"हंस में आप बेहद घटिया कहानियां छाप रहे हैं"
एक बनारसी यादव हैं, शायद पत्रकार भी..कहानीकार तो वो जरूर हैं। मुंबई में रहने वाले कनपुरिया लेखक रूप सिंह चंदेल ने अपनी फेसबुक प्रोफाइल में उक्त यादव जी की खूब खबर ली है। आप भी पढ़ें...
राजेन्द्र यादव पर लिखे मेरे लंबे संस्मरण ( दस हजार शब्दों से अधिक) का एक अंश- रूप सिंह चंदेल
एक घटना याद आ रही है.
यह बात २००४ या २००५ की है. उस दिन राजेन्द्र जी के साथ मैं और तेज सिंह ही थे. तेज सिंह की पत्रिका ’अपेक्षा’ पर चर्चा हो रही थी. कुछ देर बाद एक चालीस पार रचनाकार आए. हंस में उनकी कई वर्ष पहले एक कहानी मैंने पढ़ी थी. उनके आते ही राजेन्द्र जी, जो हंस-बतिया रहे थे अकस्मात गंभीर हो गए. हमे लगा कि उस व्यक्ति का आना राजेन्द्र जी को पसंद नहीं आया. लेकिन उसके बावजूद उन्होंने उसके हाल पूछे और चुप होकर पाइप सुलगाने लगे. कमरे में सन्नाटा छाया रहा. कुछ देर की चुप्पी के बाद मूंछों पर हल्की मुस्कान लाकर उस व्यक्ति ने पूछा, “मेरी कहानी का क्या कर रहे हैं?” पूछने का ढंग इतना अशिष्ट था कि कोई सामान्य व्यक्ति भी आपा खो देता. राजेन्द्र जी ने पाइप सुलगाते हुए बिना किसी उत्तेजना के कहा, “उसे नहीं छाप रहे.”
“क्यों नहीं छाप रहे?”
“यह भी पूछने की बात है!” राजेन्द्र जी अब गंभीर हो उठे थे.
“फिर भी मैं जानना चाहता हूं कि आपको उस कहानी में क्या कमी दिखाई दी?” उस व्यक्ति का चेहरा लाल हो रहा था. उसके चौड़े मुंह पर अस्वाभाविकता उभर आयी थी.
“क्योंकि वह हंस के योग्य नहीं है.”
“हंस में आप बेहद घटिया कहानियां छाप रहे हैं और मेरी कहानी आपको पत्रिका के योग्य नहीं लगी.”
राजेन्द्र जी चुप रहे.
कुछ देर चुप रहने के बाद वह व्यक्ति बोला, “आप क्यों छापेगें मेरी कहानी! वह कहानी आपको केन्द्र में रखकर जो लिखी गई है---इसलिए---!”
राजेन्द्र जी का चेहरा लाल हो उठा था. स्पष्ट था कि वह अपने क्रोध को किसी प्रकार जज्ब कर रहे थे. वह तत्काल चोट करते भी न थे. उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया.
“वापस कर दीजिए मेरी कहानी. कहीं भी छप जाएगी.”
’बीना से ले लो.” राजेन्द्र जी ने केवल इतना ही कहा, लेकिन चेहरा तब भी उनका लाल ही था.
“आप मेरी कहानी क्यों छापेगें---छापेगें इन जैसे चमचों की..” उसने मेरी ओर इशारा किया. मैं चुप रहा उसके उस मूर्खतापूर्ण प्रलाप पर. डॉ. तेज सिंह हत्प्रभ थे. आखिर उसकी धृष्टता के कारण तेज सिंह अपने को रोक नहीं पाए और बोले, “यादव जी, छाप दीजिए न इनकी कहानी---आखिर यह भी यादव हैं ---जाति का कुछ तो लिहाज कीजिए---.”
लेकिन राजेन्द्र जी ने जो चुप्पी साधी तो उस व्यक्ति के जाने के बहुत देर बाद ही तोड़ी.
दो-तीन वर्षों बाद मैंने उस व्यक्ति की एक रचना (वह कहानी थी या आलेख याद नहीं) हंस में देखी थी. शायद उस दिन की उस व्यक्ति की धृष्टता को राजेन्द्र जी ने क्षमा कर दिया था.
एक और घटना…
एक दिन मैं और राजेन्द्र जी ही थे. तेज सिंह हमारे साथ न थे और जब मैं अकेले उनके कार्यालय पहुंचता तो हंसते हुए वह पूछते, “आज आग अकेले---धुंआ को कहां छोड़ आए..!”
उस दिन किसी बात पर चर्चा करते हुए राजेन्द्र जी ने कहा कि ईमानदारी यदि शेष है तो केवल कम्युनिस्टों में. मैंने कहा, “कुछ कम्युनिस्ट भी भ्रष्ट हैं…आप सभी को ईमानदार होने का प्रमाणपत्र नहीं दे सकते.”
“मैं ठीक कह रहा हूं” राजेन्द्र जी अड़ गए थे अपनी बात पर.
मैंने कहा, “मेरे पास एक व्यक्ति का उदाहरण है जो अपने को मार्क्सवादी (सीपीएमएल का) कहता है लेकिन महाधूर्त है---उसका मार्क्सवाद एक छद्म है और उस जैसे अनेक हैं.”
“कौन है?” राजेन्द्र जी ने पूछा.
“उस दिन तेज सिंह और मेरे सामने जो बनारसी यादव अपनी कहानी के लिए आपसे बक-झक कर रहा था---वह उसे अपना गुरू कहता है. वह दिल्ली के एक सांध्य कॉलेज में हिन्दी प्राध्यापक है. उसने कानपुर में अपने ससुर को बरगलाकर उनके करोड़ों रुपयों के मकान की वसीयत करवा ली. गृहकलह हुई और ससुर जी समय से पहले दुनिया छोड़ गए. उनकी असमय मृत्यु का जिम्मेदार वह व्यक्ति अपने को पुराना नक्सलाइट कहता है---क्रान्तिकारी कहता है---उसके बारे में और अधिक जानेगें तो अपने विचार बदलने के लिए आप स्वयं विवश हो जाएगें.
राजेन्द्र जी चुप हो गए थे. मैं जानता था कि वे मेरी बात से सहमत भले ही न रहे हों लेकिन उसे काटने की बात भी वह सोच नहीं पा रहे थे. विश्वविद्यालय के लोगों के वह कटु आलोचक थे और मानते थे कि प्राध्यापन में ऎसे लोगों की कमी नहीं जिन्होंने छद्म मार्क्सवाद का लबादा ओढ़ रखा है जबकि वे अंदर से वह नहीं हैं जो दिखाने का प्रयास करते हैं. वे उतने ही बड़े शोषक-लंपट हैं जितने कि सामन्तवादी-पूंजीवादी होते हैं.
राजेन्द्र यादव पर लिखे मेरे लंबे संस्मरण ( दस हजार शब्दों से अधिक) का एक अंश- रूप सिंह चंदेल
एक घटना याद आ रही है.
यह बात २००४ या २००५ की है. उस दिन राजेन्द्र जी के साथ मैं और तेज सिंह ही थे. तेज सिंह की पत्रिका ’अपेक्षा’ पर चर्चा हो रही थी. कुछ देर बाद एक चालीस पार रचनाकार आए. हंस में उनकी कई वर्ष पहले एक कहानी मैंने पढ़ी थी. उनके आते ही राजेन्द्र जी, जो हंस-बतिया रहे थे अकस्मात गंभीर हो गए. हमे लगा कि उस व्यक्ति का आना राजेन्द्र जी को पसंद नहीं आया. लेकिन उसके बावजूद उन्होंने उसके हाल पूछे और चुप होकर पाइप सुलगाने लगे. कमरे में सन्नाटा छाया रहा. कुछ देर की चुप्पी के बाद मूंछों पर हल्की मुस्कान लाकर उस व्यक्ति ने पूछा, “मेरी कहानी का क्या कर रहे हैं?” पूछने का ढंग इतना अशिष्ट था कि कोई सामान्य व्यक्ति भी आपा खो देता. राजेन्द्र जी ने पाइप सुलगाते हुए बिना किसी उत्तेजना के कहा, “उसे नहीं छाप रहे.”
“क्यों नहीं छाप रहे?”
“यह भी पूछने की बात है!” राजेन्द्र जी अब गंभीर हो उठे थे.
“फिर भी मैं जानना चाहता हूं कि आपको उस कहानी में क्या कमी दिखाई दी?” उस व्यक्ति का चेहरा लाल हो रहा था. उसके चौड़े मुंह पर अस्वाभाविकता उभर आयी थी.
“क्योंकि वह हंस के योग्य नहीं है.”
“हंस में आप बेहद घटिया कहानियां छाप रहे हैं और मेरी कहानी आपको पत्रिका के योग्य नहीं लगी.”
राजेन्द्र जी चुप रहे.
कुछ देर चुप रहने के बाद वह व्यक्ति बोला, “आप क्यों छापेगें मेरी कहानी! वह कहानी आपको केन्द्र में रखकर जो लिखी गई है---इसलिए---!”
राजेन्द्र जी का चेहरा लाल हो उठा था. स्पष्ट था कि वह अपने क्रोध को किसी प्रकार जज्ब कर रहे थे. वह तत्काल चोट करते भी न थे. उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया.
“वापस कर दीजिए मेरी कहानी. कहीं भी छप जाएगी.”
’बीना से ले लो.” राजेन्द्र जी ने केवल इतना ही कहा, लेकिन चेहरा तब भी उनका लाल ही था.
“आप मेरी कहानी क्यों छापेगें---छापेगें इन जैसे चमचों की..” उसने मेरी ओर इशारा किया. मैं चुप रहा उसके उस मूर्खतापूर्ण प्रलाप पर. डॉ. तेज सिंह हत्प्रभ थे. आखिर उसकी धृष्टता के कारण तेज सिंह अपने को रोक नहीं पाए और बोले, “यादव जी, छाप दीजिए न इनकी कहानी---आखिर यह भी यादव हैं ---जाति का कुछ तो लिहाज कीजिए---.”
लेकिन राजेन्द्र जी ने जो चुप्पी साधी तो उस व्यक्ति के जाने के बहुत देर बाद ही तोड़ी.
दो-तीन वर्षों बाद मैंने उस व्यक्ति की एक रचना (वह कहानी थी या आलेख याद नहीं) हंस में देखी थी. शायद उस दिन की उस व्यक्ति की धृष्टता को राजेन्द्र जी ने क्षमा कर दिया था.
एक और घटना…
एक दिन मैं और राजेन्द्र जी ही थे. तेज सिंह हमारे साथ न थे और जब मैं अकेले उनके कार्यालय पहुंचता तो हंसते हुए वह पूछते, “आज आग अकेले---धुंआ को कहां छोड़ आए..!”
उस दिन किसी बात पर चर्चा करते हुए राजेन्द्र जी ने कहा कि ईमानदारी यदि शेष है तो केवल कम्युनिस्टों में. मैंने कहा, “कुछ कम्युनिस्ट भी भ्रष्ट हैं…आप सभी को ईमानदार होने का प्रमाणपत्र नहीं दे सकते.”
“मैं ठीक कह रहा हूं” राजेन्द्र जी अड़ गए थे अपनी बात पर.
मैंने कहा, “मेरे पास एक व्यक्ति का उदाहरण है जो अपने को मार्क्सवादी (सीपीएमएल का) कहता है लेकिन महाधूर्त है---उसका मार्क्सवाद एक छद्म है और उस जैसे अनेक हैं.”
“कौन है?” राजेन्द्र जी ने पूछा.
“उस दिन तेज सिंह और मेरे सामने जो बनारसी यादव अपनी कहानी के लिए आपसे बक-झक कर रहा था---वह उसे अपना गुरू कहता है. वह दिल्ली के एक सांध्य कॉलेज में हिन्दी प्राध्यापक है. उसने कानपुर में अपने ससुर को बरगलाकर उनके करोड़ों रुपयों के मकान की वसीयत करवा ली. गृहकलह हुई और ससुर जी समय से पहले दुनिया छोड़ गए. उनकी असमय मृत्यु का जिम्मेदार वह व्यक्ति अपने को पुराना नक्सलाइट कहता है---क्रान्तिकारी कहता है---उसके बारे में और अधिक जानेगें तो अपने विचार बदलने के लिए आप स्वयं विवश हो जाएगें.
राजेन्द्र जी चुप हो गए थे. मैं जानता था कि वे मेरी बात से सहमत भले ही न रहे हों लेकिन उसे काटने की बात भी वह सोच नहीं पा रहे थे. विश्वविद्यालय के लोगों के वह कटु आलोचक थे और मानते थे कि प्राध्यापन में ऎसे लोगों की कमी नहीं जिन्होंने छद्म मार्क्सवाद का लबादा ओढ़ रखा है जबकि वे अंदर से वह नहीं हैं जो दिखाने का प्रयास करते हैं. वे उतने ही बड़े शोषक-लंपट हैं जितने कि सामन्तवादी-पूंजीवादी होते हैं.
1 comment:
मुझे ये पोस्ट बहुत ही गजब की लगी ..संस्मरण के दोनों टुकडे अच्छे लगे
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