जो भी युद्ध-युद्ध चिल्लाए, उसपर तुरंत शक करिए
सेना में जो जाता है, शहीद होने के लिए ही जाता है? नौकरी करने थोड़े ही लोग सेना में जाते हैं? शहीद न हुए तो सेना की नौकरी अधूरी ही रह जाती होगी? जो लाखों लोग सेना को सेवा देकर बगैर शहीद हुए घर वापस आकर बैठे हैं, वो सारे के सारे तो देशद्रोही होते होंगे? नौकरी करने की, पैसे कमाने की, घर चलाने की इच्छा से जो भी सेना में जाते हैं, वो सारे के सारे तो देशद्रोही होते हैं? जो सैनिक जिंदा हैं, वो तो देश का अपमान कर रहे हैं ना? अबे देश में घामड़ों की, गधों की ये कौन सी नई फौज है जो फौज की नौकरी को नहीं समझ पा रही है? कौन हैं वो लोग जो शांति के नाम पर युद्ध युद्ध चिल्ला रहे हैं? सेना शांति के लिए होती है या युद्ध के लिए? बगैर युद्ध के शांति की कल्पना कोई क्यों नहीं कर पा रहा? क्यों सभी की कल्पनाओं में खून भरी मांग बह रही है? कौन सा ऐसा सैनिक है जो हमेशा युद्ध करना चाहता है? कौन सा ऐसा सैनिक है जो कभी-कभार युद्ध करना चाहता है? अबे मोदी के लल्लुओं, इतनी सी बात तुम्हारी समझ में ना आ रही कि सैनिक शांति चाहते हैं। ठीक उसी तरह से जैसे सीमा के अंदर मैं शांति चाहता हूं। शांति चाहना देशद्रोह नहीं होता है बे। कितना भी युद्ध का माहौल हो, शांति चाहना कहीं से भी गलत नहीं है।
एक बार ध्यान से ध्यान दीजिए कि शहर में युद्धघोष कौन लोग कर रहे हैं? सिंघलों, अग्रवालों, कपूरों, बरनवालों, टेकचंदानियों और इनके जैसे दूसरे व्यापारी लोग। नौकरीपेशा इंसान आज भी युद्ध नहीं चाहता। किसान भी नहीं चाहता। मेरी कामवाली को पता ही नहीं है कि युद्ध असल में होती क्या चीज है। युद्ध में सबकी हानि होती है, बस उनकी नहीं होती जो युद्ध युद्ध चिल्लाते हैं। वो युद्ध युद्ध इसीलिए चिल्ला रहे हैं कि राशन दबाएं, चीनी महंगी करें और दाल सातवें आसमान पर चढ़ा दें। चड्ढी बनियान महंगी कर दें, बीज खाद ब्लैक में बिकें। इनके युद्धघोष का मूल कारण ही आम आदमी को बेवकूफ बनाकर उनकी जेब काटना है।
इसलिए, जब भी किसी को युद्धघोष करते पाएं, तुरंत उसपर शक करें। देखिए कि वो कौन है? युद्धघोष के पीछे उसका जाती फायदा क्या है? वो शहर में किस किस चीज की ब्लैकमार्केटिंग में लिप्त है? उसके कितने शराब के ठेके हैं और कितने सरकारी निर्माण कार्य के ठेके हैं? कहां कहां उसकी सप्लाई की हुई चरस बिकती है? कहां कहां वो लड़कियां सप्लाई करते पकड़ा गया है? सवाल करें कि युद्ध क्यों? किसे मारने के लिए? हमारे बीस करोड़ सगे रिश्तेदार जो सीमा उस पार हैं, क्या उन्हें जान से मारने के लिए? हम जो सवा अरब इस तरफ हैं, क्या उनको भूखा मारने के लिए? युद्ध का परिणाम क्या होता है? पूछिए। सवाल करिए।
सेना का पोस्टमार्टम करूं? पसंद आएगा? पोस्टमार्टम के बाद लाश भी देखने लायक नहीं रह जाती है। हर तरफ से फाड़कर सिला हुआ शरीर ठीक से लिपटकर रोने लायक भी नहीं रह जाता। सेना का भी पीएम ऐसा ही कुछ है जहां घोर फासिज्म तो भरा ही हुआ है, हिंदू-मुसलमान, हिंदू-इसाई, ब्राह्म्ण-दलित जैसी वो सारी भावनाएं उन सारी भावनाओं से कहीं ज्यादा जड़ हैं, जितनी कि सेना के बाहर हैं। सेना को फाड़ना शुरू करूंगा तो बदबू सह नहीं पाएंगे। युद्ध युद्ध चिल्लाएंगे तो जहां खड़े हैं, वहीं रह जाएंगे, घंटा, कहीं नहीं पहुंच पाएंगे और न ही ये देश कहीं पहुंच पाएगा।
एक बार ध्यान से ध्यान दीजिए कि शहर में युद्धघोष कौन लोग कर रहे हैं? सिंघलों, अग्रवालों, कपूरों, बरनवालों, टेकचंदानियों और इनके जैसे दूसरे व्यापारी लोग। नौकरीपेशा इंसान आज भी युद्ध नहीं चाहता। किसान भी नहीं चाहता। मेरी कामवाली को पता ही नहीं है कि युद्ध असल में होती क्या चीज है। युद्ध में सबकी हानि होती है, बस उनकी नहीं होती जो युद्ध युद्ध चिल्लाते हैं। वो युद्ध युद्ध इसीलिए चिल्ला रहे हैं कि राशन दबाएं, चीनी महंगी करें और दाल सातवें आसमान पर चढ़ा दें। चड्ढी बनियान महंगी कर दें, बीज खाद ब्लैक में बिकें। इनके युद्धघोष का मूल कारण ही आम आदमी को बेवकूफ बनाकर उनकी जेब काटना है।
इसलिए, जब भी किसी को युद्धघोष करते पाएं, तुरंत उसपर शक करें। देखिए कि वो कौन है? युद्धघोष के पीछे उसका जाती फायदा क्या है? वो शहर में किस किस चीज की ब्लैकमार्केटिंग में लिप्त है? उसके कितने शराब के ठेके हैं और कितने सरकारी निर्माण कार्य के ठेके हैं? कहां कहां उसकी सप्लाई की हुई चरस बिकती है? कहां कहां वो लड़कियां सप्लाई करते पकड़ा गया है? सवाल करें कि युद्ध क्यों? किसे मारने के लिए? हमारे बीस करोड़ सगे रिश्तेदार जो सीमा उस पार हैं, क्या उन्हें जान से मारने के लिए? हम जो सवा अरब इस तरफ हैं, क्या उनको भूखा मारने के लिए? युद्ध का परिणाम क्या होता है? पूछिए। सवाल करिए।
सेना का पोस्टमार्टम करूं? पसंद आएगा? पोस्टमार्टम के बाद लाश भी देखने लायक नहीं रह जाती है। हर तरफ से फाड़कर सिला हुआ शरीर ठीक से लिपटकर रोने लायक भी नहीं रह जाता। सेना का भी पीएम ऐसा ही कुछ है जहां घोर फासिज्म तो भरा ही हुआ है, हिंदू-मुसलमान, हिंदू-इसाई, ब्राह्म्ण-दलित जैसी वो सारी भावनाएं उन सारी भावनाओं से कहीं ज्यादा जड़ हैं, जितनी कि सेना के बाहर हैं। सेना को फाड़ना शुरू करूंगा तो बदबू सह नहीं पाएंगे। युद्ध युद्ध चिल्लाएंगे तो जहां खड़े हैं, वहीं रह जाएंगे, घंटा, कहीं नहीं पहुंच पाएंगे और न ही ये देश कहीं पहुंच पाएगा।
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