शायद राहत इंदौरी साहब ने इसे लिखा हो सकता है, लेकिन कहीं भी इसकी स्क्रिप्ट नहीं मिली, इसलिए यह भी कन्फर्म नहीं कि इसे राहत इंदौरी ने ही लिखा है। बहरहाल, जिसने भी लिखा है, कमाल का लिखा है, कहीं गलती हो तो पहले से ही माफी दरकार है। आप भी मुलायजा फरमाएं, जब तक मोदी जी हैं, तब तक मौजूं है- 

हुकूमत के दिल से वफादार हैं हम,
इशारों पे चलने को तैयार हैं,
मुसीबत में फिर भी गिरफ्तार हैं हम,
मुसलमां हैं यूं बस खतावार हैं हम।

सजा मिल रही है अदावत से पहले,
समझते हैं बागी बगावत से पहले,
मुसलमां चीन और जापान में हैं,
यही कौम रूस और यूनान में है,
यही लोग यूरोप और सूडान में हैं,
जहां भी हैं ये अमन ओ अमान में हैं,
हर एक मुल्क में तो वफादार हैं हम,
मगर हिंद में सिर्फ गद्दार हैं हम।

हमें रोज धमकी भी दी जा रही है,
घरों में तलाशी भी ली जा रही है,
बिला वजह सख्ती भी की जा रही है,
अदालत यहां से उठी जा रही है।

जो मासूम थे वो तो मुजरिम बने हैं,
जो बदफितना थे आज हाकिम बने हैं,
कौन सिर में हमें ये रहने न देंगे,
हमें दर्द अपना ये कहने न देंगे,
गम ओ रंज सहिये तो सहने न देंगे,
सितम है कि आंसू भी बहने न देंगे।

जुंबा बंदियां हैं नजरबंदियां हैं,
हमारे लिए ही सारी पाबंदियां हैं,
अब उर्दू जुबां भी मिटानी पड़ेगी,
कि बच्चों को हिंदी पढ़ानी पड़ेगी,
यहां सबको चंदी रखानी पड़ेगी,
रहोगे तो शुद्धि करानी पड़ेगी।

वफादार होने का मेयार ये है,
यकीं फिर भी आ जाए दुश्वार ये है,
तकाजा है अपनी जमाअत को छोड़ो,
मुसलमानों की तुम कयादत को छोड़ो,
नहीं तो चले जाओ भारत को छोड़ो,
यही नजरिया है यही जेहनियत है,
इसी का यहां नाम जम्हूरियत है।

गिराते हो तुम मस्जिदों को गिराओ,
मिटाते हो तुम मकबरों को मिटाओ,
बहाते हो अगर खूं ये नाहक बहाओ,
मगर ये समझकर जरा जुल्म ढहाओ,
जालिम का लबरेज जब जाम होगा,
तो हिटलर और टीटो सा अंजाम होगा।

हमें मुल्क से है भगाने की ख्वाहिश,
हमें दहर से है मिटाने की ख्वाहिश,
तो सुन लें जिन्हें है मिटाने की ख्वाहिश,
तो हमको भी है सर कटाने की ख्वाहिश।

कटेगा सर तो ये मजमून होगा,
हिमालय से शिलांग तक खून होगा,
बिहार और यूपी में हम कुछ न बोले,
हुआ जुल्म देहली में हम कुछ न बोले,
किया कत्ल गाड़ी में हम कुछ न बोले,
घरों में घुसाए तो हम कुछ न बोले।

जालिम अगर यूं ही होते रहेंगे,
तो क्या अहले ईमां सोते रहेंगे?
अलग होके बरतानिया देखता है,
हरएक कौम का पेशवा देखता है,
जमाना हरेक माजरा देखता है,
कोई देखे न देखे खुदा देखता है,
करेगा जो जुल्म यूं आजाद होकर,
खुद ही मिट जाएगा वो बरबाद होकर।

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