घूम घूम कर पूरी दुनिया में भारत का फालूदा बना रहे मोदी
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इस मामले में चीन को अपने पक्ष में करने की कोशिशें बेहद बचकाना साबित हुईं। केवल चीन के साथ ही नहीं बल्कि स्विटजरलैंड और आयरलैंड समेत दूसरे देशों के साथ भी ऐसा ही रहा। अव्वलन तो इस मसले पर चीन के रूख को लेकर आपका एक पुख्ता आंकलन होना चाहिए था। और फिर उसके हिसाब से अपने कदम तय करने चाहिए थे। आपने विदेश सचिव के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल चीन भेजा था। उसी दौरान चीन का रुख स्पष्ट हो गया होगा। और अगर वह नकारात्मक था। तो ऐसे में दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्षों के मिलने का कोई तुक नहीं बनता था। क्योंकि उनके मिलने का ही मतलब हां होता है। ना होने से साख के जाने का खतरा या फिर स्टेट्समैनशिप पर सवालिया निशान लग जाता है। लेकिन साथ ही सरकार को इस सवाल का भी जवाब जरूर देना चाहिए कि 2008 में जब एनएसजी में भारत को एनपीटी से छूट दी गई तो उस समय भी तो चीन वहां मौजूद था। इस बीच ऐसा क्या हो गया जिससे चीन भारत के विरोध में चला गया।
दरअसल यही वह पेंच है जिसको समझना जरूरी है। तब भारत पश्चिमी देशों और आईएमएफ, वर्ल्ड बैंक के खिलाफ चीन, रूस, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका के साथ मिलकर एक समानांतर गठजोड़ बनाने की राह पर था। ब्रिक्स उसी का नतीजा था। यहां तक कि डालर के विकल्प के बारे में भी सोचा जाने लगा था। लेकिन मोदी जी के शासन में आते ही विदेश के मोर्चे पर भारत की सामरिक नीति और दिशा दोनों बदल गई। अब सरकार की पूरी रणनीति चीन विरोध पर आधारित है। किसी बड़े रिश्ते में जाने की बात तो दूर अविश्वास का बादल कितना घना हो गया है वह एक उदाहरण से ही काफी है। कुछ दिन पहले ही उड़ीसा में कार्यरत कुछ चीनी कर्मचारियों को इसलिए वैरन वापस भेज दिया गया। क्योंकि उनसे खुफियागिरी की आशंका थी।
अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भारत उस अमेरिका के साथ खड़ा है जिससे चीन का 36 का रिश्ता है। बाजार पर कब्जे की लड़ाई हो या कि दक्षिण चीनी समुद्र में सैन्य तैनाती का फैसला या फिर पूंजीवाद और समाजवाद की परंपरागत दुश्मनी। हर जगह दोनों आमने सामने हैं। इस रिश्ते में भारत एक तीसरा पक्ष जरूर है। लेकिन वह अपना कोई अलग कोण बनाने की जगह अमेरिकी शागिर्दी के लिए तैयार है। इस दौर में अमेरिकी बैताल को एक विक्रम चाहिए। और मोदी जी उसे अपनी पीठ देने के लिए राजी हैं। अमेरिका के साथ भारत का सामरिक समझौता उसी कड़ी का हिस्सा है। अगर भारत की पूरी विदेश नीति चीन के विरोध पर टिकी है। जिसकी कि वो खुलेआम घोषणा करता फिरता रहता है। ऐसे में चीन के रास्ते में कदम-कदम पर कांटे बोकर अपने लिए फूल की उम्मीद बेमानी है।
अकेले चीन ने नहीं बल्कि विरोध करने वालों की फेहरिस्त में स्विटजरलैंड भी है। मोदी जी ने एक पखवाड़ा पहले जिसकी यात्रा की है। इस विरोध में ब्राजील भी शामिल है। जिसका भारत के घनिष्ठ मित्रों में नाम शुमार है। वह ब्रिक्स और इब्सा का सदस्य भी है। या फिर न्यूजीलैंड, आस्ट्रिया और आयरलैंड क्यों विरोध कर रहे हैं? भारत की जो पश्चिमोन्मुख दिशा है उसमें आज चीन और ब्राजील गए हैं। कल रूस और दक्षिण अफ्रीका भी शामिल हो जाएंगे। और फिर आप पस्त अमेरिका और संकटग्रस्त यूरोप की डूबती नैया के खेवनहार बनकर रह जाएंगे।
मोदीजी की विदेश यात्राओं का जमा यही है। लाभ तो कुछ हासिल नहीं हुआ। भारत की छवि को बट्टा लगना जरूर शुरू हो गया है। अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक बिरादरी में मोदी की छवि एक सेल्फी लेने वाले, बेवजह गले पड़ने वाले और प्रवासी भारतीयों के बीच आत्मप्रशंसा के भूखे शख्सियत की बन रही है। भारत की जिन पहचानों और शख्सियतों के साथ अंतरराष्ट्रीय बिरादरी बावस्ता रही है उसे खारिज करने की कोशिश खुद अपनी जमीन से चादर खींचने जैसी होगी। नेहरू कोई नाम नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भारत की नींव हैं। उन्हें उखाड़कर आप अपनी कोई जमीन नहीं बना सकते हैं।
ऐसे में पूरे मामले का राजनीतिकरण करने की जगह सरकार को अपनी गल्तियों का विश्लेषण करना चाहिए। जिससे भविष्य में इसके दोहराव से बचा जा सके। विदेश से जुड़े मामलों को बड़ा मुद्दा बनाने के पीछे एक और वजह है। दरअसल सरकार घरेलू मोर्चे पर लगातार नाकाम हो रही है। ऐसे में जनता का ध्यान उससे हटाने के लिए सरकार को एक अच्छा हथियार मिल गया है। भला एफडीआई के लिए इससे बड़ा पर्दा और क्या हो सकता है? लेकिन सवाल यह है कि अगर विदेश के मोर्चे पर भी मोदी जी की पोल खुल गई तो उनके छुपने के लिए फिर कौन ठिकाना होगा।
By- Mahendra Mishra