Sunday, September 4, 2011

चाहिए एक दीवार

बचपन में जब अम्मा डांटतीं या मारती थीं, तो हम किसी स्टोर में खुद को बंद कर लेते थे या फिर छत पर चले जाते थे। वहां जाकर घंटो उसी बात को सोच सोच कर रोते रहते थे कि अम्मा हमसे प्यार नहीं करती हैं तभी तो मारा। और या या कहकर मारा। अम्मा ने हमें ये नहीं सिखाया कि भगवान के सामने जाकर रोने से सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। हालांकि अम्मा को खुद जब रोना होता था तो वह भगवान के सामने जाकर रो लेती थीं। इसके लिए वह रोजाना स्पेशल टाइम निकालती थीं जिसे पूजा कहते थे। अम्मा कम से कम पौन घंटे तो पूजा करती ही थीं। इस बीच वो भगवान से जो भी बातें करती थीं, किसी को नहीं बताती थीं। जब वो पूजा कर रही होती थीं तो कोई उनके पास या उस कमरे में नहीं जाता था। दरअसल रोना नितांत व्यक्तिगत क्रिया है। मानव स्वभाव रहा है कि अगर वह रोए तो कोई सुने ना और किसी न किसी से जरूर रोए। भले ही वो भगवान हो, आसमान हो या फिर स्टोर के बंद कमरे की दीवारें हों। रोने के लिए आखिरकार सबसे मुफीद जगह कौन सी होती होगी?
मंदिर में भीड़ रहती है तो वहां लोग रोने की जगह गाने लगते हैं। इस तरह से गाना भी एक तरह का रोना ही माना जाएगा योंकि हम अपनी भड़ास गाने के रूप में निकालते हैं। मंदिर में सामूहिक रूप से गाई जाने वाली आरती हो या फिर मस्जिद में लगाई जाने वाली अजान, चाहे गुरुद्वारा ही यों न हो, आखिर ये सब सुर में यों नजर नहीं आते हैं। रोना बेसुरा होता है जबकि गाने में सुर का समावेश बहुत जरूरी होता है। भगवान की परिकल्पना हमने एक ऐसी वस्तु के रूप में की जो कभी जवाब नहीं देता है। और जो जवाब नहीं देता है, और जिसके सामने हम रो सकते हों, वह भले ही मूर्ति के रूप में हो, अदृश्य हो या किसी किताब की शल में, रहती एक दीवार ही है। एक शून्य दीवार जिसे हम अपना अंतरंग दोस्त मानते हैं और ये भी विश्र्वास रखते हैं कि ये दोस्त हमारे अतिव्यक्तिगत बातों को किसी से कहेगा नहीं। इसलिए हर तरह से, हर तरह की बातों से उसके सामने रो सकते हैं और यदि समूह में हों तो गा सकते हैं। अजीब बात है कि रोने के लिए हमने मंदिर-मस्जिद और पता नहीं या या बना दिए, लेकिन अभी तक एक ऐसा दोस्त नहीं बना पाए, जिससे हम रो सकें। वैसे यह मानव स्वभाव भी है कि वह अनजानी चीजों पर ज्यादा विश्र्वास करता है बनस्बित जानी हुई चीजों के। हमें दिक्कत होती है तो हम तर्क नहीं करते। हमें दुख होता है तो उसके कारणों की तलाश नहीं करते। सारी चीजों के लिए एक ऐसी चीज पर निर्भर हो जाते हैं जो प्रतिक्रिया ही नहीं कर सकती।
बहरहाल, आजकल रोने की, मतलब पूजा करने की नई शैली विकसित हो रही है। पिछले दो तीन सालों से देख रहा हूं कि सामूहिक पूजा को बढ़ावा दिया जा रहा है। हालांकि ये शैली जैनियों से ली गई है जहां पीढ़ा या मूढ़ा लगाकर एक लाइन से महिलाएं या पुरुष बैठते हैं और पूजा करते हैं। ये अलग बात है कि भगवान महावीर एकांत में ही ध्यान-जिसे अब पूजा कहते हैं, किया करते थे। यही शैली गणेश, विष्णु लक्ष्मी, राम और शिव जैसे भगवानों पर भी अपनाई जा रही है। एक पीढ़े पर उक्त भगवान की तस्वीर रखी और लाइन से बैठ गए। पूजा हो रही है, तिलक लगाया जा रहा है, पंडित बता रहा है कि अ धूप बाी जलाइए तो अब अक्षत छिड़किए। दीवार का स्वरूप बदल रहा है, स्टोर रूम में लाइन लग रही है, छत पर भीड़ इकठ्‌ठा हो रही है। मजे की बात तो यह कि बेसुरे मंत्रों के बीच पूरे मनोयोग से रोया जा रहा है। इससे आत्मिक शांति मिलती है। दरअसल जी भरके रो लेने के बाद शांति या हलका महसूस करना लाजमी है। लेकिन चूंकि दीवार चाहिए, इसलिए दीवार का कोई नाम भी होना चाहिए।

2 comments:

Anonymous said...

दीवारें भी बोलती हैं...

Rising Rahul said...

reflaction ho sakta hai, bol nahi sakti, waise kahte hain ki diwaro ke kaan hote hain lekin muh nahi