Sunday, December 25, 2016

नए साल की प्रार्थनाएं

जो मुझसे नफरत करते हैं, वह और भी सुंदर होते जाएं।
जो मुझे नापसंद करते हैं, उनका काम कम खाने से भी चल जाए।
जो मुझे शूली पे टांगना चाहते हैं, उन्‍हें रोजगार मि‍ले।
जो मुझे दुख देते हैं, सुख उनकी कदमबोसी करे।
जि‍नकी आंखों में मुझे देख आग उतरती है, गर्मी का मौसम उन्‍हें कम सताए।
जो मुझे नहीं जानते, उन्‍हें नया जानवर पालने को मि‍ले।
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प्रेमि‍काएं धोखा देती रहें। मैं धोखे खाता रहूं।
पड़ोसी आग लगाते रहें। मैं बेपरवाह जलता रहूं।
दर्द बना रहे। कि‍सी को पता भी न चले।
बांध टूट पड़ें। पानी में मैं तैरता हुआ बहूं।
बाप से बेटा दूर रहे। पहचान और धुंधली होती जाए।
यादें नाचती रहें। उनके हाथों में पैने हथि‍यार हों।
धागे उलझे रहें। सुई खो जाए।
घर की तरह मैं बाहर भी फटे कपड़े पहनूं।
अदालतें चलें तो सिर्फ मेरा चलना बंद करने को।
कचेहरी खुले तो सिर्फ मुझे लगाने को।
कोई दि‍खे तो सिर्फ मुझे दि‍खाने को।
सबके घर के बाहर नए चबूतरे बनें, गर्मी की शाम उनपर पानी छि‍ड़का जाए।
नए साल में प्रार्थनाएं बंद हों।

DANGAL REVIEW: न खाता न बही, जो पापा बोले वही सही!

अमूमन कहानियां तीन तरह से कही जाती हैं। पहला तरीका, सत्य घटनाओं का अपनी दृष्टि के मद्देनजर सीधा सच्चा बयान। दूसरा, आद्यांत कपोल कल्पना। तीसरा, सत्य घटनाओं से कुछ हिस्से उठाकर उसे समाजपयोग के लिए मन-माफिक मोड़ देना। यह तीसरा तरीका ही ज्यादातर किस्सागो अपनाते हैं। इसे समाजपयोग के लिए बनाने का काम दरअसल लेखक की सोच, उसकी तैयारी और समाज के प्रति उसकी प्रतिबद्धता पर निर्भर करता है। दंगल फिल्म तीसरे तरीके से कही गई कथा है। राष्ट्रकुल खेलों में गीता फोगाट को मिला गोल्ड इस फिल्म की प्रस्थान बिंदु है। महावीर फोगाट के संघर्षों को समेट पाने में नितांत असफल यह फिल्म देशभक्ति के खोल में लिपट जाती है।

सौरभ दुग्गल ने महावीर फोगाट की जीवनी लिखी है, जिससे यह फिल्म उठाई गई है, उस जीवनी में महावीर के आतंरिक, सामाजिक और घरेलू संघर्षों का जितना बढ़िया और सटीक वर्णन है, यह फिल्म उस पूरे संघर्ष का शतांश भी नहीं पकड़ पाती। उस असफलता के कारण फिल्म देशभक्ति का आसान रास्ता पकड़ लेती है और वह पूरा संघर्ष एक मामूली कथा में बदल दिया गया है, जिसे फिल्म के शुरू में ही बता दिया जाता है कि - इस फिल्म में गीता और महावीर के जीवन को 'फिक्सनलाईज' किया गया है। यह वो 'फिक्शन' वाला हिस्सा ही है जो पुरातनपंथी है।

दंगल से पहले 'तारे जमीन पर' का जिक्र करते हैं। उस फिल्म में भी एक पिता है जिसके अपने बच्चों से अरमान असीम हैं, बड़ा बेटा सफल होता दीखता है लेकिन छोटा अपने अलग मिजाज का है, वह पिता के अरमानों पर पानी फेरते रहता है। फिर पिता और स्कूल की क्रूरताएं हैं। वहाँ, आमिर खान के रूप में एक शिक्षक आता है। वह छोटे बेटे को नई राह दिखाता है। यहाँ बात पिता बनाम शिक्षक नहीं है। ऐसा होता भी नहीं। किसी के भी जीवन में शिक्षक का एक किरदार होता है, जिसकी एक सीमा होती है, उसी तरह पिता का भी किरदार अपनी सीमाओं को लिए रहता है। मुख्य बात यह होती है कि जीवन में आपकी दिलचस्पी कौन जगा पाता है। वह दिलचस्पी ही बहुधा जीवन के रास्ते तय करती है, मिलने वाले लोग तय करती है। तारे जमीन पर फिल्म वह दिलचस्पी चित्रकारी के रूप में शिक्षक जगाता है और दंगल, कुश्ती के रूप में, यह काम गीता और बबीता की वह सहेली करती है, जिसकी शादी में वो दोनों गयी होती हैं। वरना उसके पहले तो पिता की लाख कोशिशों के बावजूद दोनों बहनें कुछ भी सीखने को राजी नहीं।

असल जीवन से उलट फिल्म में पिता का सपना कुश्ती को लेकर कम, देश के लिए मेडल लाने को लेकर अधिक है। एक भौतिक सफलता: जैसा कि अमूमन भारतीय पिताओं का स्वप्न होता है। यही वो पहलू है जहाँ महावीर फोगाट के जीवन संघर्ष को हल्का कर दिया गया है। कुश्ती के लिए, एक कला के लिए, समर्पित इंसान को, व्यवसायिक फायदे के लिए देशभक्ति के चासनी में डुबो दिया गया है। और देशभक्ति की चाशनी जब सबको नजरबन्द कर लेती है तो शुरू होता है: एजेंडा सेटिंग। न खाता न बही, जो पापा बोले वही सही, वाले फॉर्मूले पर फिल्म बढ़ निकलती है। यह परिवार व्यवस्था का सबसे बड़ा हथियार है कि पिता ने जो कह दिया वो सही है। यह फिल्म उन सभी पिताओं को तर्क देती है कि पिता ही बच्चों का भविष्य बनायेगा और इसके लिए हर तरह का शासन सही माना जाएगा।

इस फिल्म में सबसे पहले तो विराट जीवन को 'महान भारतीय परिवार' वाली फॉर्मूला कहानी में बदल दिया गया है और फिर मनमाफिक खलनायक भी चुन लिए गए हैं। जैसे, कोच। गिरीश कुलकर्णी ने उस पतित आदमी के किरदार को जबर्दस्त निभाया है लेकिन उस किरदार के लिखावट/बनावट पर गौर करें तो पाएंगे कि आमिर यानी पिता के चरित्र को मजबूत बनाये रखने ( यानी परिवार ही सही है) के लिए कोच के किरदार को लगातार गलत दर गलत दिखाया गया है। अंततः वह किसी भुनगे की माफिक दीखता है। अच्छे कोच की तो जाने दीजिए, खराब से खराब कोच भी इतने जुगाड़-जतन से अपना पोजिशन बरकरार रखता है कि एक खिलाड़ी के पिता से उसे कोई खतरा हो ही नहीं सकता।

कहानी यों बनाई गयी है कि जहाँ जहाँ गीता ने अपने पिता की बात मानी है, वहाँ वहाँ वो सफल हुई है। और पिता भी अपनी सारी बात देशभक्ति के रसे में भिंगो कर कहता है। देशभक्ति के नाम पर इस फिल्म में अनुशासन को हंसने वाली चीज बना दी गयी है। कुश्ती ही नहीं दुनिया के सारे खेल पर्याप्त लगन और अनुशासन की मांग रखते हैं। फिल्म का इरादा जो भी रहा हो, सन्देश यही देती है फिल्म कि पिता नाम की सत्ता ही आपके अच्छे बुरे का ख्याल रख सकती है।

फिल्म का सर्वश्रेष्ठ हिस्सा है जो पिता और बेटी का द्वन्द दिखाता है, नया बनाम पुराना का आदिम द्वन्द। अंततः यह द्वन्द पिता और पुत्री को आमने सामने कर देता है। अखाड़े में। पिता को यह अखर जाता है कि उसके ही अखाड़े में उसकी ही बेटी नए सीखे दाँव आजमा रही है। वो खुद बेटी को कुश्ती लड़ने की चुनौती देता है, और अभी बेटी तैयार भी नहीं होती है कि उसे उठाकर पिता पटक देता है। बेटी, जो कि खिलाड़ी पहले है और बेटी बाद में, कहती है, पापा मैं तैयार नहीं थी। तब पिता फिर ललकारता है। बेटी तैयारी से लड़ती है और पिता को चित्त कर देती है। यह फिल्म का सर्वाधिक प्रशंसनीय हिस्सा है।

पिता भी खिलाड़ी रहा है, उसका मान सम्मान के लिए लड़ना समझ में आता है। कोई भी लड़ जाएगा। लेकिन ठीक इस दृश्य के बाद फिल्म को रसातल में ले जाने की कवायद लिख दी जाती है। जीतने वाली बेटी को शर्मिन्दा कराया जाता है, पिता की उम्र हो गयी है, वो बड़े हैं, उन्होंने इतना कुछ किया है..मार तमाम..आशय यह कि गीता को अपने पिता को हराना नहीं चाहिए था।

आमने सामने के जोर में हारने के बाद पिता फिर से भारतीय पिता बन जाते हैं। रखवाला, सबसे बड़े ज्ञानी, स्ट्रैटजिस्ट...। कहानी में यह भी लिख दिया गया है कि महावीर यानी आमिर न मौजूद हों तो बेटी एक भी दाव सही लगा ही नहीं सकती। और हर बात में वही तर्क: देश के लिए मैडल लाना है। सोल्जर बोल दिया, आर्गुमेंट ख़त्म। क्योंकि तर्क खत्म हो गए इसलिए कोई नहीं जानना चाहता कि महावीर फोगाट का संघर्ष देश के लिए मैडल लाने से बहुत ऊपर का संघर्ष था, वरना जिस खेल में जिस वर्ष गीता को स्वर्ण पदक मिला, उसी वर्ष अलका तोमर को 59 किलो वर्ग और अनीता श्योराण को 67 किलो वर्ग में स्वर्ण पदक मिला था।

आशय यह कि अगर इस फिल्म को गीता फोगाट और महावीर फोगाट के नाम पर न बेंचा गया होता और हर दूसरा डायलॉग देश के लिए मैडल लाने से सम्बंधित न होता तो यह फिल्म अपने सच्चे रूप में दिखती। लेकिन, ऊपर कहे गए दोनों तथ्यों के जरिए नजरबंदी कर दी गयी है और फिर,पूरी फिल्म एक आदर्श और देवतुल्य पिता पर लिखा निबंध हो कर रह गयी है। भारत के नए पिताओं के लिए यह डूबते तिनके का सहारा बन कर आई है जिसके मार्फ़त वो अपने बच्चों पर धौंस दोगुनी कर सकें। जो पापा बोले वही सही। जो परिवार बोले वही सही। वरना, सोल्जर बोलकर बहस ख़त्म कर दी जायेगी और निर्णय लाद दिए जाएंगे।
लेखक चंदन पाण्डेय वरिष्ठ विश्लेषक हैं। 

Wednesday, December 21, 2016

नतमस्तक मोदक की नाजायज औलादें- 48

प्रश्न: लोग लाइन में खड़े हैं।
उत्तर: देश को आगे बढ़ाने को खड़े हैं
प्रश्न:लाइन में लगकर देश आगे बढ़ता है?
उत्तर: और कैसे बढ़ता है?
प्रश्न: आप बताइए
उत्तर: नहीं, पहले तुम बताओ
प्रश्न: अरे सवाल मेरा है
उत्तर: लाइन में लगे हो?
प्रश्न: हां
उत्तर: आगे बढ़े हो?
प्रश्न: हां
उत्तर: तो भैंचो, जैसे तुम बढ़े, वैसे ही देश भी बढ़ता है
प्रश्न: आगे बढ़कर कहां जाएगा?
उत्तर: मंगल पे जाएगा बेटी-- तुमसे मतलब?
प्रश्न: मुझे भी तो वहीं जाना होगा?
उत्तर: तुमको तो पाकिस्तान भेजेंगे।
प्रश्न: वेनेजुएला में नोटबंदी वापस ले ली।
उत्तर: सही है, तुम भी वहीं चले जाओ।
प्रश्न: मेरी वजह से नहीं ली।
उत्तर: सब मोदी जी का प्रताप है।
प्रश्न: रोज नियम बदल रहे हैं।
उत्तर: तुम रोज पाजामा बदलते हो?
प्रश्न: नियम पाजामा होते हैं?
उत्तर: नियम बदलने के लिए ही होते हैं।
प्रश्न: पहले तो आप तोड़ते थे?
उत्तर: हां तो अब बनाते हैं।
प्रश्न: फिर नियम बदल दिया
उत्तर: फिर से बदल देंगे बे।
प्रश्न: लोग मर रहे हैं।
उत्तर: पहले क्या मरके जिंदा हो रहे थे?
प्रश्न: लाइन में मर रहे हैं।
उत्तर: राशन की लाइन में क्यूं नहीं मर रहे?
प्रश्न: क्या वहां भी मरें?
उत्तर: मंदिर की लाइन में क्यूं नहीं मर रहे?
प्रश्न: वहां भी मरें?
उत्तर: लोग साजिशन मर रहे हैं।
प्रश्न: क्या साजिश है?
उत्तर: लोग मरकर सरकार को बदनाम कर रहे हैं।
प्रश्न: कैसे?
उत्तर: लोग पैसा लेके मर रहे हैं।
प्रश्न: अरे लोग पैसा लेने को ही लाइन में खड़े हैं।
उत्तर: लोग पैसा लेके लाइन में लग रहे हैं।
प्रश्न: वो दूसरी बात है।
उत्तर: कैसे दूसरी बात है बे?
प्रश्न: गांव में पैसा नहीं है।
उत्तर: अच्छी बात है।
प्रश्न: ये अच्छी बात है?
उत्तर: और क्या, पैसा जहां होगा, रार पैदा करेगा।
प्रश्न: रोज के खर्चे के लिए पैसा नहीं है।
उत्तर: गांव में रहने वाले को कौन खर्च?
प्रश्न: खेती में पैसा लगता है।
उत्तर: कौन खेत में पैसा उगा देखे हरामी?
प्रश्न: आप मंगल ग्रह से आए हैं?
उत्तर: नहीं, लेकिन जाने वाले हैं।
प्रश्न: वो कैसे?
उत्तर: देखना, मोदी जी ले जाएंगे
प्रश्न: वहां क्या करेंगे?
उत्तर: हिंदू राष्ट्र बनाएंगे। 

Friday, December 9, 2016

फिल्म 'बिग नथिंग' और सभ्यता का स्खलन

एक छोटी सी निर्बोध बच्ची डालरों के अंबार से एक नोट निकालती है और उसपर, ख़ाली जग़ह पर चित्रकारी करती है! बेखबर है उन डॉलरों की अपार सत्ता और ताकत से! वो है तो उसके लिए खाना है, दूध है, किताब है और पेन है और वो खूबसूरत घर भी जिसमें वो बैठकर डॉलर पर चित्रकारी करती है। फिल्म "BIG NOTHING" का सबसे आखिरी सीन या यूं कहें कि फिल्म का क्लाइमेक्स है। फिल्म के इस अंत से पता चलता है कि निर्देशक, जीन बाप्टिस्ट एंड्रिया ने बच्ची एमिली के नैतिकवान शिक्षक-पिता चार्ली के गहरे अध:पतन की वास्तविक कहानी कह देता है और फिल्म में ईमानदार और बेइमान पुलिस के बीच की टकराहट और उनकी हत्या के साथ क्रूर पूंजीवाद का काला चेहरा दिख जाता है। 2006 में बनी यह फिल्म 2008 का दुनिया की "भयानक पूंजीवादी-आर्थिक-पतन" की भविष्यवाणी कर देती है। बहुत सारे देश आज भी उस आर्थिक मंडी से निक़ल नहीं पाए हैं। भारत का जनगण अपने परंपरागत पेशे-खेती किसानी के बाहुल्य की वजह से अपनी सारी दारुण दिक्कतों के बाद भी जीवित रहता है, लेकिन लोगों की परेशानियां बढ़ती गयी हैं और आज नोटबंदी की वजह से देश का जनगण सच में आर्थिक मंदी का शिकार हुआ है और लोग अपनी रोज़ी खो कर सड़कों पर आ गए हैं।

फिल्म BIG NOTHING के अंदर की विद्रूपता, हिंसा, बेइमानी वास्तविकता के धरातल पर उतरकर इस देश में बढ़ सकती है। फिल्म की एक टीन-एज्ड महिला किरदार ब्लैकमेल कर थैलियम का लिक्विड पिलाती है तो बंगलुरु का रेड्डी कार-ड्राइवर को आत्म-हत्या करने पर मज़बूर किया जाता है। मानवीय सभ्यता का स्खलन। भगत सिंह के शब्दों में, "दुनिया बड़ी तल्ख़ निर्मम है, जीने के लायक नहीं है। इसे जीने लायक बनाने के लिए लड़ना होगा। सरकार इस फिल्म की उस निर्बोध बच्ची की तरह है जिसे ये चिंता नहीं कि डॉलर क्या चीज़ है, लेकिन उसकी सारी ज़रुरत उस घर में मौजूद हो। लेकिन क्या हम अपनी सरकार से ऐसी अपेक्षा रख सकते हैं? सरकार फिल्म मेकर को ऐसी फिल्म बनाने पर रोक न लगाए, क्या ऐसी उम्मीद की जा सकती है? क्योंकि फिल्म तो हमारे समाज की हलचलों के दबाव को लेकर बनती है या कुछ फिल्म ऐसी बनती है जो उस समय तो नहीं घटती लेकिन दो-तीन साल में ऐसी घटना घट जाती है। फिल्म का कथानक समय के समाज से ही पैदा होता है। फिल्म "Big Nothing" बहुत बड़ी फिल्म तो नहीं या बहुत तकनीकी फिल्म भी न हो, लेकिन फिल्म के अंदर मानवीय कुकृत्यों की अविरल प्रवाह में भी एक अच्छी बात कह जाती है कि दुनिया उस निर्बोध बच्ची की तरह होनी चाहिए।

लेखक सत्यप्रकाश गुप्ता फिल्म निर्देशक हैं। 

Friday, December 2, 2016

सरकार बदहवास, समझदारी खल्लास

अब बदहवासी में आने की बारी सरकार की है। नोटबंदी के फैसले के समय प्रधानमंत्री ने कहा था कि काला धन रखने वालों की रातों की नींद हराम हो गई है लेकिन सच बिल्कुल उल्टा निकला। सारे कालाधनधारी आराम से चैन की बांसुरी बजा रहे हैं। उनका पैसा सफेद होकर बैंक पहुंच रहा है और जनता परेशान है। दरअसल सरकार को उम्मीद थी कि इस पूरी कवायद में तकरीबन ढाई से तीन लाख करोड़ काला धन पकड़ लिया जाएगा। फिर उसे सरकार अपनी मर्जी के मुताबिक खर्च कर सकेगी। लेकिन सच यह है कि सारा काला धन सफेद होने के करीब है। राज्यसभा में वित्त राज्य मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने बताया है कि 18 दिनों में 8.50 लाख करोड़ मूल्य की बड़ी नोटें जमा हो चुकी हैं। देश में बैंकों से लेकर बाजार तक 15 लाख 44 हजार मूल्य की कुल बड़ी नोटें हैं। इसमें बैंकों के रिजर्व बैंक में सीआरआर के तौर पर जमा तकरीबन 4 लाख करोड़ रुपये भी शामिल हैं। बाकी बैंकों में भी 70 हजार करोड़ रुपये पहले से मौजूद थे। ऐसे में अभी योजना को करीब एक महीने बचे हैं। जबकि अब बाजार से केवल 2.50 लाख करोड़ रुपये आने शेष हैं। रुपये जमा होने की जो गति है उसमें इन रुपयों के आने को लेकर कोई दुविधा नहीं है। यही वजह है कि सरकार ने आखिरी दौर में फिफ्टी-फिफ्टी की घोषणा कर दी। हालांकि उससे भी बहुत ज्यादा कुछ सरकार के खाते में आते नहीं दिख रहे हैं। ऐसे में आनन-फानन में घोषणा प्रसाद ने एक नई घोषणा कर दी है। जो सोने से संबंधित है। इसके मुताबिक एक शादीशुदा महिला घर में 500 ग्राम सोना रख सकती है। जबकि गैर शादीशुदा 250 ग्राम और एक पुरुष 100 ग्राम सोना रख सकता है। ये कितना कारगर होगा उसके बारे में कुछ कह पाना मुश्किल है। या फिर ये अमीरों के खिलाफ लड़ाई के लिए महज एक कागज की तलवार है। क्योंकि कालेधन का केवल 6-7 फीसदी हिस्सा ही करेंसी नोटों के तौर पर है। सरकार ने पूरे देश को उसके लिए कतार में खड़ा कर दिया है। अब जब मिलने की बारी आ रही है। तो मामला ठन-ठन गोपाल जैसा दिख रहा है।

इस बात से कई नतीजे निकाले जा सकते हैं। सरकार की मंशा कालाधन निकालना नहीं बल्कि उसके खिलाफ लड़ते हुए महज दिखना था। अगर सचमुच सरकार लड़ना चाह रही थी तो सबसे पहले उसे कालाधन के ज्ञात स्रोतों की तरफ ध्यान केंद्रित करना चाहिए था। जिसमें पनामाधारियों से लेकर बड़े घरानों की विदेशों में जमा रकम है। या फिर देश के उद्योगपतियों के ज्ञात स्रोत हैं। उदाहरण के लिए अडानी का 5400 करोड़ रुपया है जिसे उन्होंने मारीशस और मध्यपूर्व चैनेल के रास्ते बाहर भेजा। लेकिन सरकार न तो उनका नाम ले रही है और न ही उन जैसे दूसरों के खिलाफ कार्रवाई का कोई संकेत दे रही है। ऐसे में छोटे और काले धन के अज्ञात स्रोत पर केंद्रित करने का कोई तर्क नहीं बनता था। और यह बात तब और बेमानी हो जाती है जब खुद चौकीदार ही लूट की व्यवस्था का हिस्सा बन जाए। यह सरकार, बैंक और उसके मैनेजरों से लेकर इनकम टैक्स विभाग के कर्मचारियों तक के लिए सच है। और सबने मिलकर कालेधन को ठिकाने पर लगाने में पूरी मदद की है।

यह कुछ उसी तरह की कवायद है जिसे प्रधानमंत्री जी पिछले ढाई सालों में करते रहे हैं। तमाम भाग-दौड़ और व्यस्तता के बाद भी ढाई सालों का नतीजा सिफर है। और अब पूरी जनता को भी उन्होंने अपने ही पायदान पर लाकर खड़ा कर लिया है। जनता की सारी परेशानी के बाद भी देश को कुछ हासिल नहीं हुआ। अलबत्ता 100 से ज्यादा लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ गयी। क्या इसकी सीधी जवाबदेही फैसला लेने वालों की नहीं बनती है? और उनके खिलाफ हत्या का मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए? भले ही ये धाराएं गैरइरादत हत्या की दर्ज की जाएं। लेकिन उसका मामला तो बनता है। देश और दुनिया के इतिहास में भी इस तरह की घटनाएं हुई हैं। जब शासकों को उनकी नीतियों के लिए दोषी ठहराया गया है और उसकी सजा उन्हें भुगतनी पड़ी है।

अगर देश में कानून और संविधान नाम की कोई चीज है तो सरकार के फैसले को जरूर उसकी कसौटी पर कसा जाना चाहिए। किसी भी नोट के मामले में करार रिजर्व बैंक और धारक के बीच होता है। जिसमें यह बात शामिल होती है कि रिजर्व बैंक धारक को उतने रुपये देगा और न देने की स्थिति में उसके बराबर के मूल्य की कोई दूसरी चीज या फिर सोना देगा। रिजर्व बैंक और नोट के धारक के बीच कोई तीसरा नहीं आता है। वह सरकार भी नहीं हो सकती है। ऐसे में रिजर्व बैंक अपने इस शपथ से कैसे पीछे हट सकता है। और अगर वह इस भूमिका में नहीं खड़ा हो पाया तो ये उसकी नाकामी है। और इस नाकामी की सजा बनती है। जिसे जरूर देश की सर्वोच्च अदालत और सबसे बड़ी संस्था संसद को संज्ञान लेना चाहिए।

लेखक महेंद्र मिश्र लंबे समय से जन अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं। 

Sunday, November 27, 2016

सोनम गुप्ता बेवफा नहीं है

पहली बार किसी ने दस रूपए के नोट पर लिखा होगा, सोनम गुप्ता बेवफा है, तब क्या घटित हुआ होगा? क्या नियति से आशिक, मिजाज से आविष्कारक कोई लड़का ठुकराया गया होगा, उसने डंक से तिलमिलाते हुए सोनम को बदनाम करने की गरज से उसे सरेबाजार ला दिया होगा. या वह सिर्फ फरियाद करना चाहता था, किसी और से कर लेना लेकिन इस सोनम से दिल न लगाना.

क्या पता सोनम को कुछ खबर ही न हो, वह सड़क की पटरी पर मुंह फाड़ कर गोलगप्पे खा रही हो, जिंदगी में तीसरी बार लिपिस्टिक लगाकर होठों को किसी गाने में सुने होंठों जैसा महसूस रही हो, अपनी भाभी के सैंडिलों में खुद को आजमा रही हो और तभी वह लड़के को ऐसी स्वप्न सुंदरी लगी हो जिसे कभी पाया नहीं जा सकता. लड़के ने चाहा हो कि उसे अभी के अभी दिल टूटने का दर्द हो, वह एक क्षण में वो जी ले जिसे जीने में प्रेमियों को पूरी जिंदगी लगती है, उसने किसी को तड़प कर बेवफा कहना चाहा हो और नतीजे में ऐसा हो गया हो. यह भी तो हो सकता है कि किसी चिबिल्ली लड़की ने ही अपनी सहेली सोनम से कट्टी करने के बाद उसे नोट पर उतार कर राहत पाई हो.

जो भी हुआ हो लेकिन वह वैसा ही आविष्कारक था या थी जैसा समुद्र से आती हवा को अपने सीने पर आंख बंद करके महसूस करने वाला वो मछुआरा या मुसाफिर रहा होगा जिसे पहली बार नाव में पाल लगाने का इल्हाम हुआ होगा. या वह आदमी जिसने इस खतरनाक और असुरक्षित दुनिया में बिल्कुल पहली बार अभय मुद्रा में कहा होगा, ईश्वर सर्वशक्तिमान है. उसने नोट के हजारों आंखों से होते हुए अनजान ठिकानों पर जाने में छिपी परिस्थितिजन्य ताकत को शायद महसूस किया होगा, वो भी ऐसे वक्त में जब हर नोट को बड़े गौर से देखा जा रहा है, उसके बारे में आपका नजरिया आपको देशभक्त, कालाधनप्रेमी या स्यूडोसेकुलर कुछ भी बना सकता है.
नोटबंदी के चौकन्ने समय में सोनम गुप्ता सारी दुनिया में पहुंच गई, उसके साथ वही हुआ जो सूक्तियों के साथ हुआ करता है. वे पढ़ने-सुनने वाले की स्मृति, पूर्वाग्रहों, वंचनाओं और कुंठाओं के साथ घुलमिल कर बिल्कुल अलग कल्पनातीत अर्थ पा जाती हैं. यह रहस्यमय प्रक्रिया है जिसके अंत में किसी स्कूल या रेलवे स्टेशन की दीवार पर लिखा “अच्छे नागरिक बनिए” जातिवाद के जहर के असर में झूमते समाज में जरा सा स्वाराघात बदल जाने से प्रेरित करने के बजाय कहीं और निशाना लगाने लगता है. सबसे लद्धड़ प्रतिक्रियाएं सरसों के तेल के झार की तासीर वाली नारीवादियों की तरफ से आईं जिन्होंने कहा, सोनू सिंह या संदीप रस्तोगी क्यों नहीं? उन्हें सोनम गुप्ता नाम की लड़कियों की हिफाजत की चिंता सताने लगी जिन्हें सिर्फ इसी एक कारण से छेड़ा जाने वाला था और यह भी कि हमेशा औरत ही बेवफा क्यों कही जाए. हमेशा घायल होने को आतुर इस ब्रांड के नारीवाद को अंजाम चाहे जो हो, “सपोज दैट” में भी मर्द से बराबरी चाहिए. जूते के हिसाब से पैर काटने की जिद के कारण वे अपनी सोनम को जरा भी नहीं पहचान पाईं.

इन दिनों देश में पाले बहुत साफ खिंच चुके हैं और एक बड़े गृहयुद्ध से पहले की छोटी झड़पों से आवेशित गर्जना और हुंकारें सुनाई दे रही हैं. एक तरफ आरएसएस की उग्र मुसलमान विरोधी विचारधारा और प्रधानमंत्री मोदी की व्यक्तिपूजा की केमिस्ट्री से पैदा हुए भक्त हैं जो बैंकों के सामने लगी बदहवास कतारों में से छिटक कर गिरने वालों की बेजान देह समेत हर चीज को देशभक्ति और देशद्रोह के पलड़ों में तौल रहे हैं. दूसरी तरफ मामूली लोग हैं जिनके पास कुछ ऐसा भुरभुरा और मार्मिक है जिसे बचाने के लिए वे उलझना कल पर टाल देते हैं. भक्त सरकार के कामकाज को आंकने, फैसला लेने का अधिकार छीनकर अपना चश्मा पहना देना चाहते हैं जो इनकार करे गद्दार हो जाता है. हर नुक्कड़ पर दिखाई दे रहा है, अक्सर दोनों पक्षों के बीच एक तनावग्रस्त, असहनीय चुप्पी छा जाती है. तभी सोनम गुप्ता प्रकट होती है जो लगभग मर चुकी बातचीत को एक साझा हंसी से जिला देती है. सोनम गुप्ता उस युद्ध को टाल रही है. उसकी वेवफाई से अनायास भड़कने वाली जो हंसी है उसमें कोई रजामंदी और खुशी तो कतई नहीं है. सब अपने अपने कारणों से हंसते हैं.

लेखक अनि‍ल कुमार यादव वरि‍ष्‍ठ पत्रकार हैं। 

Monday, November 21, 2016

लोग मर रहे थे, पीएम भाषण कर रहे थे

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता है- 

यदि तुम्हारे घर के/ 
एक कमरे में आग लगी हो/ 
तो क्या तुम/ 
दूसरे कमरे में सो सकते हो? 
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में लाशें सड़ रहीं हों/ 
तो क्या तुम/ 
दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?

कल आगरा में रैली करके प्रधानमंत्री ने इसका जवाब दे दिया। उन्होंने देश को बता दिया कि ऐसे मौके पर सोना और प्रार्थना ही नहीं बल्कि अट्टहास किया जा सकता है। वैसे कहने को तो हमारे प्रधानमंत्री को कार के नीचे पिल्ले के आने से भी दर्द होता है, लेकिन जब गाड़ी के नीचे 130 लोग आ जाते हैं तो साहेब की संवेदना घास चरने चली जाती है। देश का शीर्ष नेतृत्व अगर इतना संवेदनहीन है तो इसके लिए उसको नहीं बल्कि हमें अपने बारे में सोचना चाहिए। आख़िरकार हम ऐसे नेतृत्व को कैसे चुन सकते हैं?

दरअसल मोदी जी इन्हीं तरह की स्थितियों के लिए देश को तैयार कर रहे हैं। उन्हें पता है कि जिस तरह की नीतियों को वो आगे बढ़ा रहे हैं उसके नतीजे बेहद खतरनाक होने जा रहे हैं। इसके चलते  देश और समाज में अराजकता फ़ैल सकती है। लिहाजा उसकी तैयारी बहुत जरूरी हो जाती है। आगरा रैली उसका पूर्वाभ्यास है। इस रैली के जरिये पीएम ने न केवल अपनी संवेदनहीनता दिखाई है बल्कि आगरा समेत देश की जनता को भी संवेदनहीन होने के लिए मजबूर किया है। आगरा के लोग अगर कुछ सौ किमी की दूरी पर स्थित कानपुर के लोगों के दर्द को नहीं महसूस कर सकेंगे, तो कल को आप के दर्द को कौन महसूस करेगा? इस हादसे में तो वैसे भी कितने लोग आगरा के आसपास के ही होंगे, लेकिन यह प्रधानमंत्री का दुस्साहस ही कहा जाएगा कि जब आगरा के आसपास के घरों में मौत का मातम पसरा है तो वो मंच से राजनीतिक भाषण दे रहे थे।

ऊपर से घाव पर नमक छिड़कने का काम रेल मंत्री प्रभु ने किया। वैसे तो वो मदद करने गए थे, लेकिन 500 और 1000 के पुराने नोटों के जरिये आफत दे आये। कोई उनसे पूछे कि यह नोट जब अवैध हो गई है तो सरकार कैसे उसको किसी नागरिक को दे सकती है और उनके चलने का हाल तो पूरा देश देख रहा है। ऐसे में घायलों को जहां तत्काल जरूरत है उनके साथ रेल मंत्री का यह रवैया किसी क्रूर मजाक से कम नहीं है। दरअसल सरकार भी जनता को कीड़े मकोड़ों की तरह ही देखती है और जानती है कि उसे किसी भी तरीके से हांका जा सकता है। हमारी सहने की क्षमता का तो अंदाजा लगाना भी मुश्किल है।

इस मामले से एक दूसरा सवाल भी खड़ा हो जाता है। आखिर जिस जनता के नाम पर ये पूरा निजाम खड़ा हुआ है, उसमें उसकी कितनी कीमत है? कहने को तो हमारे देश में हाथी मार्का लोकतंत्र है, लेकिन उसमें जनता की हैसियत चींटी के बराबर भी नहीं है। यही हाल किसी कुदरती आपदा में सैकड़ों-हजारों लोगों के मरने के बाद भी होता है। शोक में अवकाश और झंडा झुकाने की बात तो दूर संसद में दो मिनट का मौन भी नहीं रखा जाता है। वहीं अगर कोई नेता मर जाए तो सात-सात दिन का शोक और उतने ही दिन झंडा झुका दिया जाता है। फिर तो सरकार को जरूर इस बात को बताना चाहिए कि आखिर कितनी लाशें गिनने के बाद वो शोक मनाएगी? अगर ऐसा नहीं हो रहा है तो दो सेकेंड के लिये ही सही हमें जरूर अपने और अपनी हैसियत के बारे में विचार करना चाहिए।
लेखक महेंद्र मिश्र लंबे समय से जन अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं। 

Tuesday, November 15, 2016

बड़े नेताओं का भला क्या बिगाड़ लेगी मोदी की नोटबंदी?

बीजेपी अध्यक्ष श्री अमित शाह ने हाल में यूपी के दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों के शीर्ष नेताओं का नाम लेकर कहा है कि बड़े नोटों की बंदी से मुलायम सिंह और मायावती की हालत खराब हो गई है। यूपी में चुनावी माहौल चल रहा है। ऐसे में नेता विरोधी पार्टियों के विरुद्ध और एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी करेंगे ही। लेकिन स्वयं प्रधानमंत्री अपनी सरकार की जिस पहल को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए इतनी महत्वपूर्ण बता रहे हैं कि इसके पक्ष में खड़े होने के लिए उन्हें रोते हुए जनता से 50 दिन तक सारी तकलीफें बर्दाश्त कर लेने की अपील करनी पड़ रही है, उसका इस्तेमाल उन्हीं की पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा संकीर्ण राजनीतिक लड़ाइयों के लिए करना थोड़ा अटपटा लग रहा है।

चलिए, नोटबंदी को लेकर मुलायम सिंह और मायावती के अतिशय कष्ट को देखते हुए मैं उनको एक तरफ कर देता हूं, और थोड़ी देर के लिए उनकी जगह खुद को रख देता हूं। मैं एक मान्यताप्राप्त पार्टी का मुखिया हूं और मेरे पास 200 करोड़ रुपये 1000 और 500 रुपये के नोटों की शक्ल में मौजूद हैं। ये रुपये मैं दस-दस करोड़ करके विभिन्न बैंकों में जमा कराने ले जाता हूं। वहां बैंककर्मी मुझसे साफ कहते हैं कि इस रकम में से ढाई लाख रुपया तो वे साफ जमा कर लेंगे, लेकिन बाकी की रकम आपकी तभी जमा हो पाएगी, जब आप इसका स्रोत बताएंगे। अन्यथा इस रकम पर आपको 30 प्रतिशत टैक्स देना होगा और टैक्सेबल रकम पर 200 प्रतिशत की पेनाल्टी अलग से देनी पड़ेगी।

अब, उनके इस सवाल के सामने मैं क्या करूंगा? क्या चीख-चिल्लाकर अपनी बेचैनी जताऊंगा, वहीं बैंक में खड़ा होकर भरी भीड़ में सिर पीट-पीट कर रोऊंगा? बिल्कुल नहीं। अगर मैं एक सीजन्ड राजनेता हूं तो तार्किक रुख अपनाते हुए अपने पक्ष में मौजूद कानूनी व्यवस्था का उपयोग करूंगा। व्यवस्था यह कि राजनीतिक दलों के लिए 20 हजार रुपये से कम मात्रा में दिए गए चंदों की रसीद दिखाना, दूसरे शब्दों में कहें तो इस तरह हुई समूची आय का स्रोत बताना जरूरी नहीं है।

लंबे अर्से से सूचना आयोग राजनीतिक दलों से अपनी आय को आरटीआई के तहत लाने की अपील कर रहा है, लेकिन बीजेपी और कांग्रेस समेत देश की कोई भी पार्टी इसके लिए तैयार नहीं है। और तो और, कोई भी दल अपना ऑडिट तक सार्वजनिक नहीं करता। राष्ट्रीय पार्टियां अपनी जितनी आय को टैक्सेबल बताती हैं, उतने से तो वे एक मंझोले स्तर के राज्य का भी चुनाव नहीं लड़ सकतीं। मेरी बात को लेकर जिस भी मित्र के मन में संदेह हो, वह किसी भी पार्टी के भीतरी स्रोतों से यह पता लगाकर बताए कि वित्त वर्ष 2015-16 में उसने कितना टैक्स चुकाया था। मुझे बीजेपी के बारे में पता है कि उसने पिछले साल अपनी सालाना राष्ट्रीय आय साढ़े चार सौ करोड़ के आसपास दिखाई थी। इतने पैसों में वह सिर्फ यूपी का चुनाव लड़कर दिखा दे!

बहरहाल, मैं शुरू में ही स्वयं को एक राजनीतिक दल के मुखिया के रूप में प्रस्तुत कर चुका हूं, लिहाजा मैं, या मेरी तरफ से मेरा सीए बैंक के प्रतिनिधि से कह सकता है- चलिए, आज नहीं तो कुछ दिन बाद पक्का कहेगा- कि पांच सौ और एक हजार के नोटों की शक्ल में मेरे पास मौजूद यह दो सौ करोड़ रुपया मेरी पार्टी की जायज स्रोतों से अर्जित की गई संपत्ति है, जिसे इसके गरीब समर्थकों ने रुपया-दो रुपया चंदा देकर जमा किया है। कुछ लोगों को शायद याद हो कि आय से अधिक संपत्ति के मामले में यूपी के उपरोक्त दोनों नेताओं द्वारा यह दलील अदालत में पहले ही दी जा चुकी है और अदालत दोनों को सारे आरोपों से बाइज्जत बरी भी कर चुकी है।
इस लिए राजनेताओं के पास मौजूद काले धन को लेकर आप न तो अपनी रातें बर्बाद करें, न ही उनकी बर्बादी को लेकर चुनावी मंचों से सार्वजनिक जश्न मनाएं। इत्मीनान रखें महोदय, आपकी नोटबंदी से न तो तिजोरियों में तहें लगाकर रखे गए उनके पैसों का कुछ बिगड़ने वाला है, न ही आपके। हां, व्यक्तिगत रूप से जिन उम्मीदवारों ने चुनाव में करोड़ों अलग से खर्च करने का मन बना रखा था, उन्हें अब यह काम विकेंद्रित रूप से करना होगा। खासकर यूपी को लेकर तो पक्की सूचना है कि वे यह काम शुरू भी कर चुके हैं।

कुछ लोगों का कहना है कि अन्य क्षेत्रों में- मसलन भ्रष्ट अफसरों और व्यापारियों के पास- मौजूद नकदी काला पैसा भी बड़ी पार्टियों के शीर्ष राजनेताओं के पास पहुंचने लगा है, जो अपना (या अपनी पार्टी का) कमीशन काट कर देर-सबेर इसे बैंकों में जमा करने का इंतजाम कर देंगे। तो, जैसा मैं कह चुका हूं कि मैं एक मान्यताप्राप्त राजनीतिक दल का प्रमुख नेता हूं, और आज की रात चैन से सोने के लिए नींद की दवा खाने की फिलहाल मुझे कोई जरूरत नहीं महसूस हो रही है।

लेखक चंद्रभूषण एनबीटी एडिट पेज के संपादक हैं। 

Friday, November 11, 2016

अमेरिकी जनता की बौद्धिक समझ का आइना हैं डॉनल्ड ट्रंप

कई सभ्यताओं के पतन की कहानियां इतिहास में दर्ज हैं, लेकिन एक बड़े साम्राज्य को हम अपनी आंखों के सामने ढहते देख रहे हैं। हालांकि यह अभी आखिरी वाक्य नहीं है। अमेरिकी जनता ने एक ऐसा राष्ट्रपति चुना है जो अपने पूरे चरित्र में लंपट है। जिसकी महिलाओं के साथ छेड़खानी की कहानियां हैं, पोर्न स्टार्स से रिश्ते हैं। जो धुर मुस्लिम विरोधी होने के साथ अप्रवासियों के खिलाफ है। काले जिसको फूटी आंख नहीं सुहाते, अफ्रीकी-अमेरिकी उसे एक पल के लिए भी बर्दाश्त नहीं। वो देश में फिर से गोरों की सत्ता का ख्वाहिशमंद है। सरकारी प्रशासन के संचालन का जिसे एक दिन का अनुभव नहीं है। दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र की यह नई असलियत है, जो खुद में बहुत भयावह है। 250 साल के पूंजीवादी लोकतंत्र का अगर यही जमा हासिल है, तो इस पर फिर से विचार की जरूरत है। यह शायद पहला अमेरिकी चुनाव हो जिसमें नतीजों की घोषणा के बाद ही लाखों लोग सड़कों पर उतर आए हों। सब एक सुर में बोल रहे हों कि ट्रंप उनके राष्ट्रपति नहीं हैं। यह अभूतपूर्व स्थिति है।

ट्रंप के चयन के जरिये अमेरिकी समाज की वास्तविक तस्वीर भी सामने आ गई है। कहा जाता है कि नेतृत्व कुछ और नहीं बल्कि जनता की सोच, समझ और उसके बौद्धिक स्तर का आईना होता है। यह एक दूसरे तरीके से अमेरिकी पूंजीवादी समाज के पतन की कहानी भी बता रहा है। यह बताता है कि अमेरिकी समाज का बड़ा हिस्सा पतित हो गया है। उसके जीवन में विचारों, मूल्यों और सिद्धांतों के लिए अब कोई जगह नहीं बची है। मुनाफे के बाजार में पला बढ़ा उपभोक्ता अब सामान का हिस्सा बन चुका है। उसमें किसी मानवीय सोच और संवेदना के लिए जगह तलाशना बेमानी है।

दरअसल अमेरिकी अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजर रही है, ट्रंप उसी की पैदाइश हैं। जब तक पूरी दुनिया में अमेरिकी लूट का कारोबार चलता रहा, पूंजी का निर्बाध प्रवाह उसके मक्का की ओर बना रहा, इस लूट में जनता की हिस्सेदारी चलती रही, तब तक कोई समस्या नहीं दिखी। लेकिन जैसे ही इसमें अड़चन आयी, प्रक्रिया बाधित होती दिखी, समस्याओं का अंबार आ गया। अमेरिका 2008 की मंदी से अभी तक नहीं उबर सका है। ऊपर से चीन की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़त और बाजारों पर कब्जे ने उसके सामने नई परेशानी खड़ी कर दी है। मध्यपूर्व में दखल और युद्धों में उसकी शिरकत ने फायदा कम नुकसान ज्यादा पहुंचाया। पूंजी के मद में भले ही कुछ फायदा हुआ हो लेकिन इसने जन हानि और आतंकवाद के तौर पर नई समस्याएं दे दी।

घरों में आर्थिक संकट होता है तो पारिवारिक झगड़े बढ़ जाते हैं। यही अमेरिका में हुआ। संसाधन सीमित होते जा रहे हैं। और उसमें हिस्सेदारी के लिए होड़ बढ़ती जा रही है। ऐसे में एक पक्ष को असली दावेदार करार देकर दूसरे पक्ष के एक हिस्से को अवैध ठहराने और दूसरे को बाहर निकालने और तीसरे को शंट करने की राजनीति शुरू हो गई। ट्रंप ने इसी राजनीति को सुर दिया। जब उन्होंने स्थानीय गोरों का संसाधनों पर पहला हक बताया। इस कड़ी में उन्होंने मुसलमानों से लेकर अप्रवासियों और अफ्रीकी-अमेरिकियों को बाहरी करार देने के साथ ही उन्हें सारी समस्याओं के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया। पूरी दुनिया का ठेका नहीं लेने का उनका  बयान इसी का विस्तार है। फिर इसको बढ़ाते हुए उन्होंने एक प्रक्रिया में दुनिया के पैमाने पर अपने फौजी अड्डों वाले देशों से उसकी कीमत वसूलने का ऐलान किया। उनके इस पूरे आक्रामक प्रचार में समस्या को हल करने का एक रास्ता दिखा। यह अपने तरीके से एक दृष्टि का भी निर्माण करता था। यह बेवजह नहीं है कि ट्रंप के वोटरों में गोरे अमेरिकी, कम शिक्षित, वर्किंग क्लास, सब अर्बन क्षेत्रों के लोगों के साथ पुरुषों समेत धनाड्य विरोधी जेहनियत वाले तबकों का बहुमत है।

दूसरी तरफ हिलेरी क्लिंटन के साथ महिलाएं, उच्चशिक्षित अभिजात तबका तथा भारतीय और अफ्रीकी-अमेरिकियों समेत उच्चवर्गों का बड़ा हिस्सा था। लेकिन उनके पास समस्याओं को हल करने का कोई विजन नहीं था। डेमोक्रैटिक पार्टी के लगातार सत्ता में बने रहने और ओबामा के लोगों की आकांक्षाओं को पूरा न कर पाने का ठीकरा भी क्लिंटन के सिर फूटा है। ऊपर से आईएसआईएस को फंडिंग से लेकर उसे खड़ा करने में क्लिंटन की हिस्सेदारी का खुलासा ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ। इस मामले में रूसी राष्ट्रपति पुतिन की भूमिका बेहद संदिग्ध मानी जा रही है। कहा जा रहा है कि पुतिन अमेरिका में ट्रंप को देखना चाहते थे। और इस लिहाज से उन्हें हर संभव सहायता दे रहे थे। रूसी हैकरों के जरिये विकीलीक्स के माध्यम से क्लिंटन के ईमेल का खुलासा इसी का हिस्सा था। रूसी विदेश उपमंत्री ने भी ट्रंप की टीम से संपर्क में रहने की बात मानी है। दरअसल पुतिन को लग रहा है कि ट्रंप के आने पर सीरिया में उनका मिशन आसान हो जाएगा। चाहकर भी ट्रंप आईएसआईएस के साथ नहीं जा पाएंगे। क्योंकि उन्होंने अपना पूरा चुनाव ही उसी के खिलाफ लड़ा है। नाटो मंच के खिलाफ ट्रंप पहले ही बोल चुके हैं। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका का दखल कुछ कमजोर होने की आशंका है। और रूस से बाहर पांव पसारने के लिए बेताब पुतिन के लिए इससे बेहतर मौका दूसरा नहीं हो सकता है।

बहरहाल आने वाले तीन-चार साल पूरी दुनिया के लिए बेहद उथल-पुथल और अनिश्चितता भरे होने वाले हैं। अंतरराष्ट्रीय राजनीति किस करवट बैठेगी कुछ कह पाना मुश्किल है। कुछ ऐसी चीजें हो सकती हैं जिनके बारे में किसी ने कभी सोचा भी नहीं हो। अनायास नहीं अमेरिकी न्यूक्लियर बमों की कमान संभालने वाले एक पूर्व कर्मचारी ने ट्रंप की दिमागी अनिश्चितता को देखकर उन्हें वोट न देने की अपील की थी। फिलहाल अब जब उन्हें चुन लिया गया है। और उनका ह्वाइट हाउस पहुंचना तय है। ऐसे में वह खतरा दुनिया के बिल्कुल सामने है। यह ट्रंप के राष्ट्रपति की कुर्सी पर रहने तक बना रहेगा। इस कड़ी मंा देखना होगा कि अमेरिका खुद को कितना बचा पाएगा और कितनी अपनी समस्याएं हल कर पाएगा। या फिर वैश्विक साम्राज्यवाद के सूरज के अब ढलने के दिन आ गए हैं?

लेखक महेंद्र मिश्र लंबे समय से जन अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं। 

Thursday, November 10, 2016

नतमस्‍तक मोदक की नाजायज औलादें- 47

प्रश्‍न- दो हजार का छुट्टा है?
उत्‍तर- तुम्‍हरे पास दो हजार कहां से आया बे?
प्रश्‍न- अभी एटीएम से नि‍काले!
उत्‍तर- तुम्‍हरे पास एटीएम कहां से आया बे?
प्रश्‍न- दफ्तर से मि‍ला है!!
उत्‍तर- दफ्तर वाले तुमको घूस देते हैं?
प्रश्‍न- नहीं, तनख्‍वाह देते हैं!
उत्‍तर- चल भो** के!! तनख्‍वाह वालों के पास दो हजार नहीं रहता!!
प्रश्‍न- अब नहीं रहेगा, छुट्टा दे दीजि‍ए.
उत्‍तर- झां** ले लो हमारी!!
प्रश्‍न- वो आप रखि‍ए, छुट्टा दीजि‍ए, कि‍सी को देना है..
उत्‍तर- उसे भी वही दे देना!!
प्रश्‍न- आपकी झां*** से मुझे दवा नहीं मि‍लेगी!!
उत्‍तर- बेटा हमारा एक एक बाल दो हजार का नोट है!!
प्रश्‍न- आपने कैंप नहीं लगाया?
उत्‍तर- कि‍स चीज का बे?
प्रश्‍न- छुट्टा बांटने का?
उत्‍तर- वामपंथी समझे हो का?
प्रश्‍न- छुट्टा तो वो भी नहीं बांट रहे!
उत्‍तर- चीन से लात खाए होंगे साले!
प्रश्‍न- धुंआ हुआ तो आपने मास्‍क बांटने के कैंप लगाए!
उत्‍तर- अबे नोट धुंआ नहीं होता है बे!!
प्रश्‍न- धुंआ तो कर दि‍या ना??
उत्‍तर- क्‍या धुंआ कर दि‍या?
प्रश्‍न- पांच सौ और हजार के नोट?
उत्‍तर- वो तो काला धन था अकल के ढक्‍कन!!
प्रश्‍न- सारा काला धन था?
उत्‍तर- तो?
प्रश्‍न- सारा काला धन रुपयों में था?
उत्‍तर- ई लाल चश्‍मा उतारो!
प्रश्‍न- बताइए ना?
उत्‍तर- ना, पहि‍ले तुम ई लाल चश्‍मा उतारो!!
प्रश्‍न- मेरे चश्‍मे में कोई रंग नहीं है!
उत्‍तर- तभी तुमको काला धन नहीं दि‍खता!
प्रश्‍न- मतलब सारा काला धन रुपये में था?
उत्‍तर- नहीं गां*** साले, मेरी झां*** में था!!
प्रश्‍न- अब क्‍या होगा?
उत्‍तर- सफाई
प्रश्‍न- सफाई के बाद क्‍या होगा?
उत्‍तर- नए नोट आएंगे!
प्रश्‍न- नए नोट काले नहीं होंगे?
उत्‍तर- दि‍खाओ ससुर नया नोट
प्रश्‍न- नए नोट में गलती भी है
उत्‍तर- गलती तो तुम हो भो** के
प्रश्‍न- नए नोट में एक गलती रह गई
उत्‍तर- भगवान तुमको एकदम सही से बना के भेजे हैं?
प्रश्‍न- अब जैसा भी बनाके भेजे हैं
उत्‍तर- तुममें कोई गलती नहीं?
प्रश्‍न- मुझमें हैं, लेकि‍न मैं सही कर लेता हूं.
उत्‍तर- तो 2000 वाले में भी हो जाएगी!
प्रश्‍न- लेकि‍न नोट में कैसे?
उत्‍तर- उसकी लीला...
प्रश्‍न- उसकी कि‍सकी?
उत्‍तर- भो*** के, कि‍सका राज है बे?
प्रश्‍न- फुटकर तो दे दीजि‍ए!
उत्‍तर- रोज सुबे श्रीराममंदि‍र आरती सुना करो
प्रश्‍न- धुंए की दवा लेनी है, गला चोक है..
उत्‍तर- चोक है तो हरामी आरती सुनो!!
प्रश्‍न- मुझे बोलना पड़ता है, पूछने के लि‍ए..
उत्‍तर- तुमको बोलने को कौन बोला?
प्रश्‍न- पूछने के लि‍ए बोलना पड़ता है..
उत्‍तर- तुमको पूछने के लि‍ए कौन पूछा?
प्रश्‍न- हमारा काम है..
उत्‍तर- हम बताएं हमारा क्‍या काम है?
प्रश्‍न- फुटकर तो दे दीजि‍ए!!
उत्‍तर- हमसे भी जान लो हमारा काम!!
प्रश्‍न- बाद में, अभी दवा लेनी है..
उत्‍तर- 1950 देंगे.
प्रश्‍न- क्‍यों?
उत्‍तर- 50 रुपया नोट बदलवाई!
प्रश्‍न- ये धंधा कब शुरू कि‍ए?
उत्‍तर- हमारे यहां ऊपर से नीचे तक ध्‍यान रखा जाता है.
प्रश्‍न- 50 रुपए हर पांच सौ पर नीचे वाले को?
उत्‍तर- सरकार है हमारी, कमीशन है.
प्रश्‍न- तो ये योजना थी?
उत्‍तर- पोंटी हर क्‍वार्टर पर कमाए, हम एक ठो नोट पे भी ना कमाएं??
प्रश्‍न- नहीं, बि‍लकुल कमाइए, आपका राज है।

Tuesday, November 8, 2016

BAN ON MEDIA: बिलकुल लोमड़ी की तरह काम कर रही मोदी सरकार

हर सरकार की अपनी एक भाषा होती है। कोई बल की भाषा में विश्वास करती है तो कोई बुद्धि की। और कोई सरकार अपनी अलग ही भाषा विकसित कर लेती है। मौजूदा मोदी सरकार बल की भाषा ही जानती है और उसी में विश्वास करती है और उसी भाषा में बात करती है। देश के गृहमंत्री ने कल ही इसकी ताजा नजीर पेश की है। जब कैराना में उन्होंने 'किसने अपनी मां का दूध पिया है' जैसी भाषा का इस्तेमाल किया। इसके पहले प्रधानमंत्री 56 इंच सीने की बात कर ही चुके हैं। इस तरह के डायलाग हम अभी तक धर्मेंद्र की फिल्मों में ही सुना करते थे। अब राजनीति में बीजेपी नेताओं के मुंह से सुन रहे हैं।

सरकार का शीर्ष नेतृत्व अगर इस तरह की भाषा में बात करेगा, तो नीचे कार्यकर्ताओं और भक्तों की भाषा का स्तर क्या होगा? इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। यह मूलतः ताकत की भाषा है और स्टेट की ताकत मिलने के बाद यह और भी ज्यादा अहंकारी और बलशाली हो जाती है। लेकिन इस भाषा की एक खासियत है। अपने से बड़ी ताकत के सामने यह तुरंत नतमस्तक हो जाती है। एनडीटीवी मसले पर भी यही हुआ। सरकार को अपनी ताकत से बड़ी ताकत सामने उभरती दिखी। उसे लग गया कि अब उसकी छीछालेदर होनी तय है। क्योंकि पूरी प्रेस बिरादरी एकजुट है और सुप्रीम कोर्ट से कोई बड़ा कोड़ा पड़ सकता है। प्रेस क्लब में पत्रकारों की कल हुई बैठक ने तस्वीर साफ कर दी थी। चंद चमचों और भक्त पत्रकारों को छोड़कर पत्रकारों के बड़े हिस्से ने इसमें शिरकत की। खुदा न खास्ता सुप्रीम कोर्ट अगर आगे के लिए कोई दिशा निर्देश जारी कर देता तो सरकार के भविष्य के मंसूबों पर पानी फिर जाता। इसलिए उसने तत्काल अपने कदम पीछे खींच लिए और चैनेल पर एकदिनी पाबंदी के फैसले को स्थगित कर दिया।

लेकिन इससे सवाल खत्म नहीं होते, बल्कि चिंता और गहरी हो जाती है। अगर सरकार इस नतीजे पर पहुंची थी कि राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा पहुंचा है और उसके लिए सजा मिलनी चाहिए, तो वह इस मुद्दे पर कैसे पीछे हट सकती है? उसे अपने फैसले पर अडिग रहना चाहिए था। अगर ऐसा नहीं हुआ तो कहने का मतलब है कि राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा उसके लिए महज एक ढोंग है। क्या राष्ट्रीय सुरक्षा ऐसी चीज है जिससे समझौता किया जा सकता है? या फिर यह सरकार के हाथ का खिलौना है जिससे कभी भी खेला जा सकता है और एनडीटीवी पर पाबंदी भी उसी खेल का हिस्सा है।

अगर सचमुच में मोदी सरकार यह मानती है कि राष्ट्रीय सुरक्षा दांव पर लगी थी तो फिर वह कैसे उससे समझौता कर सकती है? लेकिन अगर बात-बात सुरक्षा के नाम पर उसका इस्तेमाल हो रहा हो, फिर तो जरूर दाल में कुछ काला है। वैसे भी जिस पार्टी का एक पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष 1 लाख रुपये में बिका हो, जिस पार्टी का मौजूदा राष्ट्रीय अध्यक्ष कानूनन तड़ीपार हो, जिस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व पर नरसंहार के दाग हों, कम से कम उसे राष्ट्रवाद की परिभाषा तय करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। जो खुद को बार-बार एक खास तबके और खास हिस्से की सरकार के तौर पेश करने से परहेज नहीं करता हो, उससे किसी निरपेक्षता की आशा भी नहीं की जा सकती है। गृहमंत्री राजनाथ सिंह का कल का कैराना का बयान इसकी ताजी नजीर है।

लेकिन खतरा अभी टला नहीं है। कहा जा सकता है कि पहले दौर की जोर-आजमाइश में सरकार को मात खानी पड़ी है, लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं कि सरकार ने पहलवानी छोड़ दी है, या फिर उसकी भाषा बदल गई है। यह सरकार बिल्कुल लोमड़ी की तरह काम करती है। उसका एजेंडा साफ है। उसे विरोध की कोई आवाज बर्दाश्त नहीं। आज नहीं तो कल वह उसको बंद करने की कोशिश करेगी। मीडिया के एक बड़े हिस्से को उसने अपने काबू में कर लिया है। बाकियों को अलग-अलग तरीके से अपने कब्जे में लेने की कोशिश कर रही है। यहां तक कि एनडीटीवी भी समझौते की राह पर बढ़ गया था। पी चिदंबरम के इंटरव्यू का प्रसारण नहीं करना उसी का हिस्सा था। पिछले दिनों तमाम खबरों की प्रस्तुति में भी इसकी झलक मिल रही थी।

दरअसल एनडीटीवी का मैनेजमेंट कई मामलों में फंसा है जिनको सरकार हथियार बनाकर उसकी घेरेबंदी कर रही है। आज नहीं तो कल शायद वह एनडीटीवी के खिलाफ अपने मंसूबों में सफल हो जाएगी। इसलिए प्रेस और पत्रकार बिरादरी को भविष्य में इस तरह के किसी भी खतरे के लिए तैयार रहना चाहिए। ऐसे में किसी एनडीटीवी और संस्थान की जगह पत्रकारों को खुद अपनी ताकत पर भरोसा करना होगा। क्योंकि प्रेस की आजादी किसी संस्थान का मोहजात नहीं। यह जितना पत्रकारों से जुड़ी है उससे ज्यादा जनता से। यह हमारे और जनता के लिए खुली हवा में सांस लेने जैसा है। इसके खत्म होने का मतलब है लोकतंत्र का खात्मा।


लेखक महेंद्र मिश्र लंबे समय से जन अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं। 

Sunday, November 6, 2016

ये दिल्ली और मेरा धुंआकाल है

दोपहर दो बजे की धुंआ दिल्ली
दिल्ली में बहुत धुंआ भर गया है। जिस तरफ देखता हूं, धुंआ ही धुंआ दिखता है। मेरे अंदर भी बहुत धुंआ भर गया है। जिस तरह से दिल्ली में बताते हैं कि कहीं बाहर से आकर धुंआ भरा है, पता नहीं कैसे उसी तरह से मेरे में भी धुंआ कहीं बाहर से ही आकर भरा है। आग मेरे अंदर नहीं है। थी, लेकिन बुझा ली। अब तो दूसरे आग लगाते हैं। एक बार से जिसे चैन नहीं मिलता, वो दो बार और ट्राई करके देखता है कि देखूं तो सही, सही से भरा है ना! आग लगती रहती है, दिल्ली में धुंआ भरता रहता है, बस वो होती कहीं और है।

धुंए से दिल्ली रो रही है, दिल्ली के लोग रो रहे हैं। लोग परेशान हैं और इसी आलम में वो सड़क पर उतरकर धुंए का विरोध कर रहे हैं। मैं भी रो रहा हूं, परेशान हूं, लेकिन अपनी इस परेशानी को लेकर मैं कहां कौन सी सड़क पर उतर जाऊं, धुंए में दिखाई नहीं देता। लेकिन मुझे लग रहा है कि मेरी सड़कों पर आने के दिन आ रहे हैं। इस बार उनके कदम थोड़े तेज भी हैं। जब से धुंआ भरा है, सांस रुकी फंसी सी ही जा रही है। आने में कौन सी सांस आ रही है, पूरी दिल्ली जानती है, मैं कहीं अलग से सांस नहीं लेता! मैं जो जानता हूं, वो ये कि मेरे अंदर भरा धुंआ बहुत जल्द मुझे सड़क पर ला पटकेगा। धुंआ नहीं पटकेगा तो मैं खुद को ही सड़क पर पटक दूंगा।

ये दिल्ली का धुंआकाल है, लेकिन उससे भी कहीं ज्यादा ये मेरा काल है, धुंआ तो ऑलरेडी होइए रखा है। लोग कहते हैं कि एनडीटीवी पर बैन लगा है तो वो इतना चिल्ला रहा है! मैं खुद पर लगे बैन को कहां बांचूं? मैंने तो माइम की भी कभी प्रैक्टिस नहीं की, अलबत्ता लोग जो जो कर देते हैं, उससे मेरी घर बैठे और अक्सर लेटे लेटे ही प्रैक्टिस होती रहती है। माइम तो चुप है, लेकिन मैं दुखी हूं। मुझे दुख में चिल्लाना है। कहां किसके सामने चिल्लाऊं मीलॉर्ड? ओह!! सॉरी! मीलॉर्ड!! आप हैं! मैंने देखा नहीं था! सॉरी वंस अगेन! एक्चुअली बड़ा धुंआ धुंआ हो रखा है ना! देख ही रहे हैं हर तरफ! सर, आशा ताई का वो वाला गाना सुना क्या? 'चैन से हमको कभी आपने जीने ना दिया..' यूट्यूब पे है सर, अकेले आशा ताई के ही दो दो वर्जन है सर।

फिर भी मैं नाउम्मीद नहीं हूं। धुंआ ही है, छंट जाएगा। क्या हुआ कि अभी दिल्ली की स्ट्रीट लाइट्स दिन में सूरज को दिया दिखा रही है, वो दिन जरूर आएगा जब सूरज मुझे दिया दिखाएगा। सबको दिखाएगा वो दिया। सबको देगा उजाला। सांस बची रहेगी तो मैं भी देखूंगा सूरज। मेरी आंखों में सूरज के सपने हैं, लेकिन धुंआ भी बहुत भर गया है। न सपने ठीक से दिख रहे हैं और न ही सूरज, फिर भी चलते गुजरते मैं अपनी पीठ आप ठोंक कहता हूं कि दिखेगा, दिखेगा एक दिन!!

दिल्ली को धुंए से आजादी चाहिए। सरकार वेंटीलेटर लगा देगी! मुझे जिस धुंए से आजादी चाहिए, मैं कहां की सरकार से मांग करूं कि उसके लिए भी एक वेंटीलेटर बनवा दे। ज्यादा नहीं तो बस मेरे सपनों में आने वाली सड़क ही धुलवा दे। रात मैंने एक भी सपना नहीं देखा। तय करके सोया था कि आज सपना नहीं देखूंगा। अगर भूले से दिख गया तो जाग जाउंगा। दो बार सपने ने दिखने की कोशिश की, लेकिन मैं जाग उठा। सपनों से मेरी गुजारिश है कि वो इन दिनों मुझसे थोड़ा दूरी बनाए रखें। यहां हकीकत की ही दुनिया में इतना धुंआ है कि वहां का धुंधलापन और बर्दाश्त नहीं होता।

सपनों, मुझसे दूर रहो। धुंए, तुम भी दूर रहो। चिपकने वालों, तुम नजर न आना। मेरे मन की चिड़िया के घोंसले पर उस खोंसला ने जानबूझकर अवैध कब्जा कर लिया है। घोंसले के असली कागजात चिड़िया के पास हैं। चिड़िया फुर्र हो गई है। इसीलिए कहता हूं, बाकी लोग भी फुर्र हो लो। आसमान तुम सबके इंतजार में है। मेरे भी इंतजार में है। मैं अभी नीचे ही हूं। यहां धुंआ बहुत है। मैं रास्ता खोज रहा हूं, मिलते ही आता हूं। कमबख्त धुंआ छंटे तो मुक्ति मिले।

अरे, अभी तो फैजाबाद भी जाना है। 

ये दिल्ली और मेरा धुंआकाल है

दोपहर दो बजे की धुंआ दिल्ली
दिल्ली में बहुत धुंआ भर गया है। जिस तरफ देखता हूं, धुंआ ही धुंआ दिखता है। मेरे अंदर भी बहुत धुंआ भर गया है। जिस तरह से दिल्ली में बताते हैं कि कहीं बाहर से आकर धुंआ भरा है, पता नहीं कैसे उसी तरह से मेरे में भी धुंआ कहीं बाहर से ही आकर भरा है। आग मेरे अंदर नहीं है। थी, लेकिन बुझा ली। अब तो दूसरे आग लगाते हैं। एक बार से जिसे चैन नहीं मिलता, वो दो बार और ट्राई करके देखता है कि देखूं तो सही, सही से भरा है ना! आग लगती रहती है, दिल्ली में धुंआ भरता रहता है, बस वो होती कहीं और है।

धुंए से दिल्ली रो रही है, दिल्ली के लोग रो रहे हैं। लोग परेशान हैं, लेकिन सड़कों पर भी नहीं उतर सकते। मैं भी रो रहा हूं, परेशान हूं, लेकिन अपनी इस परेशानी को लेकर मैं कहां कौन सी सड़क पर उतर जाऊं, धुंए में दिखाई नहीं देता। लेकिन मुझे लग रहा है कि मेरी सड़कों पर आने के दिन आ रहे हैं। इस बार उनके कदम थोड़े तेज भी हैं। जब से धुंआ भरा है, सांस रुकी फंसी सी ही जा रही है। आने में कौन सी सांस आ रही है, पूरी दिल्ली जानती है, मैं कहीं अलग से सांस नहीं लेता!

ये दिल्ली का धुंआकाल है, लेकिन उससे भी कहीं ज्यादा ये मेरा काल है, धुंआ तो ऑलरेडी होइए रखा है। लोग कहते हैं कि एनडीटीवी पर बैन लगा है तो वो इतना चिल्ला रहा है! मैं खुद पर लगे बैन को कहां बांचूं? मैंने तो माइम की भी कभी प्रैक्टिस नहीं की, अलबत्ता लोग जो जो कर देते हैं, उससे मेरी घर बैठे और अक्सर लेटे लेटे ही प्रैक्टिस होती रहती है। माइम तो चुप है, लेकिन मैं दुखी हूं। मुझे दुख में चिल्लाना है। कहां किसके सामने चिल्लाऊं मीलॉर्ड? ओह!! सॉरी! मीलॉर्ड!! आप हैं! मैंने देखा नहीं था! सॉरी वंस अगेन! एक्चुअली बड़ा धुंआ धुंआ हो रखा है ना! देख ही रहे हैं हर तरफ! सर, आशा ताई का वो वाला गाना सुना क्या? 'चैन से हमको कभी आपने जीने ना दिया..' यूट्यूब पे है सर, अकेले आशा ताई के ही दो दो वर्जन है सर।

फिर भी मैं नाउम्मीद नहीं हूं। धुंआ ही है, छंट जाएगा। क्या हुआ कि अभी दिल्ली की स्ट्रीट लाइट्स दिन में सूरज को दिया दिखा रही है, वो दिन जरूर आएगा जब सूरज मुझे दिया दिखाएगा। सबको दिखाएगा वो दिया। सबको देगा उजाला। सांस बची रहेगी तो मैं भी देखूंगा सूरज। मेरी आंखों में सूरज के सपने हैं, लेकिन धुंआ भी बहुत भर गया है। न सपने ठीक से दिख रहे हैं और न ही सूरज, फिर भी चलते गुजरते मैं अपनी पीठ आप ठोंक कहता हूं कि दिखेगा, दिखेगा एक दिन!!

दिल्ली को धुंए से आजादी चाहिए। सरकार वेंटीलेटर लगा देगी! मुझे जिस धुंए से आजादी चाहिए, मैं कहां की सरकार से मांग करूं कि उसके लिए भी एक वेंटीलेटर बनवा दे। ज्यादा नहीं तो बस मेरे सपनों में आने वाली सड़क ही धुलवा दे। रात मैंने एक भी सपना नहीं देखा। तय करके सोया था कि आज सपना नहीं देखूंगा। अगर भूले से दिख गया तो जाग जाउंगा। दो बार सपने ने दिखने की कोशिश की, लेकिन मैं जाग उठा। सपनों से मेरी गुजारिश है कि वो इन दिनों मुझसे थोड़ा दूरी बनाए रखें। यहां हकीकत की ही दुनिया में इतना धुंआ है कि वहां का धुंधलापन और बर्दाश्त नहीं होता।

सपनों, मुझसे दूर रहो। धुंए, तुम भी दूर रहो। चिपकने वालों, तुम नजर न आना। मेरे मन की चिड़िया के घोंसले पर उस खोंसला ने जानबूझकर अवैध कब्जा कर लिया है। घोंसले के असली कागजात चिड़िया के पास हैं। चिड़िया फुर्र हो गई है। इसीलिए कहता हूं, बाकी लोग भी फुर्र हो लो। आसमान तुम सबके इंतजार में है। मेरे भी इंतजार में है। मैं अभी नीचे ही हूं। यहां धुंआ बहुत है। मैं रास्ता खोज रहा हूं, मिलते ही आता हूं। कमबख्त धुंआ छंटे तो मुक्ति मिले।

अरे, अभी तो फैजाबाद भी जाना है। 

Saturday, November 5, 2016

बैन क्यूं? जनता को मार के छील दीजिए मोदी महोदय

एनडीटीवी पर पाबंदी किसी एक चैनल का मसला नहीं है। यह पूरे प्रेस और उसकी स्वतंत्रता से जुड़ा है। यह बोलने की आजादी पर हमला है। यह कुछ और नहीं बल्कि जनता के दमन और उत्पीड़न की तैयारी है, क्योंकि सरकार के आखिरी निशाने पर वही है। दरअसल मोदी सरकार सारे मोर्चों पर नाकाम हो गई है। उसका सिराजा बिखर रहा है। अच्छे दिन का गुब्बारा फूट चुका है और वादे जुमले साबित हो चुके हैं। अब बचे-खुचे इकबाल के भी जाने का खतरा पैदा हो गया है। हालात बद से बदतर हैं। जनता में रोष है। ऐसे में सरकार को पता है कि उसके अलग-अलग हिस्से सड़क पर उतरेंगे और सरकार को उनसे निपटने के लिए बल की जरूरत पड़ेगी।

सरकार के इस रास्ते में तीन चीजें आड़े आएंगी। अदालत, प्रेस और विपक्ष। इसलिए बारी-बारी से इनको ठिकाने लगाने की तैयारी शुरू हो गई है। न्यायपालिका और मोदी सरकार के बीच की लड़ाई किसी से छुपी नहीं है। न्यायिक आयोग कानून के जरिये अदालतों को अपने चंगुल में लेने में नाकाम सरकार अब दूसरे रास्ते अपना रही है। कई जगहों और कई मंचों पर मुख्य न्यायाधीश इसको जाहिर भी कर चुके हैं। इसका असर भी दिखना शुरू हो गया है। अदालतें देखने के बाद भी अब चीजों की अनदेखी कर रही हैं।

प्रेस का बड़ा हिस्सा कारपोरेट मालिकाने की गिरफ्त के चलते पहले से ही समर्पण कर चुका है। सरकार का सुर ही उसका सुर बन गया है। तमाम दबावों के बाद कुछ ने झुकना मंजूर नहीं किया। उन्होंने अपनी रीढ़ सीधी रखी। लिहाजा सरकार अब ऐसे घरानों के ‘इलाज’ में जुट गई है। एनडीटीवी पर पाबंदी उसी का हिस्सा है। प्रेस और कुछ नहीं बल्कि जनता की आवाज होता है। वह जनता और सरकार के बीच माध्यम है। अब इसी पुल को ही तोड़ने की कोशिश हो रही है। यह मार्ग अब एकतरफा हो जाएगा जिसमें सरकार का पक्ष तो होगा, लेकिन जनता का पक्ष और उसके सवाल गायब हो जाएंगे। इसलिए यह कार्रवाई प्राथमिक और आखिरी तौर पर जनता के खिलाफ है।

रामकिशन मसले पर दिल्ली में विपक्षी नेताओं के साथ सलूक ने बहुत कुछ बता दिया है। लोकतंत्र में विपक्ष अगर सरकार नहीं तो उसकी हैसियत उससे कम भी नहीं होती है। संसद से लेकर सड़क तक वह जनता की आवाज होता है। वह सरकार के जनविरोधी और गलत कामों का तुर्की ब तुर्की जवाब देता है। अनायास नहीं संसदीय लोकतंत्र में शैडो कैबिनेट की अवधारणा है। जनता पार्टी के शासन के दौरान बिहार के बेलछी में हुए दलित हत्याकांड का इंदिरा गांधी ने दौरा किया था। मोरारजी सरकार उन्हें वहां जाने से तो नहीं रोक पायी थी? यहां राजधानी के भीतर अगर विपक्षी नेताओं को पीड़ित के परिजनों से नहीं मिलने दिया जा रहा है तो यह बहुत कुछ कहता है। विपक्ष को अपने बराबर न सही, लेकिन दौ कौड़ी का भी न समझना लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है। क्योंकि किसी अदालत और प्रेस के मुकाबले विपक्ष जनता के सबसे करीब होता है और उसकी आवाज को बंद करने की कोशिश का मतलब है जनता की पहल पर पाबंदी। अनायास नहीं सरकार ने इन तीनों स्तंभों के चोटी के लोगों के गिरेबान पर हाथ डाला है। उसे पता है कि एकबारगी इन्हें काबू में कर लेने का मतलब है पूरा मैदान साफ।

इस तरह से बारी-बारी से जनता की रक्षा करने वाले हथियारों को छीनकर उसे निहत्था किया जा रहा है। आखिर में वह फिल्म किस्सा कुर्सी का में जनता बनी शबाना आजमी की तरह अकेली तो रह जाएगी, लेकिन आत्महत्या नहीं कर पाएगी। इस बार जनता से जो भी सड़क पर उतरेगा मारा जाएगा। कारपोरेट विरोध मौत का पैगाम होगा। सरकार के विरोध का मतलब सीने पर गोली। यह बात अलग है कि वह कहीं किसान होगा तो कहीं दलित, तो कहीं मुसलमान। कहीं बेरोजगार और किसी जगह नक्सली होगा। यह सब कुछ राष्ट्रवाद और देश की रक्षा के नाम पर किया जाएगा। एक ऐसा राष्ट्रवाद जिसमें जनता नहीं होगी, उसके हित नहीं होंगे। जनता की बलि देश की सुरक्षा के नाम पर ली जाएगी। इसकी शुरुआत हो चुकी है। झारखंड में 8 किसानों की पुलिस की गोली से मौत इसी का हिस्सा है। उड़ीसा में नक्सली के नाम पर 24 आदिवासियों की हत्या इसका ट्रेलर।

इस कड़ी में सरकार का सबसे ज्यादा जोर सुरक्षा बलों और उसके जवानों पर है। क्योंकि यही वह हिस्सा है जिसके कंधे पर बैठकर मोदी भविष्य की सत्ता की सवारी करेंगे। इस लिहाज से उसका भरोसा और विश्वास हासिल करना पहली जरूरत बन जाती है। और फिर जवान अपने किसान बाप की छाती गोलियों से छलनी करेगा। राष्ट्र और उसके सुरक्षा के नाम पर छेड़ा गया यह गृहयुद्ध देश को तबाही के रास्ते पर ले जाएगा।

लेखक महेंद्र मिश्र लंबे समय से जन अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं। 

Monday, October 17, 2016

शाखाओं पर बैठे बंदर और नास्तिक सम्मेलन में उछलकूद

दुनिया के किस कानून में लिखा है कि मानव योनि में जन्म लेने वालों को ईश्वर को, उसकी सत्ता को मानना ही होगा? दुनिया की जाने दीजिए, भारत के किस कानून में ऐसा लिखा है कि भगवान को मानना ही होगा? क्या भारत हिंदू राष्ट्र है? क्या भारत मुस्लिम देश है? किसी भी समझदार और विचारवान का यही जवाब होगा कि ऐसा नहीं है। भगवान या ईश्वर या अल्लाह को मानना या न मानना बेहद व्यक्तिगत वस्तु है। इसी वजह से कोई भी कानून यह कभी नहीं कहता कि अगर हम इंसान हैं तो ईश्वर को मानना ही होगा। लेकिन इस वक्त अपने देश में जो अंधी आंधी चल रही है, उसमें वह सारी चीजें कानून हैं जो कहीं से भी कानून नहीं हैं। वृंदावन में हुए नास्तिकों के सम्मेलन पर बीजेपी और संघ के गुंडों का हमला यह साफ जाहिर करता है कि जब तक देश में इन लंपटों की सरकार रहेगी, आम आदमी की श्रद्धाएं और आस्थाएं इसी तरह से बम और बंदूक का निशाना बनती रहेंगी।

हमारे देश में ही आस्तिकता और नास्तिकता की लंबी परंपरा मौजूद रही है। सैकड़ों ऐसे ऋषि मुनि हुए हैं जो किसी भी ईश्वरीय सत्ता में विश्वास नहीं रखते थे। पूरे भारतीय दर्शन को नास्तिक और आस्तिक, दो भागों में विभाजित किया गया है। चार्वाक से लेकर बौद्ध दर्शन तक नास्तिकता की जितनी लंबी परंपरा हमारे पास रही है, दुनिया के किसी भी देश में नहीं रही है। जो लोग मार्क्सवाद से घृणा करते हैं, खुद उन्हें नहीं पता कि वाम चिंतन सदा से इस देश के जनमानस में व्यवहार की चीज तो रहा ही है, यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं है कि इसका आधारभूत विचार यहीं पर जन्मा है। वैदिक दर्शन के समानांतर ही हमारे यहां अवैदिक दर्शन की एक लंबी चिंतन परंपरा चली आई है। भारतियता और इससे जुड़े कुछ छिछले प्रतीकों को लेकर नफरती हिंदुत्व की राजनीति करने वाले संघ को इससे राई रत्ती भर लेना देना नहीं है। पढ़ाई लिखाई जैसी चीजों से संघी बंदरों का अदरक वाला नाता रहा है और यही वजह है कि अब जब पूरी दुनिया गॉड पार्टिकल्स के रहस्यों को जानने की ओर बढ़ रही है, ये भगवान और लोगों की आस्थाओं के ही टुकड़े करने वाली गंदी राजनीति लट्ठ नचाकर कर रहे हैं।

नास्तिकता को समझे बगैर यह लोग जिस तरह से देश विदेश से इस नास्तिक सम्मेलन में आए लोगों पर लाठियां भांज रहे हैं, जिस तरह से संघ के लोग शाखा से निकलकर सीधे महिलाओं को पीट रहे हैं, उन्हें सड़कों पर घसीट रहे हैं, असल में ये खुद सबके सामने नंगे हो रहे हैं। ये खुद अपने उस ईश्वर के सामने पाप कर रहे हैं जिसे ये मानने का दावा तो करते हैं, लेकिन मानते कतई नहीं। ईश्वर को मानने वाला क्या महिलाओं और बच्चों को पीट सकता है? जाहिर है कि नहीं। लेकिन ये कर रहे हैं। क्यों कर रहे हैं? क्योंकि ये हर हाल में ईश्वर को मनवा लेना चाहते हैं। डंडे और झंडे का जोर तो है ही इनके पास। डंडे के जोर से तो लोगों ने शैतान को भी न माना, ईश्वर क्या चीज है।

नास्तिकता ईश्वर का विरोध करना या उसे न मानना नहीं है। नास्तिक होना आस्तिक होने का विरोध नहीं है। क्या किसी ने कभी कहीं देखा कि कोई नास्तिक किसी से जबरदस्ती नास्तिक होना कबूल करा रहा हो? देश की तो जाने दीजिए, दुनिया में कभी कहीं ऐसी कोई घटना देखी, पढ़ी या सुनी? जाहिर है कि नहीं। नास्तिकता कोई धर्म नहीं है और न ही अनास्था का कोई प्रकार। मैं खुद नास्तिक हूं लेकिन मेरा दावा है कि सनातन धर्म के विषय में और वेदों के बारे में मैं इन आतातइयों से कहीं अच्छा प्रवचन दे सकता हूं। ज्ञान कहीं भी हो, न मैंने उसे लेने से इन्कार किया है और न ही कोई नास्तिक करता है। दरअसल नास्तिकता ज्ञान पाने का वह कठिन मार्ग है, जिसपर विरले ही चल पाते हैं। ज्ञान से बंदरों का संबंध किसी से नहीं छुपा। किसी से छुपा हो तो बंदर को उस्तरा देकर देख ले।

यही हाल इन संघि‍ि‍यों का है। बचपन में कुछ दिन मैं शाखा गया था जहां सबसे प्रचलित कहावत कही जाती थी- पढ़ब लिखब की ऐसी की तैसी, कट्टाा लेके करौ डकैती। मुझे न पढ़ने लिखने की ऐसी की तैसी करनी थी और न ही डकैती, सो मैंने शाखा जाना छोड़ दिया, लेकिन शाखा में जाने वाले लोग मथुरा में हुए नास्तिक सम्मेलन में क्या कर रहे हैं, यह पूरी दुनिया देख और सुन रही है। 

Tuesday, October 4, 2016

जो भी युद्ध-युद्ध चिल्लाए, उसपर तुरंत शक करिए

सेना में जो जाता है, शहीद होने के लिए ही जाता है? नौकरी करने थोड़े ही लोग सेना में जाते हैं? शहीद न हुए तो सेना की नौकरी अधूरी ही रह जाती होगी? जो लाखों लोग सेना को सेवा देकर बगैर शहीद हुए घर वापस आकर बैठे हैं, वो सारे के सारे तो देशद्रोही होते होंगे? नौकरी करने की, पैसे कमाने की, घर चलाने की इच्छा से जो भी सेना में जाते हैं, वो सारे के सारे तो देशद्रोही होते हैं? जो सैनिक जिंदा हैं, वो तो देश का अपमान कर रहे हैं ना? अबे देश में घामड़ों की, गधों की ये कौन सी नई फौज है जो फौज की नौकरी को नहीं समझ पा रही है? कौन हैं वो लोग जो शांति के नाम पर युद्ध युद्ध चिल्ला रहे हैं? सेना शांति के लिए होती है या युद्ध के लिए? बगैर युद्ध के शांति की कल्पना कोई क्यों नहीं कर पा रहा? क्यों सभी की कल्पनाओं में खून भरी मांग बह रही है? कौन सा ऐसा सैनिक है जो हमेशा युद्ध करना चाहता है? कौन सा ऐसा सैनिक है जो कभी-कभार युद्ध करना चाहता है? अबे मोदी के लल्लुओं, इतनी सी बात तुम्हारी समझ में ना आ रही कि सैनिक शांति चाहते हैं। ठीक उसी तरह से जैसे सीमा के अंदर मैं शांति चाहता हूं। शांति चाहना देशद्रोह नहीं होता है बे। कितना भी युद्ध का माहौल हो, शांति चाहना कहीं से भी गलत नहीं है।

एक बार ध्यान से ध्यान दीजिए कि शहर में युद्धघोष कौन लोग कर रहे हैं? सिंघलों, अग्रवालों, कपूरों, बरनवालों, टेकचंदानियों और इनके जैसे दूसरे व्यापारी लोग। नौकरीपेशा इंसान आज भी युद्ध नहीं चाहता। किसान भी नहीं चाहता। मेरी कामवाली को पता ही नहीं है कि युद्ध असल में होती क्या चीज है। युद्ध में सबकी हानि होती है, बस उनकी नहीं होती जो युद्ध युद्ध चिल्लाते हैं। वो युद्ध युद्ध इसीलिए चिल्ला रहे हैं कि राशन दबाएं, चीनी महंगी करें और दाल सातवें आसमान पर चढ़ा दें। चड्ढी बनियान महंगी कर दें, बीज खाद ब्लैक में बिकें। इनके युद्धघोष का मूल कारण ही आम आदमी को बेवकूफ बनाकर उनकी जेब काटना है।

इसलिए, जब भी किसी को युद्धघोष करते पाएं, तुरंत उसपर शक करें। देखिए कि वो कौन है? युद्धघोष के पीछे उसका जाती फायदा क्या है? वो शहर में किस किस चीज की ब्लैकमार्केटिंग में लिप्त है? उसके कितने शराब के ठेके हैं और कितने सरकारी निर्माण कार्य के ठेके हैं? कहां कहां उसकी सप्लाई की हुई चरस बिकती है? कहां कहां वो लड़कियां सप्लाई करते पकड़ा गया है? सवाल करें कि युद्ध क्यों? किसे मारने के लिए? हमारे बीस करोड़ सगे रिश्तेदार जो सीमा उस पार हैं, क्या उन्हें जान से मारने के लिए? हम जो सवा अरब इस तरफ हैं, क्या उनको भूखा मारने के लिए? युद्ध का परिणाम क्या होता है? पूछिए। सवाल करिए।

सेना का पोस्टमार्टम करूं? पसंद आएगा? पोस्टमार्टम के बाद लाश भी देखने लायक नहीं रह जाती है। हर तरफ से फाड़कर सिला हुआ शरीर ठीक से लिपटकर रोने लायक भी नहीं रह जाता। सेना का भी पीएम ऐसा ही कुछ है जहां घोर फासिज्म तो भरा ही हुआ है, हिंदू-मुसलमान, हिंदू-इसाई, ब्राह्म्ण-दलित जैसी वो सारी भावनाएं उन सारी भावनाओं से कहीं ज्यादा जड़ हैं, जितनी कि सेना के बाहर हैं। सेना को फाड़ना शुरू करूंगा तो बदबू सह नहीं पाएंगे। युद्ध युद्ध चिल्लाएंगे तो जहां खड़े हैं, वहीं रह जाएंगे, घंटा, कहीं नहीं पहुंच पाएंगे और न ही ये देश कहीं पहुंच पाएगा।  

Saturday, October 1, 2016

करते रहिए, करते रहने में ही भलाई है

पवित्र तस्वीर है। आलेख से संबंध नहीं है।
अरे! मोदी जी ने कर दि‍या! फि‍र से कर दि‍या! फि‍र फि‍र करेंगे करते रहेंगे ऐसा दावा भी कर दि‍या! कर देने के वादे से वो आए। यहां कर देंगे, वहां भी कर देंगे, ऐसा वो हम सबको बताए। घर घर में आकर के कर देंगे, ऐसा वो नाक बंद करके चि‍ल्‍लाए। जबसे आए करते जा रहे हैं। यह जो कुछ भी है इकट्ठा, उनके करने से ही हो रहा है। करने के अलावा उन्‍होंने और कुछ नहीं कि‍या। करने के अलावा कुछ करेंगे भी नहीं। करने के अलावा आज तक उन्‍होंने देश में कुछ और कि‍या हो तो कोई बता दे! वो करते रहने के लिए ही तो आए हैं।

गुजरात में तो कर ही चुके। कि‍तने देशों में कर चुके? कि‍तने देशों में अभी करने जाएंगे? कि‍तने देशों में दोबारा और कि‍तने देशों में ति‍बारा भी कर आएंगे? अपने जैसे दो चार और करने वाले बनाएंगे। ओह, कैसा तो वह दृश्‍य होगा! सारे करने वाले एक कतार में बैठकर कर रहे होंगे! करने वालों को खेतों में ला दि‍या, जंगलों में बसा दि‍या। सब मि‍लकर कर रहे हैं। अहा, कैसा सुगंधि‍त वातावरण है!! फायर है, ब्रांड है, नेता है और उसका करा हुआ है। कर देना, कहीं भी कर देना उनकी सबसे बड़ी खासि‍यत है।

बड़े आदमी हैं, बड़ा बड़ा करते हैं। करते हुए सेल्‍फी भी देते हैं। स्‍ट्राइक तो वो बस यूं ही कर देते हैं। वह कौन सा भाव होता होगा मुखमंडल पर जब सर्जिकल वाली स्‍ट्राइक में करते होंगे? गुजराती स्‍ट्राइक में कौन सा भाव रहा होगा? खैर, भक्‍तों को उनके करते रहने से मतलब है। वो कैसा भी कर दें, भक्‍तों का प्रसाद है। सब उनका सुगंधि‍त व्‍यसन है। सब मि‍ल बांटकर ले रहे हैं। वह कर रहे हैं, यह उठा रहे हैं। फि‍र सब जगह उनका कि‍या हुआ फैला रहे हैं। अहा, कहां कहां तो नहीं कि‍या हुआ फैलाया है! बेरोजगारी तो फर्जी का रायता है। महंगी तो दाल है जो की नहीं जाती।

पूरा देश दि‍शा मैदान हो गया है। देश की दसों दि‍शाओं पर शाह जी और मोदी जी कर दे रहे हैं। हर दि‍शा में उनका कि‍या हुआ रखा है। हर मैदान में उनका कि‍या हुआ फैला है। यह मैदान भी छोटा पड़ जाता है। करने की अदम्‍य आकांक्षाओं से लैस दी‍मोले जी कभी कहीं कि‍सी बच्‍चे का कान खींचकर करते हुए नजर आते हैं तो कहीं नगाड़ा बजाकर। अमरीका में तो कि‍तनी बार कर चुके। स्‍वच्‍छता अभि‍यान के करोड़ों से बने स्‍टेज पर भी जाकर कर आए। सहारनपुर भी कर आए। भगवान के अपने स्‍वर्ग में भी जाकर कर आए। नखलऊ में भी कर देने का पूरा इरादा है। लंका में कब करेंगे सर?

कभी कि‍सी ने सोचा कि वो नाक बंद करके क्‍यूं करते हैं? कैसे सोचेगा? सभी नाक बंद करके ही करते हैं। पूरे देश को उन्‍होंने हर चीज पर बस कर देने के लि‍ए तैयार कर लि‍या है। 2019 आने दीजि‍ए, 2021 भी आने दीजि‍ए। जो नहीं कर रहे होंगे वो कि‍ए हुए के नीचे दबे होंगे। मोदी जी तब तक इतना कर देंगे कि एक नया देश तैयार हो जाएगा। तैयार तो हो ही रहा है। लि‍मि‍टेड एक्‍सेस वाले लोग अनलि‍मि‍टेड कर रहे हैं। देश बदल रहा है। करे हुए दि‍न आने वाले हैं, दि‍न में करने वाले तो आ ही चुके हैं।

नोट- कृपया करने को करने के ही अर्थ में लें, करने के अर्थों में लेकर अर्थ का अनर्थ न बनाएं। 

Monday, September 26, 2016

नई चीज शहादत-ऐ-शोहदा है

मुझे आज शहीद होना है। मैं उस जगह की तलाश में हूं, जहां जाकर मैं शहीद हो सकता हूं। मैं उस मौके की तलाश में हूं जिसके अंदर घुसकर मैं शहीद हो सकता हूं। दे ही देनी है मुझे शहादत, बस कोई बता दे कि कहां जाकर दे दूं। शहीद हो जाने का शोर तो सबने मचा लिया, लेकिन जोर से न बताना चाहे तो कान में ही फुसफुसा दे। तब तक मैं मेरी आंख में मीठा पोलियो लगवाकर बैठा हूं। मनन कर रहा हूं या नहीं, लेकिन पलक दबाकर बैठा हूं। हर तरफ से मर जाने की जो आवाजें मेरे कानों में गिर रही हैं, वो मुझे शहादत की राह पर और भी गिरा दे रही हैं। क्या असेंबली में बम फेंक दूं? कहलाउंगा शहीद? कोई फर्क है अब की और तब की असेंबली में? या उन धनपशुओं के कार्य व्यापार पर जाकर जमीनी सुरंग बिछा दूं जो सारे कामगारों का खून चूसकर उनसे पशुवत व्यवहार करते हैं? क्या ये दोनों काम मुझे शहीद का दर्जा देंगे? सरकारी नहीं हूं तो सरकारी शहीद तो कहलाउंगा नहीं। सरकारी शहीद के अलावा भी क्या कोई शहीद हुआ है? आजादी के बाद से कौन कौन गैर सरकारी शहीद हुआ है, क्या वक्त नहीं आ गया है कि उनकी शहादत का हिसाब हो? बहुत लोग कहेंगे कि जा, सीमा पे जाके मर। मैं सीमा पर मर भी जाऊं तो क्या गारंटी है कि मैं शहीद ही कहलाउंगा, शोहदा नहीं? अब जो शहीद होने को शहीदातुर लोग हैं, क्या ये सही वक्त नहीं कि उनमें और शोहदों में व्याप्त समानताएं लोगों को बताई जाएं? शोहदे कैसे होते हैं और शहीद कैसे होते हैं, क्या पीएम को मन की बात में इसका जरा भी जिक्र नहीं करना चाहिए? पीएम को शोहदों का नाम लेने में शर्म क्यूं आती है? मन तो उनका भी वही रहा है। नहीं?

मैं वादा करता हूं कि अगले तीन महीने में मैं या तो शहीद हो जाउंगा या फिर क्रांति कर दूंगा। तीन महीने बाद हिसाब लगाउंगा कि वो कौन कौन लोग थे जो क्रांति के रास्ते में डंडा लेकर खड़े थे। वो कौन कौन लोग थे, जो मेरी शहादत की राह में अंडा लेकर खड़े थे? झंडा लेके कौन कौन खड़ा था सर? सबका हिसाब होगा। क्या चंपक शहीद होते हैं? क्या शोहदे शहीद होते हैं? कौन हैं वो लोग जो यूं ही शहीद हो जाते हैं? कहां से आते हैं भारत सरकार के पास यूं ही शहीद हो जाने वाले लोग? क्यों करा देती है सरकार उन्हें बस यूं ही शहीद? जनगण देश के निवासियों, सब लोग वनवासियों हो जाओ। तुरई की सब्जी लहसुन डालके उगाओ। संकर का जमाना है, शोहदों का जमाना है, शहीदों को इनसे बचकर कैसे भी निकल जाना है। उन्हें तो लौकी से भी नहीं मतलब और शोहदे शहादत का अचार डाल रहे हैं। कौन हैं वो शोहदे जो देश को चला रहे हैं? कौन हैं वो शोहदे जो पूरी दुनिया में गंध फैलाते हुए हीं-हीं, ठीं-ठीं करके दांत दिखा रहे हैं?

शर्मिंदा शहादत जैसी भी कोई चीज होती है? शहादत शर्मिंदा होती है? या शर्म ही शहीद हो जाया करती है? देश की शर्म शहीद हो चुकी है। किसी के पास कोई आइडिया है कि शहीद हुई शर्म पर फूल कौन से रंग के चढ़ाए जाएं? आप बहाना बना सकते हैं, चाहें तो शरीर के किसी अंग पर खुजली करके शहीद शर्म के अपमान पर बयान भी जारी कर सकते हैं। कुछ नहीं तो चौराहे वाली पान की दुकान पर दांत खोदते हुए मेरे मुर्दाबाद का नारा भी लगा सकते हैं। लेकिन शहीदों को शोहदों ने इस वक्त जो बना दिया है, उसपर कोई बयान क्या जारी कर सकते हैं?

रोटी के लिए मारा जाऊं तो शहीद कहलाउंगा? बोटी के लिए मारा जाऊं तो? मोटी के लिए मारा जाऊं तो क्या पक्का शहीद कहलाउंगा? वैसे ये सब लिखने पर मुझे कोई छोड़ेगा तो है नहीं, चिकोटी के लिए मारा जाऊं तो क्या सच्चा शहीद कहलाउंगा? सरकार पर मेरा आरोप है कि उसने हम देशवासियों से शहादत का सारा हक छीन लिया है। एक बार ये हक दे के तो देखे, गली गली में शहीद न पैदा हो गए तो कहिएगा। देश में शहीद हो जाने की ऐसी बयार, ये व्यवहार आखिरी बार कब देखा? क्या कहा? चीनी हमले में? लेकिन तब तो सारे भड़बांकुरे अपनी अपनी हाफ पैंटों में नहीं घुसे हुए थे? क्या कहा? गए थे? कहां? बदरीनाथ? ओह ओह, अहा अहा। बाई दि वे, नॉर्थ ईस्ट में कितने शहीद हुए किसी के पास कोई आंकड़ा है? फर्जी ही दिखा दीजिए, न मैं बुरा मानूंगा और न ही मेरी चिकोटी। मेरी धोती तो बिलकुल बुरा नहीं मानेगी।

मुझे पूरा यकीन है कि शोहदों ने शहादत के सात रास्ते खोज अपनी पतित शर्म की पूरी बेशर्मी दिखाने का पूरा इंतजाम कर रखा है। मेरा रंग दे बसंती चोला पुराना हुआ, शोहदों को अब बसंती चाहिए वो भी बगैर चोली के। भारत माता अगर कहीं है और वो भी रात में अगर पूरे कपड़ों में निकल गई तो परमभक्त शोहदे न तो उसे छोड़ेंगे और न तो...। बाकी रॉड वॉड तो वो अपने साथ रखते ही हैं, असल चीज उनकी काम नहीं करती ना। मेरी मांग है कि देश के सारे शहीदों की कहानियों को ड्रॉप कर नवयुग के शोहदों की आदतों पर बीए सेकेंडियर की आधुनिक हिंदी में ललित निबंध अवश्य शामिल होना चाहिए। घर में नहीं दाने औ अम्मा चली भुनाने जैसी चीजें अब पुरानी हुई। नई चीज शहादत-ऐ-शोहदा है। मार्केट में एकदम नई। टिंच माल। जगह घेरते ही बिक जाने की गारंटी के साथ। 

Monday, September 19, 2016

कल्पनाकृत मन का अमृत संसार

मैं और मेरी दिलासा के साथ मेरे बाहरी
जो बाहर रहने लगा, वो बाहरी हो गया। कितने बाहर रहने लगा, कितना बाहर रहने लगा, क्यूं बाहर रहने लगा, बाहर की क्यूं रहता रहेगा, इन सारे सवालों के जवाब की तो दूर की बात, कोई इन सवालों के बारे में भी नहीं सोचता। मैं फैजाबाद में नहीं रहता। मैं बाहरी हूं। मैं दिल्ली में रहता हूं। मैं बाहरी हूं। मैं न्यूयॉर्क में भी रहने लगूंगा, तो भी बाहरी ही होउंगा, मैं फैजाबाद में भी रहने लगूंगा, तो भी बाहर से ही आया कहलाउंगा। मैं हर तरफ से बाहरी हो चुका हूं। मेरे जैसे कितने लोग बाहरी हो चुके हैं। हम बाहरी लोगों का कोई देश नहीं, कोई शहर नहीं, कोई मोहल्ला नहीं। हम कुछ भी करके मर जाएंगे तो भी कोई गली भी हमारी न होगी।

बाहरी हूं, हर बार फैजाबाद बाहर बाहर ही होकर आ जाता हूं। क्या नामीबिया में भी लोग मुझे बाहरी समझेंगे? हां, वहां के लोग भी मुझे बाहरी ही समझेंगे। वो कौन लोग हैं जो मुझे और मेरे जैसों को बाहरी समझते हैं? वो कौन सा अंदर है, जिसमें वो घुसकर लोगों को बाहरी बनाते रहते हैं? क्या वो कल्पनाकृत मन का वो अमृत संसार है जिसे मैं न बना पाया? क्या वो संबंधों का वो व्यापार है जिसे मैं न कर पाया? या फिर घर के अंदर होने वाले वो सारे व्यभिचार हैं, जिनके बारे में मुझे विचार तक न आया? मैं बाहरी हूं और इस हूं में शमशेर के वो सारे हूं अपनी लय के साथ उसी तरह से जुड़े हैं, जैसे मेरा बाहरी होना। शमशेर को किसने पढ़ा है? क्यूं पढ़ा है?


मेरे मोबाइल के सारे नंबर बाहरी हैं और उनमें एक भी नंबर मेरा नहीं है। मैं खुद अपने बाहर बाहर रहता हूं, अपने अंदर अभी मैं ठीक ठीक घुस नहीं पाया। अपने अंदर सबकुछ होते हुए भी सबकुछ बाहर ही होता है। तापमान से हमारा संपर्क बाहरी है। बरसात की बूंदें तो और भी बाहरी हैं। सूरज तो हमारा है ही नहीं। दुनिया कैसे बढ़ती अगर बाहरी न होते?

मैं जानता हूं कि मैं खुद को दिलासा दे रहा हूं। लेकिन यही एक चीज है जो मैं खुद को देता रह सकता हूं। मेरी दिलासाएं मुझसे बाहर नहीं, वो बाहरी नहीं।

Sunday, September 11, 2016

मिलेगा तो देखेंगे- 18

मेरा हाथ वो अपने बड़े से हाथों में लेकर कहती या शायद बुदबुदाती कि हम गांव जरूर चलेंगे। वहां नदी है, पहाड़ियां हैं, चट्टानें हैं, बकरियां हैं और ढेर सारे जंगली फूल भी। और फिर अम्मा तो वहीं है। क्या हुआ जो वो मुझे नहीं मानती? तुमको देखेगी तो मानने लगेगी। मैं हां हूं करके चुप बैठा रहता और अपने हाथ की साइज उसके हाथ से मिलाता रहता। उसकी हथेलियां मेरी हथेलियों से बड़ी थीं। मैं अपना पूरा पंजा भी फैला लेता तो भी बीस और अट्ठारह का फर्क रहता ही रहता। इस तरह से उसकी बड़बड़हाट से ऊबता मैं उसे उसकी ही हथेली दिखाने लगता या फिर उसका सबसे अप्रिय सवाल पूछता कि जब तुम्हारी अम्मा पाएंगी कि मैं तुमसे छोटा हूं तो? इस पर वो बड़ी देर तक चुप रहती। फिर कहती कि नहीं चलेंगे गांव। न अपने न तुम्हारे। और तुम्हारे गांव तो मैं कभी नहीं जाउंगी। यूपी के गांव भी भला कोई गांव होते हैं? सपाट धरती और तुम्हारी तरह उस वीराने से आए अकेले लोग। जो बचे रह गए वो दूसरों को कैसे बचकर नहीं रहने दिया जाए, इसी की जुगत में अपनी सुबहें और शाम खेत करते रहते हैं।

एक दिन मैंने उससे आखिरकार पूछ ही लिया कि उसके पास कितनी खेती है। उस दिन वो बड़े मन से मेरे लिए कढ़ी बनाकर लाई थी जो कहीं से भी नहीं कढ़ी थी। पता नहीं न कढ़ पाने की नाराजगी रही होगी या यूपी में पूछे जाने वाले सबसे आम सवाल की आम जिज्ञासा से उपजी टीस। बहरहाल, मुझे यही लगा कि खेतों में कहीं कुछ टूटा है। बोली कि उसके यहां ज्यादा खेती नहीं है। बल्कि जो भी खेत हैं वो यूंही पड़े रहते हैं, उनपर भी कोई काम नहीं हो पाया। मिलिट्री में मजदूर रहे उसके पिता ने अपनी रिटायरमेंट के बाद जितना धान तरोई उगाई, बस उतनी ही खेती वो देख पाई। अलबत्ता गांव के दूसरे लोगों को वो रोज स्कूल से जाते और आते हुए खेती करते देखती तो थी, लेकिन इस काम में उसकी कोई खास रुचि नहीं जम पाई। खेती उसे अच्छी नहीं लगती। मैंने फिर पूछा कि क्यों नहीं अच्छी लगती? वह फिर चुप हो गई।

उस दिन वो स्लीवलेस ब्लाउज और कत्थई बॉर्डर वाली हरी सूती धोती पहनकर आई थी। अपने आसपास मैं आमतौर पर इस तरह की महिलाओं को देखने का आदी नहीं हूं, लेकिन उसे देखकर न तो मुझे कोई ताज्जुब हुआ और न ही कोई हूक उठी। सबकुछ पूरी तरह से सामान्य था। मेरे कंधे तक पहुंचते बाल तेजी से गिर रहे थे। मैं उसकी कुर्सी के पास गया, नजदीक से ही एक कुर्सी खींची और अपने कंधे उसे दिखाने लगा कि देखो, कितनी तेजी से और कितने सारे बाल गिर रहे हैं। आखिर तुम कैसे इतने सालों से अपने बाल संभालती आई? मुझसे तो संभल ही नहीं रहे हैं। मैं इन्हें कटा दूंगा। वो धीमे से मुस्कुराई और अजीब तरीके से अपनी आंखों की गोलियां नचाते हुए अपने झोले में कुछ खोजने लगी। एक छोटा सा डिब्बा उसने निकाला जिसमें भुनी हुई अलसी थी। दो चुटकी अलसी उसने मुझे खाने को दी और मेरे बालों में उंगलियां फेरीं। बोली-रोज दो चुटकी अलसी खाया करो, बाल गिरना बंद हो जाएंगे। अलसी का बालों से इस तरह का संबंध मेरे लिए नया था लेकिन उसके लिए नहीं। उसके इलाके में महिलाएं अपने बालों को इसी तरह से बचाती आई हैं। 

अपराधियों से रिश्ता रखने का समाजवादी फैशन

Pic- Rediff
अखिलेश यादव ने सबक सीख लिया। लेकिन लालू जी कब सीखेंगे? या फिर समाजवादी कुनबे की पुरानी पीढ़ी का मुस्लिम समुदाय के अपराधियों से रिश्ता कभी नहीं टूटने वाला है? वह चाहे मुलायम सिंह हों या फिर लालू यादव दोनों इस मामले में एक ही जगह खड़े मिलते हैं। लालू यादव को पता होना चाहिए कि शहाबुद्दीन से उन्हें कुछ राजनीतिक लाभ भले हो जाए। लेकिन वह फायदा अल्पसंख्यकों के हितों की कीमत पर होगा, क्योंकि इससे संघ-बीजेपी को अल्पसंख्यक तबके को अपराधी और आतंकी समर्थक समुदाय के तौर पर पेश करने का मौका मिल जाता है। फिर उसके लिए सांप्रदायिक गोलबंदी आसान हो जाती है। लेकिन लगता है कि अपने तात्कालिक राजनीतिक स्वार्थों के वशीभूत लालू और मुलायम सिंह इस चीज को समझने के लिए तैयार ही नहीं हैं। उन्हें बस अपने स्वार्थ से मतलब है। वैसे भी उनके लिए एक अपराधी को सरंक्षण देकर उसे अपने वश में करना आसान रहता है। क्योंकि अगर अल्पसंख्यक तबके के किसी पढ़े-लिखे और जहनी शख्सियत को अपना नेता बनाएंगे तो उसे अपने मनमुताबिक हांकने में परेशानी होगी। लेकिन आपराधिक चरित्र के व्यक्ति के लिए सत्ता का संरक्षण प्राथमिक जरूरत होती है। ऐसे में उसके लिए किसी भी तरह की बगावत या फिर विरोध भारी पड़ सकता है। लिहाजा अपराधियों को नेता बनाना बेहतर होता है। लेकिन इस प्रक्रिया में वह कितना बीजेपी-संघ को फायदा पहुंचा रहे होते हैं यह उनको पता नहीं है।

यूपी में यही हाल मुख्तार अंसारी से लेकर अतीक अहमद तक का है। यहां पहले इनको मुलायम सिंह का गाहे-बगाहे संरक्षण मिलता रहा है। लेकिन उनके बेटे और सूबे के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इन दोनों समेत दूसरे अपराधियों के प्रति एक कड़ा रुख अपना कर अपनी एक दूसरी छवि पेश की है। और इसका दूसरे तरीके से उनको फायदा भी मिलता दिख रहा है। लेकिन बिहार में लालू जी ने तो यह सबक सीखा ही नहीं। उनके पुत्र तेजस्वी का भी इससे अलग कोई रुख अभी तक नहीं दिखा है। अलग रुख हो भी सकता है। लेकिन पार्टी और सरकार में वो हैसियत नहीं है कि उसे लागू कर सकें। फिर भी उन्हें चुप रहने की जगह उसे जाहिर जरूर करना चाहिए।

शहाबुद्दीन के जेल से छूटते ही संघियों ने गदर काट दिया है। हालांकि रिहाई अदालती प्रक्रिया के जरिये हुई है। बावजूद इसके उनकी रिहाई का हर संभव तरीके से विरोध होना चाहिए। क्योंकि हत्या से लेकर अपहरण और दूसरे दर्जनों अपराधों के आरोपी को जमानत मिलने का कोई तुक ही नहीं बनता है। वह कुछ इतने घृणित और नृशंष अपराधों के आरोपी हैं जिसके लिए उन्हें कभी माफ नहीं किया जा सकता है। इसमें जेएनयू के पूर्व अध्यक्ष चंद्रशेखर की हत्या और एक स्थानीय परिवार के तीन नौजवानों का तेजाब डालकर मौत के घाट उतारने के मसले शामिल हैं। इन अपराधों के बाद तो किसी का जीवन जेल में ही बीतना चाहिए। बावजूद इसके अगर वह छूटे हैं। तो जरूर इसके पीछे राज्य मशीनरी की कोई लापरवाही या फिर साजिश है। या यह जमानत किसी राजनीतिक दबाव का नतीजा है। और अगर राज्य इतना सक्रिय और चौकस होता तो उसके पास कई ऐसे रास्ते हैं जिसके जरिये उसे सीखचों के पीछे रखा जा सकता है। इसमें ऊपरी अदालत में अपील से लेकर दूसरे आपराधिक मामलों में जेल में रखने का विकल्प शामिल है। और ऐसा न करने के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सवालों के घेरे में हैं।

शहाबुद्दीन की रिहाई पर संघियों का बल्लियों उछलना बताता है कि वो कितने खुश हैं। दरअसल उनको लग रहा है कि इसके जरिये वो कितना राजनीतिक लाभ उठा सकते हैं। और अपने राजनीतिक विरोधियों को कठघरे में खड़ा सकते हैं। दरअसल वो इसी तरह के मौकों की तलाश में रहते हैं। लेकिन एक मिनट के लिए उन्हें जरूर अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। क्या वो गुजरात में दंगों के तमाम अपराधियों के मामले में भी इसी तरह से विरोध दर्ज करते हैं। डीपी यादव से लेकर ब्रजभूषण शरण सिंह और ब्रिजेश सिंह पर इसी तरह से गुस्सा जताते हैं। या फिर शहाबुद्दीन, अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी पर ही उनको उबाल आता है। अपराधी अपराधी होता है। वह किसी भी जाति, धर्म, क्षेत्र या समुदाय का हो। इसलिए सबके खिलाफ एक जैसा रुख वक्त की जरूरत है। अपने-अपने तुच्छ हितों के लिए या फिर किसी भावना वश समर्थन उनके लिए आक्सीजन का काम करता है। लेकिन वह पूरे समाज के लिए बहुत घातक होता है। शायद यह बात हम सोच नहीं पाते। या फिर उतनी दूर तक निगाह नहीं जाती। वंजारा के स्वागत का समर्थन और शहाबुद्दीन के स्वागत का विरोध दोनों चीजें एक साथ नहीं चल सकती हैं। लेखक- महेंद्र मिश्र 

Sunday, September 4, 2016

देश का पीएम किसके साथ है?

फोटो क्रेडिट- कैच न्यूज 
यह कुछ और नहीं बल्कि राष्ट्रवाद का व्यापारीकरण है। राष्ट्रवाद जैसी एक पवित्र और निर्मल चीज को अब घर में ही बेचा जा रहा है। यह देश में अलग-अलग रूपों में सामने आ रहा है। इसकी इंतहा तब हो गई जब देश के पीएम एक प्राइवेट कंपनी का ब्रांड अंबेसडर बनने के लिए तैयार हो गए। यह न केवल राष्ट्रवाद की भावना का अपमान था बल्कि देश के लोकतंत्र और उसकी 120 करोड़ जनता का भी, जिसने कि मोदी साहब को देश की अगुवाई के लिए चुना है। यह शासक और शासित के बीच समझौते का उल्लंघन है, जिसमें मोदी जी ने जनता के साथ विश्वासघात किया है। अमूमन तो उन्हें जिओ सिम के प्रचार के साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी तरीके से जुड़ना ही नहीं चाहिए था और जुड़े भी तो देश की सबसे बदनाम कंपनियों में से एक रिलायंस के साथ। सार्वजनिक जीवन में जिसकी कंपनियों की साख हर क्षेत्र में गोता लगा रही है। जो अपनी पेट्रोगैस कंपनियों का घाटा देश के आम लोगों की जेब से निकालने की पुरजोर कोशिश कर रही है। जिसे भ्रष्टाचार, गमन, चोरी और धोखेबाजी के लिए ही जाना जाता है। वह जनता के साथ हो या कि सरकार के साथ। सरकारी कंपनी ओएनजीसी का 30 हजार करोड़ का रिलायंस द्वारा गबन की खबर आम है, लेकिन इस पर न कुछ सरकार बोल रही है और न ही मीडिया। मीडिया भी खैर क्यों बोलेगा? आखिर अंबानी जी ने उसे भी खरीद कर अपनी जेब में रखा ही हुआ है।

राष्ट्रवाद सर्फ अंबानी ही नही बेच रहे हैं, इसमें बाबा रामदेव से लेकर राजीव बजाज तक शामिल हैं। बाबा अपने उत्पादों को राष्ट्रवादी करार देते हैं और कहते हैं कि उनका सारा पैसा दान में जाता है। अब उनका कमाया मुनाफा कैसे दान की शक्ल ग्रहण कर लेता है और जनता को किस रूप में मिल रहा है, यह किसी की भी समझ से परे है। अलबत्ता सबसे ज्यादा कीमतों में सामानों की बिक्री और कंपनियों में सस्ती दर पर मजदूरी जनता की खुली लूट को जरूर दिखाता है। सबसे ऊपर बाबा का गुणगान। राष्ट्रवाद का इससे बड़ा नाजायज फायदा कुछ और नहीं हो सकता है। खुला सरकारी संरक्षण बाबा को हर जायज नाजायज करने की छूट देता है। इन मुनाफों से इतर बीजेपी शासित राज्यों में हजारों एकड़ जमीन का बाबा के नाम किया जाना किसी बंपर बोनस सरीखा है।

राष्ट्रवाद की खेती अकेले बाबा नहीं कर रहे हैं। तिरंगे को बेचने वालों की कतार में दूसरे भी हैं। एक और नाम राजीव बजाज का है। उन्होंने एक बाइक निकाली है। इसमें दावा किया गया है कि उसके ढांचे के निर्माण में देश के पहले पानी के लड़ाकू जहाज विक्रांत के इस्पात का इस्तेमाल किया गया है। खबर यह भी है कि आमिर खान ने इसी बिना पर उसकी एक बाइक खरीद भी ली है। अब आम और उसकी गुठली का दाम वसूलना कोई बजाज से सीखे। इसी तरह से तिरंगा बेचने वालों में कैशलेस की सुविधा देने वाली पे-टियम और ट्रैवल कंपनी ओला भी है। सब अपने-अपने मुनाफे के लिए राष्ट्रवाद का इस्तेमाल कर रही हैं।

दरअसल राष्ट्रवाद के इस फर्जी खेल की शुरुआत बीजेपी-संघ ने की है। उसने राष्ट्रवाद के नाम पर अल्पसंख्यकों और दूसरे तबकों का उत्पीड़न शुरू किया और देश भर में तिरंगा यात्रा (या तिरंगे की शवयात्रा?) निकालकर अब इसे एक नये परवान पर ले जाना चाहती है। जबकि सच्चाई यह है कि तिरंगे और आज़ादी की लड़ाई से इनका दूर-दूर तक रिश्ता नहीं है। आज़ादी की लड़ाई के दौरान जब हमारे पुरखे इस तिरंगे को हाथ में लेकर कुर्बानियां दे रहे थे, तब सावरकर से लेकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी तक इनके नेता अंग्रेजों की गोद में बैठे हुए थे। सावरकर का अपनी रिहाई के बदले अंग्रेजों से 6 बार माफ़ी और उनके हर निर्देशों का पालन करने की शर्त इसका उदाहरण है। मुखर्जी का 1942 के आंदोलन से किनारा कर मुस्लिम लीग के साथ बंगाल में सरकार का संचालन भी उसी का हिस्सा है। संघियों के पास एक भी शख्स ऐसा नहीं है, जिसे ये अपने लिए आज़ादी की लड़ाई का हिस्सेदार बता सकें। जिस तिरंगे को गाली देते-देते इनकी उम्र बीत गई अब उसी को हाथ में पकड़कर ये राष्ट्रवाद का झंडा बुलंद कर रहे हैं। इनके जैसा झूठा और फरेबी इतिहास में ढूंढने पर भी नहीं मिलेगा। इस पूरी कवायद का लक्ष्य राष्ट्रवाद की फर्जी सर्टिफिकेट हासिल करना है। जिसका इस्तेमाल अपना वोट पक्का करने और थैलीशाहों की जेब मोटी करने में कर सकें। इस काम को वो बखूबी अंजाम दे रहे हैं। अनायास नहीं है कि मजदूरों की हड़ताल के दिन अंबानी के विज्ञापन के साथ दिखकर मोदी जी ने बता दिया कि देश का पीएम किसके साथ है।
- महेंद्र मिश्र 

Saturday, August 27, 2016

हम लोगों के घरों में सोना नहीं मिलता

दोनों लड़ रहे थे। दोनों डर रहे थे। दोनों एक दूसरे से दूर भाग जाना चाह रहे थे। दोनों एक दूसरे से गुत्थमगुत्था होकर एक दूसरे को खत्म कर देना चाह रहे थे। दोनों विरोधी थे। दोनों चिपके हुए थे। एक के हाथ में दूसरे का बाल था तो दूसरे ने पहले का हाथ उमेठ रखा था। एक दूसरे से दूर होने के इच्छुक दोनों इस डर से दूर नहीं हो पा रहे थे कि उनमें से कोई एक लौटकर पास आ गया तो? इसी तो के चक्कर में दोनों उलझे हुए थे। तो का चक्कर तो कंगना के साथ भी चिपकाया गया था, तो?

इसी बीच एक कवि ऐलान करता था कि वह बहुत नहीं है। उसके पहले वह कह चुका था कि वह कहीं नहीं है और उसके कई साल पहले वह कह चुका था कि वह नहीं है। हालांकि ज्यादा नहीं तो कुछ एक लोग, जिनने उसकी इकलौती किताब पढ़ी थी, वो जानते थे कि कवि अक्सर उस खिड़की से झांकते होता रहता है जो उसके किसी एक बनबिगड़े घर के बाहर खुलती थी। बस कवि कमरे में नहीं होता।

एक कमरा है। एक न होने लायक कमरा है। आमतौर पर कमरे में चार दीवारें होती हैं, लेकिन उस कमरे में छह दीवारें हैं। कमरे को अपने कमरे होने के बारे में कोई भ्रम नहीं है। कवि को है, लड़नेवाले को है, हो सकता है कंगना को भी हो। हो तो हो। तो?

मैं सोना तलाश रहा हूं। नींद मेरी जेबों में ही नहीं, बुश्शर्ट के कॉलरों और कफों में भी भरी है। नदी नहाने गए लड़कों की जेब में तलाशी लेता हूं तो उसमें आलपिन मिलती है। एक की जेब में पांच पैसा मिलता है लेकिन सोना नहीं मिलता। हम लोगों के घरों में सोना नहीं मिलता। किसी के यहां मिलता भी है तो बक्से में, न कि जेब में। लेकिन मुझे वाकई नहीं पता, इसलिए मैं जेब ही टटोलता हूं।

दुनिया भरी भरी है सर। मैं भी भरा भरा हूं। मजे मजे में मजाज ने नोंच-नाच के मजा ले लिया। डाक्टर साहब ने कुल्हड़ रखवाकर उसपर लिंटर डलवा लिया। रामू के कैंप से भागकर लोग टाटशाह मस्जिद की छत पर बैठकर अपनी शामें खाली करने लगे। नेताजी ने धांसू बयान दे दिया। मनोज श्रीवास्तव सभासद की पत्नी सभासदी जीत गईं। इंडिया मार्का पंप पर नेतानी का सिर फूट गया। साइकैट्रिस्ट के सामने बैठी लड़की ने सबकुछ खाली कर दिया।

ऊपर से नीचे तक सब झूठ है। भरोसा रखें। नहीं है? तो?

डिस्क्लेमर: मैं टीवी नहीं देखता।

अंदर कश्मीरी लाठी खाते हैं, बाहर मैं लात

ये इस देश में मेरे ख्‍याल से सबके साथ सबसे बड़ी समस्‍या है। लोग हंसते हुए घर से नि‍कलते हैं कि वे बड़े सुखी हैं, लेकि‍न दस मि‍नट बाद नर्क की बातें करने लगते हैं। ठेले से एक पर्सेंट ठीक खाना मि‍ल जाता है तो लगने लगता है कि सारा कश्‍मीर मि‍ल गया, कश्‍मीर के सारे बाग मि‍ल गए। दो महीने बाद कोई रि‍श्‍तेदार आके पूछ लेता है कि गुरु, सेहत बना रहे हो क्‍या? बस उतने में ही फूलकर सब अपनी अपनी कंपनी पर लहालोट होने लगते हैं। हालांकि रि‍श्‍तेदार के जाने के बाद ये भी कहते देखे जाते हैं कि कंपनी वंपनी कुछ नहीं, कहीं कोई आजादी नहीं है। दोस्‍त सुनते ही समझाने के मोड में आ जाते हैं कि गुरु, आजादी तो कहीं नहीं है। न कंपनी के अंदर न बाहर। बड़ेघर में भी ठीक ठीक आजादी नहीं मि‍लती।

मैंने सोचा है कि चने का अचार बनाउंगा। लौकी का भी और तुरई का भी। अगर स्‍कॉर्पियन यहां बन सकती है, अगर पर्रिकर रक्षामंत्री बन सकते हैं और अगर फ्रांस बुर्किनी उतार कर चालान कर सकता है तो तुरई का अचार आने वाले सात साल तक सुरक्षि‍त रखकर देखा और मन होने न होने पर खाया भी जा सकता है। देश को नर्क से नि‍कालने के लि‍ए अचार खाना जरूरी है। लि‍खना जरूरी नहीं है, पढ़ना तो बि‍लकुल नहीं। कि‍ताब की बात करना फालतू का काम है। कवि‍ता गरीब की लुगाई है। आजाद तो सिर्फ गोवा है, थोड़ा बहुत युसुफ भाई भी हैं, कुछ दि‍न में पूरे हो जाएंगे। महबूबा... एक बार तो बगैर मुफ्ती के मि‍लो। आई वि‍ल टेक योर ऑल व्‍यू इन माई मर्तबान। यू नो आइ लव अचार। डोंट यू नो? यू मस्‍ट नो!! आफ्टरऑल, आई एम एन आईटीयोआइयन!! यू मस्‍ट मेक एन आईटीओ देयर एट लाल चौक।

भारतीय नामपंथ के वि‍रोध में कौन कौन है। प्‍लीज जल्‍द बताएं। एक स्‍मारि‍का नि‍काल रहा हूं जि‍समें वो सारे होंगे तो नामपंथ के वि‍रोध में हैं, नाम के वि‍रोध में हैं, पंथ के वि‍रोध में हैं, संधि के वि‍रोध में हैं, वि‍च्‍छेदों के वि‍रोध में हैं, छेदों के वि‍रोध में हैं और इन सारे विरोधों के विरोध में हैं। जो भी वि‍रोध में हैं अगर वो नहीं हैं तो वही बता दें जो सिर्फ हैं। जो कहीं नहीं हैं वो मंडी हाउस आकर मुझसे मि‍ल सकते हैं। मैं भी कहीं नहीं हूं। जो है वो बस एक सटकन है!!

कश्‍मीरि‍यों, तुम चिंता न करो। मैं भी नहीं कर रहा। लाठी खाना तुम्‍हारी नि‍यति है और लात खाना मेरी। जैसे तुम्‍हारे साथ कई सारी आत्‍माएं लाठी लेकर चलती रहती हैं, वैसे ही मेरे साथ कई आत्‍माएं लात लेकर चलती रहती हैं। कश्‍मीर में तुम कहीं भी रहोगे, लाठी खाते रहोगे। कश्‍मीर के बाहर मैं कहीं भी रहूंगा, लात खाता रहूंगा। हम दोनों का खाते रहना, खाके बैठे रहना लोगों को ज्‍यादा जरूरी महसूस होता है। हम लोगों का कुछ भी करना, कर लेना वाजि‍ब नहीं। मैं अब चुप होता हूं। तुम तो चुप कर ही दि‍ए गए हो।