Saturday, December 15, 2007

यहाँ कौन रहता है...

पिछले महीने वर्ल्ड एड्स डे मनाया जा रहा था। मैं और मेरे साथी विपिन धनकड़ एक स्वयं सेवी संस्था मे एड्स रोगियों से मिलने और उनका हाल चाल लेने के लिए पहुचे। सबसे पहले आगरा से आये एक कपल के पास गए। उन लोगो की हिम्मत और जीने की आदमी अभिलाषा देख मुझे ये बिल्कुल नही लगा कि एड्स कोई ऐसी बहुत बड़ी बीमारी है जो आदमी को एकदम तोड़ देती है। पति घडी बनाने का काम करता था और हाई स्कूल पास था जबकि पत्नी एम् ए थी। वो भी समाजशास्त्र मे । उन लोगों ने बताया कि आगरा के जिस गाव से वो लोग आये हैं, काफी बड़ी संख्या मे उधर लोग एड्स के मरीज बन रहे हैं। मैंने पूछा कि क्या उधर सरकारी डिस्पेंसरी नही है या फिर अच्छे डॉक्टर नही है? उनका जवाब था कि एक तो डिस्पेंसरी कम है और दूसरे झोला छाप डॉक्टर वहाँ ज्यादा है । वो लोग बिना उबाले ही इंजेक्शन लगा देते हैं। बात आसान थी और पकड़ मे आ गई। हाँ, वहाँ दो चीज़ ऐसी पता चली जिसे जानकर मैं हिल गया । पहला तो ये कि उन लोगों ने अपनी बीमारी के बारे मे घर पर नही बताया था। दोनो की दो बेटियाँ थीं, पहली १२ वीं मे पढ़ती है और दूसरी आठवीं मे । (मैंने सोचा कि जब इन्हें पता चलेगा तो क्या होगा घर मे , कुछ भी हो, हम कितना भी कह लें, हमारे घर मे एड्स जैसी बिमारी हिला तो देती ही है ) बहरहाल दूसरी बात ये थी कि उसकी पत्नी समाजसेवा का काम करती थी । बच्चों को पढाती थी, नगरनिगम से लड़कर मोहल्ले की सफाई भी करवाती थी।
ये सब नोट करके हमलोग वहाँ से निकले। बाहर हमे उसी मोहल्ले के एक अधेड़ उम्र के शख्स मिले। उम मुझसे पूछ रहे थे कि यहाँ क्या होता है। उनकी नज़रों मे कुछ शक सा झलक रहा था। उनने कहा कि मुझे लगता है कि यहाँ जरूर कोई गलत काम होता है। मैंने उन्हें बताया, यहाँ कोई गलत काम नही होता है। लेकिन वो मानने के लिए तैयार ही नही हो रहे थे। मैं और मेरे साथी उन्हें लगातार समझा ही रहे थे कि ये लोग बहुत बड़ी सेवा कर रहे हैं, कोई गलत काम नही। लेकिन वो थे कि समझें ही न । वो कह रहे थे कि इन लोगों को इस मोहल्ले से निकाल दिया जाय । मुझे लगी गुस्सा, मैंने उनसे कहा कि ऐसा है, ये लोग जो काम कर रहे हैं , ठीक कर रहे हैं। और अगर आपको कोई तकलीफ हो तो जाइए, जो आपसे बन पड़ता है, कर लीजिये। हम भी देखते हैं कि आप क्या करेंगे। मुझे गुस्सा इसलिए आया क्योंकि इन्ही लोगों को पहले भी तीन बार इसी मेरठ मे इन्ही कारणों से अपना आशियाना छोड़ना पड़ा था। बहरहाल तब तक मेडिकल कोंलेज मे रैगिंग की खबर मिली और हम लोग वहाँ भागे।
रास्ते भर मैं सोचता रहा, क्यों ये लोग ऐसा करते हैं। क्यों आदमी ही आदमी की जान का दुश्मन बन जाता है....और भी बहुत सारे सवाल....क्यों क्यों क्यों!!!

Wednesday, December 12, 2007

ये थी नीतू और ये रही उसकी बच्ची




मेरी बीवी को बचा लो, वो मर जायेगी

बात कल शाम की है, लेकिन लगता है कि जैसे अभी ये सब हो रहा हो। कल दोपहर तकरीबन तीन बजे मैं मेरठ के मेडिकल कालेज से निकल रहा था, मेरे मोबाइल पर एक काल आई। ये कोई राजू था जो बता रहा था कि उसकी बीवी काफी बीमार है, उसे बच्चा होने वाला है और अस्पताल वालों ने उसे मेडिकल कालेज ले जाने के लिए कहा है। बात सीधी थी, अस्पताल वालों ने उस केस को मेडिकल कालेज रेफर किया था। सो मैंने उससे कहा कि १०१ नंबर पर फोन करे और एम्बुलेंस मँगाए। वो फोन करेगा और उसे एम्बुलेंस मिल जायेगी, ये सोच कर मैं घर कि तरफ खाना खाने चल दिया। लेकिन बीच रस्ते मे ही फिर से उसका फोन आ गया कि कोई एम्बुलेंस नही मिली और उसकी बीवी मरने वाली है। इसके बाद वो फोन पर ही रोने लगा और कहने लगा कि मेरी बीवी को बचा लो, वो मर जायेगी।
मैं पंहुचा अस्पताल
मैंने अपनी गाड़ी के टॉप गियर लगाए और बहुत तेजी से अस्पताल पंहुचा। ये सरकारी महिला अस्पताल था। वहाँ पहुच कर मैंने जो नज़ारा देखा, मेरे तो होश ही गायब हो गए। भयंकर लेबर पेन मे वो औरत अस्पताल के दरवाज़े के बाहर तड़प रही थी। मैंने तुरंत एक प्राइवेट नर्सिंग होम मे फोन किया और उनसे एम्बुलेंस भेजने को कहा। उन लोगो ने कहा कि वो एम्बुलेंस भेज रहे हैं। इसके बाद शुरू हुई मामले की तहकीकात। ये लोग मलियाना नाम के गाँव से आये थे । पति का नाम राजू था और पत्नी नीतू। पहले नीतू को तीन बच्चे हुए थे जिसमे दो मर गए थे। अस्पताल वालों का कहना था कि बच्चा प्री मेच्योर है और अस्पताल मे नर्सरी नही है, इसलिए वो लोग रिस्क नही लेंगे। लेकिन इस समय तक नीतू की हालत इतनी बिगड़ चुकी थी कि वही पर ओपरेशन करने के सिवा कोई दूसरा रास्ता नही था। खैर, ऑपरेशन से पहले कागजी कारवाही को लेकर भी डॉक्टरों से काफी झिकझिक हुई। राम राम कहकर ऑपरेशन शुरू हुआ और जैसे ही बच्चा पेट से बाहर निकला, उस प्राइवेट अस्पताल के एम्बुलेंस वाले उसे लेकर इन्क्युबेटर मे रखने के लिए भागे। अब अस्पताल वालों के मुह पर कालिख पुट गयी। जच्चा और बच्चा , जिसे वो कह रहे थे कि नही बचेंगे, दोनो को बचा लिया गया था। लेकिन कब तक ऐसे हर मरीज को मैंने मिलता रहूंगा.... कब तक, रोज़ ही ये लोग कोई न कोई खेल करते हैं।

Monday, October 8, 2007

ये कूड़ा नही, इन्सान है

बात कल की है। कल सुबह तकरीबन दस बजे की। परसों रात मे देर से आया था इसलिये सुबह सोकर भी देर से ही उठा। वही दस बजे। बॉस का फोन आया कि जली कोठी के पास किसी आदमी को कूड़े मे फेंक दिया गया है, एक्सक्लूसिव है और जल्दी से कवर करना है। एक्सक्लूसिव के चक्कर मे मैं उठा , पैंट शर्ट डाली और दस मिनट मे जली कोठी पहुच गया। वहां जो कुछ भी देखा , मुझे नही पता कि दिल्ली या टी वी मे ये सब दिखाया गया होगा लेकिन इतना खराब था कि मानवीयता , इंसानियत या ऐसे किसी शब्द का प्रयोग करना उसके लिए बेकार है।

जली कोठी मेरठ की वह जगह है जहाँ पर पूरे शहर का कूड़ा डाला जाता है। यही पर नशे की हालत मे एक लड़का बेहोश पड़ा था और लोगो ने उसपर और कूड़ा डाल दिया था जिससे उसका बदन पूरी तरह से ढँक गया था। नगर निगम की जे सी बी मशीन आई और कूड़े समेट उसे दूसरे कूड़े वाले ट्रक मे डाल दिया। आसपास के लोगो ने कूड़े मे हरकत होती देखी तो शोर मचा। पता चला कि कूड़े के ही साथ एक जिंदा इन्सान को फेंक दिया गया है। उसके सर मे गहरी चोट थी। तुरन्त उसे अस्पताल पहुचाया गया। अस्पताल मे इमरजेंसी मे जो डॉक्टर था , उसने पहले से ही नशे की गोलियां ले रखी थी और उसी हालत मे वह उसे देख रहा था। उस डॉक्टर ने उसे वार्ड मे भरती कर दिया। जब स्ट्रेचर से लोग उसे ले जा रहे थे तो एक आदमी ने उसके हाथ मे लगी ड्रिप नोची और उसे उसके मुह से लगा दिया। मैं फिर से उसी डॉक्टर के पास आया और उससे पूछा कि उसका इलाज क्यों नही कर रहे। उसने बताया कि उसने सर्जन और फिजिशियन को लिख दिया है। जब वो आएंगे तब उसे देखा जाएगा। मैंने उससे पूछा कि वो खुद क्यों नही देखता तो वह उल्टे मुझसे पूछने लगा कि क्या मैं पत्रकार हूँ ? मैंने कहा कि क्या मेरे पत्रकार होने की वजह से आप उसे देख लेंगे ? उसने कहा कि अगर आप पत्रकार हैं तो जाइए छाप दीजिए और अगर नही हैं तो इस कमरे से बाहर निकल जाइये। बहरहाल बहस तो ख़ूब हुई लेकिन उसका जिक्र यहाँ बेमानी है। एक घंटे तक मैं अस्पताल मे रहा लेकिन उसे देखने कोई नही आया। परसों ही दो बच्चियाँ डायरिया से उसी अस्पताल मे मरी और सिर्फ इसलिये क्योंकि रात भर उन्हें कोई डॉक्टर देखने नही आया। दोनो सगी बहने थी और उनके अलावा उनके घर मे कोई दूसरा बच्चा नही था। ठीक उसी तरह यहाँ मेरठ मे हर दूसरे दिन डेंगू से एक मौत हो रही है। अस्पताल के लोग मानने के लिए तैयार ही नही हो रहे हैं कि शहर मे डेंगू है। यहाँ तक कि कमला , जाकिर कालोनी , लाख्खिबाग, इस्लामाबाद और ऐसे कई सारे इलाक़े हैं जहाँ स्वास्थ्य विभाग के लोग रोज दावे करते हैं कि दवाईयां डाली जा रही है , फागिंग हो रही है लेकिन हकीकत मे कही कुछ भी नही हो रहा है।

मैं परेशान हूँ क्योंकि अस्पताल के डॉक्टर कहते हैं कि वो बच्चियाँ पहले से ही बीमार थीं। मैं परेशान हूँ क्योंकि मुझे आये दिन यही सब देखना पड़ता है। मैं परेशान हूँ कि मैं कुछ भी नही कर पा रहा। क्या इस परेशानी से निकलने का कोई रास्ता है ?

:- फोटो उसी आदमी की है।

Saturday, September 29, 2007

घुघूती और अजित जी, वे जनता से कटे हुए लोग हैं...

मेरे कटरा बी आर्ज़ू पर की गयी पोस्ट पर जो प्रतिक्रियाएं आयीं, मुझे लगा कि उनके जवाब में एक पोस्ट ही दे मारा जाये. हाज़िर है. पहले प्रतिक्रियाएं, जिनके जवाब देने की कोशिश की है मैंने.

Mired Mirage said...

कोई भी तंत्र हो यदि जनता, विशेषकर पत्रकार सजग न रहें तो इससे पहले कि हम समझें और संभले हमारे अधिकार छीन लिए जाएँगे । ऐसे में लेखक हमें पहले से ही आगाह कर सकते हैं ।
यह पुस्तक पढ़ी नहीं है, अवसर मिलते ही पढ़ूँगी ।
घुघूती बासूती


अजित said...

ठीक कहते हैं। मैं राही साहब के समूंचे गद्य साहित्य का भी प्रशंसक हूं। कटरा बी आर्ज़ू का जवाब नहीं। आपने जो जो बातें रेखांकित की हैं सब से सहमत हूं। कहां गए ऐसे लोग ? अब क्यों नहीं ऐसा लिखा जाता ?

आप सबकी प्रतिक्रियाएं जान कर अच्छा लगा. हां, मैं प्रतिक्रिया बहुत देर से दे रहा हूं.
घुघूती जी
लेखक-पत्रकार तभी घटनाओं के बारे में पहले से बता सकते हैं जबकि वे समाज के तमाम अंतर्द्वंद्वों को साफ़-साफ़ समझ सकते हों, चीज़ों को आपस में जोड़ कर देखने की उनके पास नज़र हो और घटनाओं का द्वंद्ववादी विश्लेषण करने की समझ हो. कई लेखक ऐसे रहे हैं कि उन्होंने कमाल की भविष्यवाणियां की हैं. नहीं मैं ज्योतिषवाली भविष्यवाणी की बात नहीं कर रहा, बल्कि भविष्य की दिशा के बारे में कह रहा हूं. इसमें जैक लंडन का नाम शायद सबसे पहले लिया जायेगा. उन्होंने 1908 के अपने उपन्यास आयरन हील में जिस तरह की घटनाओं का ज़िक्र किया है वे बाद में, 1936 तक और उसके बाद तक घटीं. अगर आप देखें तो सोवियत क्रांति, लेनिन जैसे नेता, हिटलर जैसे फ़ासिस्ट और अमेरिकी खुफ़िया पुलिस के गठन जैसी अनेक परिघटनाएं बाद में जो घटीं, उनके बारे में साफ़ साफ़ ज़िक्र आयरन हील में किया गया है. यह किसी चमत्कार के ज़रिये नहीं हुआ और न ही आयरन हील एक फैंटेसी है. यह बेहद यथार्थवादी उपन्यास है. एक कम्युनिस्ट क्रांति इसका विषय है. इसी तरह शोलोखोव के उपन्यास एंड क्वायट फ़्लोज़ द डोन के बारे में भी कहा जा सकता है, जिसमें सोवियत संघ के विघटन के सूत्र आसानी से तलाशे जा सकते हैं.
अजित भाई
आपके सवाल का जवाब भी शायद इसी में है. मुझे लगता है कि हमारे देश के अधिकतर समकालीन फ़िक्शन लेखकों के पास वह नज़र या समझ ही नहीं है, भले ही उनके साथ वामपंथी या प्रगतिशील या कम्युनिस्ट होने का टैग लगा हुआ हो. टैग लगा लेने से कोई वही नहीं हो जाता. एक और बात है कि हमारे यहां केवल सांप्रदायिक नहीं होने या इसका विरोधी होने भर से लेखक को वाम या प्रगतिशील लेखक मान लिया जाता, भले ही उसके सोच में सामंती तत्व बने हुए हों और वह उतनी सूक्ष्मता से न सोच-देख पाता हो. भ्रम इसलिए भी बनता है. इसके अलावा हिंदी लेखक जगत में एक बडी़ कमी यह है कि लेखक किसी आंदोलन से जुडे़ हुए नहीं हैं. वे पूरी तरह जनता के संघर्षों से कटे हुई हैं. उन्हें कई बार ज़मीनी हालात का पता भी नहीं होता और वे सिर्फ़ दिल्ली और दूसरे शहरों में बैठ कर बस लिखते रहने को अपने आप में एक महान कार्य समझते हैं. ऐसे में जो हो सकता है वही उनके साथ हो रहा है. न उनके पास वैसी रचनाएं हैं और पाठक.

हवा में रहेगी, मेरे ख्याल की बिजली : भगत सिंह और आज का भारत

दखलवाले मित्र चंद्रिका ने हमें यह आलेख बहुत पहले भेजा था. हमने सोचा था कि इसे 28 को पोस्ट किया जायेगा. पर पटना में बारिश ने इस तरह के रंग दिखाये कि दिन-दिन भर या तो बिजली गायब रही याइंटरनेट कनेक्शन ठीक से काम नहीं कर पाया. इसलिए इसमें देर हुई. फिर भी, चंद्रिका ने जो सवाल उठाये हैं, वे मौजूं हैं और हमें उन पर सोचने की ज़रूरत है.

चंद्रिका
हर बार की तरह इस बार भी 28 सितंबर को भगत सिंह का जन्म दिवस मनाया जायेगा. स्कूलों में बच्चे भगत सिंह की तरह हैट पहन कर आयेंगे, जिस पर लिखा रहेगा 'आइ मिस यू भगत सिंह,! उनकी प्रतिमा के बगल में लाल झंडे टांग कर नेता चिल्लाते हुए बतायेंगे कि भगत सिंह ने संसद में बम क्यों फोड़ा, दूसरे दिन कुछ और सेज परियोजनाओं की मंजूरी पर हस्ताक्षर किये जायेगें. विचार-गोष्ठी में यह बताया जायेगा कि भगत सिंह आम जनता की आजादी चाहते थे, कुछ लोगों को नक्सली होने के आरोप में गिरफ्तार किया जायेगा, अखबारों में छपेगा कि भगत सिंह, छुआछूत, धर्म, जाति की संकीर्णता को दूर करना चाहते थे, नीचे के कालम में किसी दलित को मंदिर में घुसने के कारण पीट-पीट कर मार डालने की खबर रहेगी. जन्म दिवस मनाने के बाद भगत सिंह की प्रतिमा को किसी कमरे में रख दिया जायेगा और गांधी के जन्म दिवस की तैयारी शुरू कर दी जायेगी. यह एक परंपरा रही है.

दुनिया के सामने भगत सिंह का जो चेहरा जाने-अनजाने में रखा गया है वह किसी जुनूनी व मतवाले देशभक्त का है. भगत सिंह के विचार, उनके दर्शन को लोगों से दूर रखा गया पर वक्त ने देश को उस मुकाम पर ला खड़ा किया है जहां भगत सिंह के विचार और प्रासंगिक होते दिख रहे है. जिस आम जन की बात भगत सिंह करते थे वह मंहगाई, गरीबी, भूख से पीड़ित होकर अपने को हाशिये पर महसूस कर रहा है. वह देश में बनाये गये कानूनों, नियमों की पक्षधरता को देखते हुए उनके प्रतिरोध में खड़ा हो रहा है.
देश को अंगरेजी सत्ता से मुक्त होने के 60 साल बाद भी देश का आम जन उस आजादी को नहीं महसूस कर पर रहा है, जो भगत सिंह, पेरियार, आंबेडकर का सपना था. आज वे स्थितियां, जिनका भगत सिंह ने स्वतंत्रता आंदोलन के समय आकलन किया था, लोगों के सामने हैं. आंदोलन के चरित्र को देखते हुए भगत सिंह ने कहा था कि कांग्रेस के नेतृत्व में जो आजादी की लडाई लड़ी जा रही है, उसका लक्ष्य व्यापक जन का इस्तेमाल करके देशी धनिक वर्ग के लिए सत्ता हासिल करना है. यही कारण था कि देश का धनिक वर्ग गांधी के साथ था. उसे पता था कि जब तक देश को अंगरेज़ी सत्ता से मुक्ति नहीं मिलेगी, तब तक बाजार में उसका सिक्का जम नहीं सकेगा. आखिरकार हुआ भी वही, जिसे भगत सिंह गोरे अंगरेजों से मुक्ति व काले अंगरेजों के शासन की बात करते थे. आज आम आदमी इस शासन तंत्र में अपनी भागीदादी महसूस नहीं कर रहा है. उसके लिए आज भी अंगरेजों द्वारा दमन के लिए बने नियम-कानून नाम बदल कर या उसी स्थिति में लागू किये जा रहे हैं. आजादी के 60 वर्ष बाद सरकार को एफ़्स्पा, पोटा, राज्य जन सुरक्षा अधिनियम जैसे दमन कानूनों की जरूरत पड़ रही है, क्योंकि जन प्रतिरोध का उभार लगातार बढ़ रहा है.
आजादी के बाद कई मामलों में स्थितियां ओर भी विद्रूप हुई हैं. जहां 42 में केरल के वायनाड जिले में इक्का-दुक्का किसानों की मौतें होती थीं, वहां आज स्थिति यह है कि देश के विभिन्न राज्यों में हजारों हजार की संख्या में किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं. आज भी देश में कालाहांडी जैसी जगह है, बल्कि काला हांडी से एक कदम ऊपर देश की एक बड़ी आबादी है, जो जीवन की मूलभूत जरूरतों से जूझ रही है. जो इसलिए भी जिंदा रखी गयी है ताकि अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिये वह सस्ते में श्रम को बेच सके. इसके बावजूद आज एक बड़े युवा वर्ग के लिए करने को काम नहीं है. इस कारण वह किसी भी तरह का अपराध करने को तैयार है. भारत एक बड़ी युवा संख्या की विकल्पहीन दुनिया है.
ऐसी स्थिति में यह बात सच साबित होती है कि भगत सिंह जिस आजादी की तीमारदारी करते थे वह आजादी देश को नही मिल पायी है. भगत सिंह देश, दुनिया को लेकर एक मुकम्मल समाज बनाने का सपना देखते थे, जिसमें वे अंतिम आदमी को आगे नहीं लाना चाहते थे, बल्कि सबको बराबरी पर लाना चाहते थे. जहां जाति, धर्म, भाषा के आधार पर समाज का विभाजन न हो. वे शोषण व लूट-खसोट पर टिके समाज को खत्म करना चाहते थे, वे किसी प्रकार के भेदभाव को खारिज करते थे. उनका मानना था कि दुनिया में अधिकांश बुराइयों की जड़ निजी संपत्ति है. इस संपत्ति को शोषण व भ्रष्टाचार के जरिये जुटाया जाता है, जिसकी सुरक्षा के लिए शासन की जरूरत पड़ती है. यानी निजी संपत्ति के ही कारण समाज में शासन की जरूरत पड़ती है.
एक लंबे अरसे तक भगत सिंह को आतंकी की नजर से देखा जाता रहा, जिसको भगत सिंह ने अपने साथियों के साथ विचार-विमर्श करते हुए कहा कि मैं आतंकी नहीं हूं. आंतकी वे होते हैं, जिनके पास समस्या के समाधान की क्रांतिकारी चेतना नहीं होती. क्रांतिकारी चिंतन की पकड़ के अभाव की अभिव्यक्ति ही आतंकवाद है, पर क्रांतिकारी चेतना को हिंसा से कतई नहीं जोड़ा जाना चाहिए, हिंसा का प्रयोग विशेष परिस्थिति में ही करना जायज है, वरना किसी जन आंदोलन का मुख्य हथियार अहिंसा ही होनी चाहिए. हिंसा-अहिंसा से किसी व्यक्ति को आतंकी नही माना जा सकता. हमें उसकी नीयत को पहचानना होगा, क्योंकि यदि रावण का सीताहरण आतंक था तो क्या राम का रावण वध भी आतंक माना जाये? अपने अल्पकालिक जीवन के दौरान भगत सिंह ने कई विषयों पर लिखा, पढ़ा व सोचा समझा, और यह कहते गये कि-
हवा में रहेगी, मेरे ख्याल की बिजली.
ये मुस्ते खाक है फानी रहे, रहे न रहे...

Thursday, September 20, 2007

मुम्बई से लौटते उदास चेहरों की दास्ताँ

प्रभात
बीस साल हुए जब प्रभात बरेली मे अमर उजाला के दफ्तर गए फोटोग्राफर बनने और बन गए अखबारनवीस । बरेली संस्करण मे सम्पादकीय के सभी विभागों मे काम किया, रिपोर्टिंग से लेकर रविवारीय पन्ने के संपादन तक। लेकिन, फोटोग्राफी की लत थी कि बढती ही गई । जितना घूमा या फिर लिखा, उसके मूल मे वजह तसवीरें उतारना ही रहा। आजकल दैनिक जागरण के नए अखबार आई नेक्स्ट के लिए काम कर रहे हैं । बजार के लिए उन्होने ये लेख अपनी किताब "आज के दौर की अखबारनवीसी " से दिया है ।



मुम्बई से आने वाली रेलगाड़ियों मे इन दिनों फैज़ाबादियों की तादाद बढ़ गई है। गर्मियों की शुरुआत के साथ पूर्वांचल लौटने वाले यों भी ज्यादा होते हैं। ब्याह - गौने के दिन जो शुरू होने वाले हैं। मगर इन चेहरों पर उत्साह का कोई उल्लास नही, सफ़र की थकान भी नही, सब कुछ छीन लिए जाने की उदासी दिखती है। मुम्बई पुलिस इन दिनों नाईट क्लबों -बियर बार को लेकर अचानक सख्त हो गई है। रोज़ रोज़ छापे , गिरफ्तारियां , नए नए कायदे-निर्देश। इन बंधनों ने उनसे उनकी रोज़ी छीन ली। तारून के बेलगरा, तकमीनगंज,मामगंज, और रसूलाबाद जैसे इलाकों से मुम्बई गए तमाम कुनबे लॉट आये हैं। मुम्बई के नई 'नैतिकता' के मारे इंसानी चहरे , नाचने गाने के बहाने सनातन इंसानी फितरत मे अपनी बेहतरी तलाशते चिचुक गए चहरे। हाथ, गले और उँगलियों की सुनहरी चमक उनकी पेशानी की रेखाओं पर कोई असर नही डालती। कल क्या होगा, किसी को अंदाज़ नही। अब देखा जाएगा दो चार महीने बाद।

बेलगरा बाज़ार से आगे जाती सड़क के किनारे खडे सेमल के उंचे पेड़ों से उतरकर आँचल फैलाती शाम , साईकिल के कैरियर पर बैठी वह युवती एक झटके से उतरकर घर के सामने पडी चारपाई पर बैठ जाती है। सवालिया निगाहों से ताकती है और फिर दूसरी तरफ मुह करके पान की पीक थूकती है। उस घर को देखकर एकबारगी किसी को अंदाज़ नही होगा कि मुम्बई की चकाचौंध भरी दुनिया से भी इसका कोई नाता हो सकता है। मगर सच तो यही है। माया मुम्बई मे रहती हैं अपनी बेटी खुशबु के साथ। गहनों से लदी स्थूलकाय महिला मीना हैं, उनकी बहन। थोड़े संकोच के साथ शुरू हुई पूरी बातचीत मे मुम्बई के कारोबार की असलियत अप्रत्यक्ष रुप से बनी रही। शुरुआत की माया की बुआ रामवती ने जो एक जमाने मे थियेटर कम्पनी मे अभिनय करती और गाती भी थी। बनारस मे बाकायदा उस्ताद शुकरुल्ला से तालीम और फिर थियेटर की बाइज़्ज़त नौकरी। मगर तब का ज़माना और था, रियासतें थीं , जमींदार थे सो ऎसी तंगी नही थी। माया मुम्बई मे हाजी अली के पास एक बियर बार मे काम करती थी। काम यानी डांस। पिछले महीने किसी होटल मे किसी नेता को पीट दिया गया और फिर तो ख़ूब हंगामा हुआ। कार्निवल बार, जहाँ वह काम करती थी, बंद हो गया। काम के बारे मे पूछने पर बताती हैं कि नाच गाना और क्या। कभी किसी ने पूछ लिया कि जूस पीने चलोगी तो चले जाते हैं। वहीँ हज़ार पांच सौ दे देता है। फिर होटल मे बुलाता है। यही है कुल जिंदगी। फारस रोड पर चिक्कलबाड़ा की एक चाल, जिसमे एक ही कमरे मे बाथरूम और रसोई सब कुछ और बार की जगमग रातें। यहाँ लौट आने पर मुम्बई बहुत याद आता है उन्हें। क्या मुम्बई की सुबह ! 'कहॉ का सवेरा बाबू। रात भर तो हाड तोड़ते -जागते हैं , कब सुबह हो जाती है पता ही नही चलता। फिर लौटकर दिन भर सोते हैं' बताती हैं माया। उन्हें अफ़सोस है कि अपनी बेटी के लिए कुछ नही कर पाई । फिरोजी रंग की पोशाक मे घर के अन्दर बाहर घूमती वह किशोरी भी उनके साथ बार मे जाने लगी थी। हाव भाव मे ग्राम्य परिवेश से अलग होने की अभिजात किस्म की झलक। पुलिस ने कह दिया है कि २१ साल से कम की युवतियाँ अब बार मे डांस नही करेंगी। सो उसका आसरा भी गया। यों और करे भी तो क्या, उसे पढ लिखा नही पाई। बेटा है जो यहीं रहकर पढता है।

बताती हैं कि एक भाई को पढ़ाया लिखाया , दूसरे भाई-भाभी और बहन को भी देखती है। ये सब यहीं गाँव मे ही रहते हैं। कई बार मन करता है कि कुछ और जमीन खरीदकर यहीं गाँव मे ही रह जाएँ मगर हो नही पाता। यह मुम्बई की कशिश है जो बार बार खींच ले जाती है। माया को पछतावा है , मुम्बई से लौट आने का नही, इस पेशे मे आने का। कहती हैं कि अब न तो पैसा है और ना ही इज़्ज़त रह गई है इस पेशे मे। फिर भी यही क्यों ! माया का जवाब बाक़ी सारे सवालो को खामोश कर देता है। ' इस पेशे मे सबको तलाश है एक एसे शख्स की जो अपना लेगा, ढ़ेर सारा पैसा देगा और अपना नाम भी। इज़्ज़त की इसी जिंदगी की तलाश मे जाने कितनी जिंदगियां गर्क हो जाती हैं। मगर आस है कि पीछा ही नही छोडती।' यह सेलयुलायड का 'चांदनी बार' नही, जिंदगी है, जहाँ विडम्बनाएँ हैं , विद्रूपता है और विरोधाभास ऐसे कि फिल्मी कहानी फिस्स हो जाए ।

Saturday, September 1, 2007

कटरा बी आर्ज़ू और आज का लोकतंत्र

टरा बी आर्ज़ू जब पहली बार मैंने पढ़ना शुरू किया था तो यह मुझे साधारण से मुहल्ले की कहानी लगी थी-जैसा हर मुहल्ला होता है. राही साहब की पाठकों से सीधे एक रिश्ता बना लेने और अपने पाठ के बारे में एक विश्वसनीयता कायम कर लेने की खासियत के चलते मुझे उनके उपन्यास बेहद प्रिय रहे. इस उपन्यास के साथ भी यही हुआ. जैसे ही थोडा़ आगे बढे़, पाया कि हम एक कुचक्र के गवाह बनने जा रहे हैं-जो हमारे सामने कई दशकों से रचा जा रहा है. अंततः वह कुचक्र इमरजेंसी के रूप में हमारे सामने आया.

कटरा बी आर्ज़ू शायद पहला हिंदी उपन्यास है जो देश की संसदीय प्रणाली और लोकतंत्र के बारे में भ्रमों को इतनी स्पष्टता से दूर करता है. अब भी अनेक लोग मिल जायेंगे, जो यह विश्वास करते हैं कि संसद के होते हुए, न्यायपालिका के होते हुए और फिर मीडिया के होते हुए हम पर फ़ासिज़्म थोपा नहीं जा सकता. मगर इमरजेंसी और कुछ नहीं थी सिवाय फ़ासिज़्म के. उन काले दिनों के बारे में बहुत कुछ कहा-लिखा जा चुका है. आपातकाल संसद के ज़रिये ही लगाया गया था. और तब न तो मीडिया और न न्यायपालिका की कुछ खास कर पाये थे.
आज भी वैसे ही हालात हैं. बल्कि उससे बदतर. और अब तो आपातकाल की भी कोई ज़रूरत नहीं रही. संसद चलती रहती है, अदालतों में रोज़ इजलास बैठती है, अखबार हैं, चैनल हैं और गुज़रात में हज़ारों अल्पसंख्यकों को कत्लेआम से नहीं बचाया जा सका, आदिवासियों को उनकी ज़मीनों से खदेडा़ जा रहा है और कोई उनकी नहीं सुनता, नर्मदा घाटी के हज़ारों परिवारों को उनके घरों से खदे़ड़ दिया गया है, उनके लिए पुनर्वास की कोई व्यवस्था किये बगैर उनके घर डुबा दिये गये हैं. विरोधियों के लिए जेलें और पुलिस की गोलियां हैं, दमन के तमाम उपाय हैं. क्या आपतकाल में इससे अलग कुछ होता है?
और ऐसे में याद आता है ज़र्मनी का अतीत. हिटलर भी संसद के ज़रिये ही सत्ता में आया था. तो संसद ऐसी चीज़ नहीं है कि उससे आश्वस्त हुआ जाये, और अदालतें, और मीडिया...

और ऐसे में राही मासूम रज़ा के कटरा बी आर्ज़ू की याद आती है... जो हमें बताता है कि सपने कैसे कुचल दिये जाते हैं, और लोगों के मुंह से रोटियां कैसे छीन ली जाती हैं, और यह कि एक जनविरोधी व्यवस्था कभी लोकतांत्रिक मूल्यों की वाहक नहीं हो सकती, भले ही वह लोकतंत्र के स्थूल उपादानों जैसे संसद, संविधान आदि को बने रहने दे. राही का यह उपन्यास इमरजेंसी के बहाने देश को मिली आज़ादी के छद्म को भी उजागर करता है.

Friday, August 17, 2007

वो काटा !!

पन्द्रह अगस्त के दिन मैंने अपनी छत से नोयडा के आसमान मे न जाने कितनी रंग बिरंगी पतंगों को नाचते , इठलाते देखा और शायद पतंग से ज्यादा लोगों को। अच्छा लगा । मैंने इस पतंग बाजी को आज़ादी से जोड़ने की कोशिश की तो यही नतीजा हाथ लगा कि जैसे पतंग आज़ादी से उड़ रही है लेकिन डोर किसी और के हाथ मे है , उसी तरह कहने को तो हम आजाद हैं पर डोर किसी दूसरे देश के हाथ मे हैं। फर्क यही है कि १९४७ के पहले हम मजबूरन गुलाम थे , आज हमने अपनी गुलामी मोल ले ली है। खैर, इस देश की राजनीति को छोड़ कर मैं अपनी सीधी साधी बात पर आती हूँ। मैं एक छोटे से शहर रांची की लडकी हूँ। हालांकि है तो वो भी एक राजधानी ही लेकिन so called delhi वाले , मेरा मतलब है नोयडा वाले बिना किसी भावना का ख्याल किये मुझे गाँव का ठहरा देते हैं। या शायद चार महानगरों को छोड़कर बाक़ी जगह इनके लिए गाँव जैसा ही है।
बहरहाल , वहाँ ऎसी पतंगबाजी का नज़ारा रोज़ ही होता है। इसके लिए किसी दिन विशेष का इन्तजार करने की जरूरत नही। बस मौसम का ख्याल जरूर होता है। इसे एक काम कि तरह नही लिया जाता है कि आज उडाना है , उड़ा लिया। और ऐसा उड़ाये कि बीस-पच्चीस हादसे तो तय हैं। मैंने अपने शहर मे इसका जो आनंद लिया , यहाँ ऎसी बात ही नही दिखी। ये सच है कि पतंग कोई मंहगी चीज़ नही पर इसका मर्म तो समझिए । वहाँ किसी की पतंग हलकी सी फटी तो चिपका के उडाई जाती है। किसी के छत पर चली गई तो जब तक उससे ले ना लें , चैन कहॉ ? सीढ़ी के नीचे चाहे चार पतंगे छुपा के रखी हों लेकिन किसी की लूटी हुई पतंग को उड़ाने का मजा कि कुछ और है। पर यहाँ ऐसा कुछ नही कि । एक कटी तो रईसों की तरह दूसरी निकली , हलकी सी फटी तो फाड़ के फेंक दिया । हो सकता है एक दिन उडाना है तो इस सबका ख्याल नही रखा जाता है। हमारे यहाँ तो रोज़ उडाना है , सो बज़ट के बारे मे भी सोचना पड़ता है।
पहले हम सभी छत पर चढ़ जाते थे। भाई पतंग उडाता और हम पीछे पीछे हेल्पर बनके रहते । कभी कभी डोर हमारे हाथ मे आ जाती , बस फिर क्या था.....हम लगते थे पगलाने। धीरे धीरे ये सब छूटता गया। अब उड़ाना तो नही हो पाता पर सबको उड़ाते चिल्लाते देख बहुत मजा आता है। और अगर कोई पतंग मेरे छत पर आ जाती है तो मैं चुपचाप उसे छुपा देती हूँ और सड़क पर घूमने वाले बच्चों को बुलाकर दे देती हूँ , जिनके लिए ये बहुत कीमती होता है और उसको पाकर उनके चहरे की ख़ुशी मेरे लिए शायद सबसे कीमती है।

कम्युनिस्ट मुसलमानों के बीच काम क्यों करें

बजार पर चढ़ी शाहनवाज आलम की पोस्ट आतंकवादी कौन बनाता है के जवाब में एक बेनामी टिप्पणी छपी है जिसमें कम्युनिस्टों के नाम लानत भेजी गई है- यह कहते हुए कि मुसलमानों के बीच इनका कोई काम नहीं है और यहां उनका जनाधार भाजपा से भी कम है। इस आक्रोश का कारण चाहे जो भी हो लेकिन बात यह तथ्य से परे है। देश के जिन-जिन इलाकों में कम्युनिस्टों का काम है वहां अन्य समुदायों की तरह ही आनुपातिक रूप से मुसलमानों के बीच भी उनका जनाधार मौजूद है, फिर चाहे वह केरल, बंगाल और त्रिपुरा हो, आंध्र प्रदेश और बिहार हो, या फिर उत्तर प्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और अन्य राज्यों के छिटपुट इलाके हों। यह बताने का मकसद सिर्फ एक तथ्य का हवाला देना है, इसमें आत्मसंतुष्टि जैसी कोई बात नहीं है। यह हकीकत अपनी जगह है कि मुसलमानों के बीच कम्युनिज्म तो क्या उदार-वाम या मध्यमार्गी सोच की भी अपनी कोई मुख्तलिफ धारा नहीं है। इसपर अलग से विचार करने की जरूरत है क्योंकि समाजवादियों से लेकर क्षेत्रीय दलों, और तो और कांग्रेंस तक, शायद ही देश की कोई राजनीतिक धारा दावे के साथ यह कह सके कि मुसलमानों के बीच एक स्वतंत्र सोच के रूप में उसकी मौजूदगी है और वहां जरूरत पड़ने पर वह किसी कट्टरपंथी अलोकतांत्रिक विचारधारा का डटकर मुकाबला कर सकती है। कोई दो पैसे के फायदे के लिए या अपनी किसी मजबूरीवश आपके चुनाव चिह्न पर मोहर मार देता है, इसका मतलब यह तो कतई नहीं लगाया जाना चाहिए कि वह आपकी विचारधारा से जुड़ा हुआ है। कम्युनिस्टों के लिए मुसलमानों को अपनी पार्टी या जनसंगठनों में शामिल करना और मुस्लिम समुदाय के भीतर अपनी स्वतंत्र धारा बनाना दो अलग-अलग काम हैं, जिनमें पहला काम वे अपनी समझ के मुताबिक पूरी ईमानदारी और मनोयोग से करते आए हैं। इसमें जो ढीलापोली हुई है उसका शिकार उनका पूरा जनाधार हुआ है, मुसलमानों के लिए इसमें अलग से कहने को कुछ नहीं है। जहां तक दूसरे काम का सवाल है, इस बारे में अलग से उनका कभी कोई एजेंडा नहीं रहा और इसे लेकर उनके बीच काफी कन्फ्यूजन भी देखने को मिलता रहा है। बुनियादी मुश्किल दर्शन और विचारधारा के स्तर पर आती है। एक समुदाय के रूप में मुसलमानों के बीच नास्तिकता के लिए कोई गुंजाइश नहीं है और कम्युनिस्ट उस सामूहिक धार्मिकता के साथ कोई तालमेल नहीं बिठा पाते जो किसी भी मुस्लिम जमावड़े में सहज ही जाहिर होने लगती है। पुराने कम्युनिस्टों का सामना इस मुश्किल से शायद उतना न हुआ हो लेकिन जिन कम्युनिस्टों ने पिछले बीस वर्षों में, यानी 1987 के बाद से मुसलमानों के बीच काम किया है, वे इससे काफी नजदीकी से जूझते रहे हैं। आक्रामक हुए हिंदुत्व ने इस समुदाय के भीतर जो असुरक्षा पैदा की उसमें इस समुदाय के उदार हिस्सों को कम्युनिस्ट अपने सबसे भरोसेमंद सहयोगी मालूम पड़े। लेकिन इस लगाव को कोई दीर्घकालिक स्वरूप नहीं दिया जा सका क्योंकि इसका कोई सांगठनिक या वैचारिक आधार खोजा या बनाया नहीं जा सका। नतीजा यह हुआ कि जो राजनीतिक-सामाजिक शक्तियां 1989 से 1992 तक लगभग लगातार ही मुसलमानों के खिलाफ चली सांप्रदायिक हिंसा में दुम दबाए घर में बैठी रहीं या वक्त-बेवक्त मुसलमानों के खिलाफ खड़ी रहीं, वे ही बाद में उनका नेतृत्व करने लगीं। जमीनी स्तर पर 1992 के बाद से एक समुदाय के रूप में मुसलमानों का जबर्दस्त अराजनीतिकरण हुआ। विधायिका, कार्यपालिका और न्यापालिका से लेकर मीडिया तक हर संस्था से अचानक हुए मोहभंग ने उनके पैरों के नीचे से जमीन खिसका दी। आत्मरक्षा के नाम पर वे चुनाव में किसी को भी वोट देने को तैयार होने लगे, मोहल्ले का सबसे कुंदजेहन कट्टरपंथी गुंडा उन्हें अपना रक्षक लगने लगा और घरों के भीतर लाल किले से लेकर ह्वाइट हाउस तक इस्लाम का हरा झंडा गाड़ देने का दावा करने वाले कैसेट और सीडी देखने-सुनने में उन्हें अपने-अपने से लगने लगे। सन् 2004 के अप्रत्याशित सत्ता परिवर्तन के बावजूद यह स्थिति आज भी रत्ती भर बदली नहीं है लिहाजा जो लोग मुसलमानों के बीच वामपंथी या उदारवादी विचारधाराओं की अनुपस्थिति से चिंतित हैं वे यह अच्छी तरह जान लें कि यह मामला बहुत गंभीर है और इस बारे में सिर्फ कम्युनिस्टों की लानत-मलामत करने का मतलब होम्योपैथी से ऐडवांस स्टेज कैंसर का इलाज करने जैसा है। इस बारे में मैं धनिए की छौंक की तरह थोड़ा सा अपना तजुर्बा बता सकता हूं जो हर मायने में किसी भी आम कम्युनिस्ट जैसा ही है। आरा शहर में मुस्लिम इलाकों में हमारा काम पेशा आधारित था। कुछ पेशे ऐसे थे जिसमें मुसलमान मजदूरों की बहुतायत थी। जैसे दर्जी का काम, बक्सा बनाना, कुछ खास तरह के चमड़े के काम, घोड़े की नाल ठोंकने जैसे छिटपुट काम, फुटपाथ की दुकानदारी या ठेले पर अंडा-आमलेट बेचना वगैरह। इन पेशों में हमारी पार्टी सीपीआई-एमएल का पुराना संगठन मौजूद था। काम के दौरान संपर्क में आए हमारे साथी सीधे-सादे जुझारू लोग थे। राजनीतिक आधार पर अपने समुदाय में काम करना या संगठन बनाना उनकी कल्पना से परे था। 1989-92 में इस दिशा में काम शुरू हुआ तो थोड़ी कामयाबी मिली। आरा के मुस्लिम इलाकों में कुल 32 बिरादरियों के लोग रहते थे जिनमें ज्यादातर के चौधरियों के यहां हमारी बैठकें हुईं। और तो और, जुमे के दिन हमें मस्जिदों में भाषण देने के लिए बुलाया गया। लेकिन उसके बाद मुस्लिम समाज के ताकतवर और रसूखदार लोगों को लगने लगा कि अब उनकी हैसियत इतनी ही रह गई है कि वे दर्जियों, बक्सा बनाने वालों और अंडे बेचने वालों के साथ मिलकर मीटिंग करें, नारा लगाएं। नतीजा यह हुआ कि जल्द ही वे लालू यादव की पार्टी के नजदीक चले गए और मुसलमानों के बीच हमारी पार्टी पुनर्मूषको भव वाली स्थिति में आ गई। इस बात को लेकर मैं आश्वस्त हूं कि कम्युनिस्टों के लिए मुसलमानों के बीच अपना प्रभावक्षेत्र बढ़ाने का रास्ता वर्गीय और तबकाई संगठनों के निर्माण से ही शुरू होता है लेकिन इसमें भी एक मुश्किल है कि खड्डी चलाने और दर्जीगिरी जैसे मेहनतकश पेशों में भी उनका दखल दिनोंदिन कम होता जा रहा है। जहां तक सामुदायिक पहलकदमी का सवाल है तो देश की तमाम उदार वाम धाराओं को इस बारे में मिलकर कोई पहलकदमी लेनी चाहिए- फिर चाहे वे समाजवादी हों, कम्युनिस्ट हों या गांधीवादी स्वयंसेवी संगठन हों। इस तरह की एक बुनियादी कोशिश राम मनोहर लोहिया ने जमायते उलेमा ए हिंद के जरिए की थी जो ज्यादा सिरे नहीं चढ़ी लेकिन उस कोशिश से जो कुछ भी सीखा जा सके उसे सीखा जाना चाहिए। माले की तरफ से इस दिशा में हुई इन्कलाबी मुस्लिम कॉन्फ्रेंस अपने संगठन का दायरा पार नहीं कर पाई लेकिन उस पहल से भी कुछ बचाया जरूर जाना चाहिए। विचार के स्तर पर इस मामले में कम्युनिस्टों को एक बड़े जोखिम के लिए तैयार होना होगा। आप सामूहिक धार्मिकता में यकीन करने वाले लोगों और नास्तिक दर्शन में भरोसा रखने वालों को दिल से एक कभी नहीं कर सकते। मेरे ख्याल से कम्युनिस्ट विचारधारा पर काम करने वालों को इन दोनों विचारधाराओं के बीच सैकड़ों या हजारों साल लंबे सह-अस्तित्व और बहस के लिए जगह तैयार करनी चाहिए। लेनिन जब अजरबैजान और उज्बेकिस्तान जैसे तुर्क-मुस्लिम देशों की कम्युनिस्ट क्रांति को ईरान, अफगानिस्तान और अरब मुल्कों तक फैलाने का सपना देखते थे उसके पीछे शायद उनकी कुछ ऐसी ही सोच रही हो। स्टालिन की सोच का टाइम-फ्रेम इतना लंबा नहीं था लिहाजा उन्होंने 15 आजाद समाजवादी मुल्कों के एक ढीले-ढाले लेनिनवादी जमावड़े को रूसी नेतृत्व और लौह दीवारों वाले एक अकेले देश सोवियत संघ में तब्दील कर दिया। इससे न सिर्फ एक लंबी क्रांति योजना का असमय गर्भपात हो गया बल्कि मुस्लिम समुदाय के भीतर कम्युनिस्टों को लेकर एक स्थायी संदेह का बीज भी पड़ गया। इसका सबसे पहला शिकार ईरान की तूदे पार्टी हुई, जिसे एशिया की पहली समाजवादी पार्टी होने का गौरव प्राप्त है। बाद में इसी प्रक्रिया की पूर्णाहुति स्टालिन के मानसपुत्र ब्रेज्नेव ने अफगानिस्तान में रूसी फौजें भेजकर कर दी। इस इतिहास को आज पोंछा तो नहीं जा सकता लेकिन मुसलमानों के बीच उदार-वाम विचारधारा के प्रसार को अगर सचमुच कम्युनिस्ट एजेंडा पर लाना है तो भविष्य के लिए सोच के स्तर पर बंद कुछ दरवाजे जरूर खोले जा सकते हैं।

Tuesday, August 14, 2007

कम्युनिस्टों का मुसलमानो के बीच क्या आधार है ?


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

अक्सर
बेनाम लोग गुमनाम रहकर कुछ ऐसा कर जाते हैं जिसे आसानी से नज़रअंदाज नही किया जा सकताहालांकि ये बेनाम भाई कि एक टिपण्णी ही थी लेकिन इसे ऐसे ही जाने देना या इस पर बहस का होना खुद मे कई सवाल खडे कर देता हैशाहनवाज़ के लेख "कौन बनाता है आतंकवादी " पर आयी इस बेनाम टिपण्णी ने भी कई सारे सवाल खडे किये हैं

बेनामी ने कहा…

शाहनवाज़ भाई ,
आप ने जिस गहराई से पूरे घटनाक्रम का विश्लेषण किया है , वह कबीले तारीफ़ है| लेकिन मैं आपकी कुछ बातों से इत्तेफ़ाक नही रखता | मसलन अगर सांप्रदायिकता की बात आती है तो मैं कम्युनिस्टों को भी वही खड़ा देखता हूँ जहाँ भाजपा और कॉंग्रेस जैसी सांप्रदायिकता का समर्थन करने वाली पार्टियों को. फ़र्क बस इतना है कि वामपंथी अगर बाएँ हैं तो ये लोग दाहिने हैं | लेकिन हैं दोनो अगल बगल ही. दोनो की राजनीति की दुकान ही एक दूसरे के विरोध से चल रही है और वो भी सब हवा मे ही. अगर ज़मीने बात करें तो ज़रा मुझे बताइए कि कम्युनिस्टों का मुसलमानो के बीच कहाँ और कैसा आधार है ? क्या गुजरात मे आपका कोई आधार है ? क्या तमिलनाडु मे आपका संगठन मुसलमानो के बीच कोई आधार है ? अच्छा चलिए , ये बताइए कि आपका बिहार के मुसलमानो मे कितना आधार है ? कोई मुसलमान आपका कहा मानता है ? उनमे भी तो उसी तरह के अंतर्विरोध पाए जाते हैं जिस तरह हिंदुओं मे . बल्कि कभी कभी तो ज़्यादा ही पाए जाते हैं , कम नही. अब आप कहेंगे कि मुसलमान अल्पसंख्यक हैं , दबाए गये हैं इसलिए उनकी आवाज़ को प्राथमिकता दी जाएगी . तो भाई साहब कब तक ? और मुसलमानो की जनसंख्या मे भागीदारी पर ध्यान जाता है आपका ? 18 करोड़ से उपर ही हैं , कम नही हैं. इतने मुसलमान तो पाकिस्तान मे भी नही हैं जितने कि यहाँ , भारत मे . हैं. और इस 17 करोड़ मे भी वही हिंदुओं वाला हाल है . कुछ ऊँची जातियाँ सबसे ऊपर हैं उनके नीच फिर उनके नीचे और फिर उनके नीचे. कभी इस बेहाल हुए हाल को आपमे से किसी ने जानने की कोशिश की या उसे ठीक करने की ? जब आपका कोई जनाधार नही है उनके बीच , कोई काम नही है , सिर्फ़ चिल्लाना है तो पड़े चिल्लाते रहिए. कुछ संघ वाले सुनेगे , च्यूटपुटीया छोड़ेंगे , फूल झड़ी जलाएँगे और उसकी रोशनी मे आप भी हर किसी को दिखाई देंगे. लीजिए , आपकी राजनीतिक पहचान का संकट तो हल हो गया. लेकिन मुसलमानों का क्या हुआ ? वो तो हर दंगो मे वैसे ही मारे जाएँगे जैसे कि मारे जाते हैं.

Sunday, August 12, 2007

कौन बनाता है आतंकवादी ?

शाहनवाज़ आलम
शाहनवाज़ का यह लेख बजार के शुरूआती दौर मे पोस्ट किया गया थामुम्बई दंगो को ध्यान मे रखते हुए यह आज और ज्यादा प्रासंगिक हो गया हैइसलिये इसे फिर से प्रकाशित कर रहा हू क्योंकि जिन्होंने इसे नही पढा था और जिन्होंने पढा था , उनके लिए ये एक अच्छा मुद्दा साबित हो सकता है

न्यायालय द्वारा किसी जघन्य अपराधी को सज़ा सुनाए जाने के बाद उसकी कही गयी बातों को अमूमन नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है . आमतौर पर एसे मे अपराधी भी ख़ुद को बेक़सूर ही कहता है लेकिन 1993 के मुंब्ई बम धमाकों के एक प्रमुख आरोपी अब्दुल ग़नी तुर्क ने अपना जुर्म और सज़ा दोनो क़बूल करते हुए विशेष टाडा न्यायालय के सामने जो बाते कही उसे लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता मे आस्था रखने वाला कोई भी आदमी नज़रअंदाज़ नही कर सकता . तुर्क , जिसके द्वारा रखे गए बमों से उन धमाको मे मारे गाये कुल 273 लोगों मे से 113 लोग हताहत हुए थे , ने सज़ा सुनने के बाद कहा कि वो क़ानून व्यवस्था मे आस्था रखने वाला व्यक्ति था और गुज़र बसर के लिए टैक्सी चलाता था . लेकिन 1992 के बाबरी ध्वंस और उसके बाद हुए दंगो मे मारे गए उसके समुदाय के लोगो तथा सांप्रदायिक पुलिस द्वारा क़ी गयी ज़्यादतियों के कारण वह बहुत हताश और क्रोधित था . उसने अपना जुर्म स्वीकार करते हुए कहा क़ी अगर क़ानून उसे सज़ा देता है तो श्री कृष्ण आयोग द्वारा दंगो मे दोषी पाए गाये लोगों को भी सज़ा मिलनी चाहिए . तुर्क क़ी इन बातों को नज़रअंदाज़ करना इसलिए ख़तरनाक है क्योकि ये हमारे पूरे तंत्र और उसकी खोखली धर्मनिरपेक्षता पर सवालिया निशान खड़ा करती है तो वही इसकी पृष्टभूमि मे एक बिना किसी अपराधिक रिकॉर्ड वाले साधारण नागरिक के एक ख़तरनाक आतंकवादी बनने क़ी पूरी प्रक्रिया को भी दर्शाती है . जिसके केंद्र मे अपने देश मे किसी इस्लामी सत्ता क़ी स्थापना या शरिया क़ानून लागू करवाने जैसी जेहादी मंशा नही बल्कि न्याय न मिल पाने के कारण उपजी मायूसी है. बहरहाल , बात करते हैं उस श्री कृष्ण आयोग की जिसे दिसंबर 1992 और जनवरी 1993 के मुंब्ई दंगो तथा बम विस्फोटों की जाँच के लिए नियुक्त किया गया था . जिससे इन हादसों मे मारे गये लोगों के परिजन ने न्याय मिलने की उम्मीद की थी और जिसके पूरे न होने के कारण तुर्क जैसे कई और आतंकवाद के रास्ते पर भटकने के लिए मजबूर हुए. 6 दिसंबर,1992 को बाबरी मस्जिद के गिराए जाने के बाद मुंब्ई में भड़के सांप्रदायिक दंगो में, जिनमे सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ 900 लोग मारे गये थे, जिनमे 575 मुस्लिम ,275 हिंदू और 45 अज्ञात धर्म (ये वो लोग थे जिनकी लाशों के कमर के निचले हिस्से ग़ायब थे या सड़ चुके थे जिसके कारण हमारी धर्मनिरपेक्ष पुलिस उनके धर्मों का पता नही लगा पाई) व 5 अन्य धर्मों के लोग थे . इसकी जाँच के लिए तत्कालीन नरसिंहा राव सरकार ने 25 जनवरी 1993 को एक आयोग नियुक्त किया, जिसके कार्य क्षेत्र मे मुंब्ई बम धमाकों को भी बाद मे जोड़ दिया गया . आयोग ने 16 फ़रवरी 1998 को महाराष्ट्र सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी . श्री कृष्ण आयोग की ये रिपोर्ट आज तक दंगो पर नियुक्त किए गये तमाम आयोगों की अपेक्षा ज़्यादा गंभीर और तटस्थ थी , विश्लेसन मे भी और सुझावों मे भी . उसकी गंभीरता का अंदाज़ सिर्फ़ इससे लग जाता है की विभिन्न राजनैतिक व धार्मिक संगठनों की बातें तो सुनी ही गयीं , मुंब्ई के टाटा इन्चिट्युट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ के विशेषज्ञों की एक समिति भी दंगो के पीछे के सामाजिक व आर्थिक कारणो की जाँच के लिए नियुक्त की । तो वंही पुलिस व्यवस्था का, जिसका सांप्रदायिक रुझान इन दंगो मे खुलकर दिखा पर अध्ययन करने की ज़िम्मेदारी सीमा सुरक्षा बल के पूर्व महासंचालक के.एफ़.रुसतमज़ी व महाराष्ट्र के पूर्व पुलिस महानिदेशक डी.रामचनद्रन को सौंपी . ज़ाहिर था कि ऐसी गंभीर जाँच से मुख्यधारा कि तमाम पार्टियों का चरित्र खुलकर जनता के सामने आ जाता . इसलिए इस आयोग के गठन के समय से ही इसे कई तरह से बाधित करने कि कोशिश सरकारें करने लगी नरसिंहा राव कि कांग्रेस सरकार,जिस पर न्यायमूर्ति श्री कृष्ण आयोग ने रिपोर्ट मे कई जगह तल्ख़ टिप्पड़ी की है , ने 23 जनवरी 1996 को इस जाँच मे अधिक समय लग जाने का बहाना बनाकर आयोग को समेट दिया . सरकार कि ओर से यह तर्क दिया गया कि आयोग की रिपोर्ट के कारण दंगो के पुराने ज़ख़्म हरे हो जाएँगे . आम जनता मे इस मुद्दे पर तीखी प्रतिक्रिया हुई . कई संगठन इस निर्णय के विरुढ़ अदालत मे भी गाये . अंत मे जन दबाव के कारण इन दंगो मे प्रमुख भूमिका निभाने वाली भाजपा की 13 दिनो वाली सरकार के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को 28 मई 1996 को आयोग कि पुनर्स्थापना करनी पड़ी . लेकिन जैसे जैसे आयोग अपने निष्कर्षों कि ओर बड़ रहा था , वैसे वैसे इसे लेकर विभिन्न राजनीतिक पार्टियों मे खलबली मचने लगी . हद तो तब हो गयी , जब बिना रिपोर्ट पढ़े ही शिवसेना - भाजपा गठबंधन सरकार ने इसे हिंदू विरोधी और मुस्लिम समर्थक घोषित करते हुए मानने से इनकार कर दिया . विपक्षी कॉंग्रेस भी रस्म अदायगी मे थोड़ा ही हो हल्ला मचाकर शांत हो गयी . आख़िर क्या था इस रिपोर्ट मे कि पक्ष-विपक्ष ने अपने तमाम दलगत विभेदों को मिटाकार इस रिपोर्ट को दबा जाने कि साझा कोशिशें की और अंततः इसमे वे सफल भी हुए . 700 पृष्ठों तथा दो हिस्सों मे विभाजित श्री कृष्ण आयोग कि रिपोर्ट ने 1992-93 के दंगो के लिए मुख्य रूप से शिवसेना-भाजपा को ज़िम्मेदार माना है . रिपोर्ट के पहले खंड के पृष्ठ 21 पर ठाकरे का उल्लेख किया है कि "8 जनवरी,1993 से शिवसेना और शिव सैनिकों ने मुसलमानों के जान माल पर संगठित हमले किए . एक शक्तिशाली सेनापति की तरह इन हमलों का नेतृत्व शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने किया. उनके मार्गदर्शन मे शाखा प्रमुखों से लेकर शिवसेना नेताओं तक , सभी ने दंगो मे भाग लिया." इसी तरह इस दंगो के समय शासन कर रही सुधाकर राव नाइक की कॉंग्रेस सरकार की दंगो को रोकने मे अक्षमता तथा पार्टी के अंदर इस मुद्दे पर नेताओं द्वारा एक दूसरे से पुराना हिसाब चुकाने की अवसरवादिता को भी रिपोर्ट ने बेनक़ाब किया है . श्री कृष्ण आयोग कि रिपोर्ट के दूसरे खंड के पेज 161 पर सुधाकर राव नाइक का बयान दर्ज है तो पेज 164 व 167 पर शरद पवार की गवाही है . ये दोनो बयान काफ़ी मुखर हैं . नाइक ने अपनी गवाही मे, शरद पवार जो उस समय केंद्र मे रक्षा मंत्री थे , पर दंगो को नियंत्रित करने मे सहयोग नही करने का आरोप लगाया है तो वंही शरद पवार ने अपने बयान मे नाइक के आरोपों का खंडन का उनके उपर ही अक्षमता का आरोप लगाया है . इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि कॉंग्रेसियों ने अपनी दलगत प्रतिस्पर्धा के लिए इस महत्वपूर्ण जाँच आयोग का उपयोग किस तरह किया . आयोग के समक्ष " दंगों को नियंत्रित करने के लिए सेना क्यू नही बुलाई गयी ? " के जवाब मे सुधाकर राव द्वारा दिया गया बयान हमारे तंत्र के संचालन कि ज़िम्मेदारी संभालने वाले लोगो कि योग्यता व क्षमता का भंडाफोड़ करता है न्यायमूर्ति ने पेज 164 पर दर्ज किया है कि " सेना की टुकड़ी को आदेश कौन देगा , इस बारे मे मुख्यमंत्री अनभिग्य थे ." दंगो के समय सुधाकर राव नाइक से वरिष्ठ नागरिकों के एक शिष्ट मंडल ने मुलाक़ात की और पुलिस पर मुसलमानों के विरुढ़ पक्षपातपूर्ण रवैये की शिकायत की तथा शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे को गिरफ़्तार करने की माँग की . लेकिन सरकार ने न तो पुलिस को फटकारा और ना ही ठाकरे या शिवसैनिकों पर कोई कार्यवाही करने का निर्णय लिया . जिसका कारण उन्होने आयोग के समक्ष " राजनीतिक" बताया . इन दंगों मे पुलिस की संदिग्ध भूमिका की जाँच पर आयोग ने अपनी रिपोर्ट का बड़ा हिस्सा ख़र्च किया और पाया की पुलिस की सांप्रदायिक मनोवृत्ति के कारण ही दंगो को नियंत्रित नही किया जा सका . तत्कालीन अपर पुलिस आयुक्त वी एन देशमुख की इस बात को आयोग ने स्वीकार किया है की " मुसलमानों के विरुद्द पुलिस वालों के मान मे एक गाँठ थी जो उनके व्यवहार मे दिखी " (पेज 12) पुलिस ने इन दंगो में कैसी भूमिका निभाई इसकी कुछ बानगी रिपोर्ट मे देखी जा सकती है " 9 जन वरी को माहिम मे रात 9 बजे शिवसेना नगर सेवक मिलिंद वैद्य के नेतृत्व मे हिंदुओं ने मुस्लिम बस्ती पर हमला किया . पुलिस हवलदार संजय गावदे भी हाथ मे तलवार लेकर इस हमले मे शामिल हो गाये " (पेज 14) तुर्क द्वारा न्यायलय में कही गयी बातों पर तो आयोग जैसे मुहर लगाता है . दंगो और बम विस्फोटों के परस्पर संबंधों को स्वीकार करते हुए आयोग कहता है की " बाबरी मस्जिद के ढहने और दिसंबर 1992 , जन वरी 1993 मे हुए दंगो का कारण मुंबई मे सांप्रदायिक फूट पड़ गयी , जिसके कारण मुसलमानों के मान मे असुरक्षा और क्रोध की भावना उपजी . राज्य सरकार और पुलिस उनकी निगाह मे दोषी थी . इन दोनो ने उनके हितों की रक्षा करने के बदले सांप्रदायिक दंगों का नेतृत्व करने वाले लोगों से हाथ मिलाया , ऐसा मुस्लिमों को पक्का विश्वास था . इन मुस्लिमों का उपयोग राष्ट्र विरोधी शक्तियों द्वारा किया गया . पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंसी आई एस आई की मदद से उन लोगों ने क्रोधित मुस्लिमों को भड़का कर प्रतिशोध के लिए प्रेरित किया . दुबई के कुख्यात तस्कर दाउद इब्राहिम की मदद से एक बड़ा षडयंत्र रचा गया , जिसके अनुसार हिंदू बाहुल्य क्षेत्रों मे बम विस्फोट किए गये . जिनके लिए दंगों मे सताए गये मुस्लिम युवकों का इस्तेमाल किया गया . (प्रथम खंड , पेज 43 ) श्री कृष्ण आयोग के इन तथ्यों के आलोक मे देखा जाए तो स्पष्ट है की कुछ लोगों को कठोर से कठोर सज़ा देने पर भी आतंकवाद की समस्या हल नही होनी है . उल्टे अपने समुदाय मे तुर्क जैसे लोगों की छवि एक " शहीद " की ही बनेगी , जिसने न्याय न मिलने के कारण आतंक का रास्ता अपनाया . दरअसल हमारे देश के "मुस्लिम आतंकवाद" का किसी वैश्विक जेहादी मिशन से उतना संबंध नही है जितना कि हमारी अंदरूनी राजनीति से . जिसके केंद्र मे अपने ही देश मे न्याय न मिलने के कारण उपजी उपेक्षा बोध और आक्रोश है . लेकिन "सांप्रदायिक इंजीनियरिंग " पर ही पल बढ़ रही राजनीतिक पार्टियाँ इन उपेक्षितों के न्याय के दायरे मे लाकर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगी , इसकी उम्मीद भी किसे है ?

दबी , दबती , दब गई जन पत्रकारिता

डा पुश्कर राज
पुष्कर राज जी पी यू सी एल के सचिव हैं लेकिन इससे ज्यादा वे उनकी आवाज़ हैं जिनकी कोई आवाज़ नहीया फिर जिनकी आवाजें जबरदस्ती दबा दी गई हैंकुछ लोगो के लिए मानव अधिकारों की बात करना एक फैशन की तरह है और कुछ के लिए पैशन की तरहहम कहते तो हैं कि आपकी आज़ादी वहाँ से शुरू होती है जहाँ मेरी नाक ख़त्म होती है लेकिन मानव अधिकारों के मामले मे तो कही नाक है और ना ही आज़ादीपड़े होते रहें आज़ादी के साठ साल पूरेआज भी वही बेआवाज़ हैं जो आज से साठ साल पहले थेमीडिया भी मानव अधिकारों के वही मामले उठाती है जिसमे टी आर पी हो , ग्लैमर हो , अंग्रेजी हो और चट्खारापन होइन सारी बातो से पुष्कर जी काफी व्यथित नज़र आते हैंइन्होने यह लेख मेरे आग्रह पर एक संध्य्कालीन अखबार के लिए दिया था जो अब मैं बजार मे प्रकाशित कर रहा हूँ -राहुल


कुछ वर्ष पहले एक जाने माने पत्रकार द्वारा संचालित एक पत्रकारिता आधारित वेबसाईट ने रक्षा सौदों से सम्बंधित घोटालों का पर्दाफाश किया था। नतीजतन देश की राजनीति व नौकरशाही मे खलबली मच गई। भाजपा , जो उस समय सत्ता मे थी उसके अध्यक्ष को इस्तीफ़ा देना पड़ा था तथा कई सैनिक अफसरों पर गाज भी गिरी। देश की जनता ने 'तहलका' नामक इस वेबसाईट की काफी तारीफ की। आम जनता का मानना था कि राष्ट्रिय हित ही पत्रकारिता का पहला धर्म होना चाहिऐ न कि किसी विशेष वर्ग अथवा दल का हित साधन। आम नागरिक का मानना था कि तहलका ने रक्षा सौदों मे भ्रष्टाचार उजागर करके सामाजिक हित का कार्य किया , लेकिन अगले तीन चार साल तहलका नामक इस संस्था के लिए काफी कष्ट भरे साबित हुए। भाजपा सरकार ने बदले की भावना से प्रेरित होकर उस छोटे से औधोगिक प्रतिष्ठान के खिलाफ कई मुकदमे बना दिए जिसकी आर्थिक सहायता तहलका को मिल रही थी। नतीजा यह हुआ कि तहलका बंद हो गया , पत्रकार बेरोजगार हो गए और सरकार के खिलाफ आवाज़ उठाना महंगा साबित हुआ। हालांकि कुछ अंतराल बाद तहलका फिर शुरू हुआ जो कि एक अलग किस्सा है ।
यह घटना इस तथ्य की द्योतक है कि पत्रकारिता एक मुश्किल शगल है। खास करके जब इसके पीछे एक राजनितिक अथवा आर्थिक वरद हस्त न हो और अगर राजनितिक और आर्थिक उद्देश्य पत्रकारिता के पीछे होंगे तो वह पत्रकारिता नही है बल्कि एक व्यवसाय है ,जैसे दुकान पर बैठकर चीज़े बेचना। यही बात आम नागरिक को समझनी चाहिऐ। विशेषकर तब जब वह एक लोकतांत्रिक समाज मे रह रहा हो। देश मे आज की पत्रकारिता के परिदृश्य पर अगर नज़र दौडायें तो कमोबेश एक समरूप स्थिति नज़र आती है। जो चमकीला है वह बिकता है। अगर किसी अमीर के घर चोरी होती है तो वह पहले पेज के खबर बनती है , गरीब के घर की चोरी को अन्तिम पन्ना भी नसीब नही होता । मुझसे अक्सर मेरे टेलीविजन के पत्रकार दोस्त कहते हैं कि कही कोई मानव अधिकारों के हनन का मामला हो तो हमे बतायें। पर हाँ , जिसके मानव अधिकारों का हनन हो उसकी प्रोफाइल अच्छी होनी चाहिऐ । मतलब अगर वह महिला है तो खूबसूरत हो , और उस पर भी अंग्रेजी बोले । बेहतर टी आर पी का तर्क जन संवेदनाओं तथा जन आकाँक्षाओं को दरकिनार करते हुए हमारे वर्तमान जीवन की पत्रकारिता की कड़वी सच्चाई है।
पिछले दिनों दादरी मे किसानो की विरोध सभा को पुलिस ने बेरहमी से कुचला। स्त्रियों , बच्चों व बूढों को लाठियों से पीता गया , गाँव वालों के घरों को लूटा गया लेकिन क्योंकि किसानो का समूह कोई टेलीविजन चैनल या अख़बार नही चलाता इसलिये इस खबर की रिपोर्टिंग का नजरिया इस तरह का था जैसे सरकार तो अधिकृत जमीन का मुआवजा दे रही है पर किसान ही बखेडा खड़ा कर रहे हैं। क्योंकि मामला देश के एक बडे औधोगिक प्रतिष्ठान से जुडा था इसलिये रिपोर्टरों द्वारा भेजी लंबी तफ्सीलें मालिकों के इशारे पर अख़बार मे एक या दो कालम की बनकर रह गई ,वह भी बीच के किन्ही पन्नो पर।
पूरे देश के पत्रकारिता पर नज़र डालें तो आप पाएंगे कि अख़बार , टेलीविजन और एफ एम् रेडियो पर सिर्फ औधोगिक प्रतिष्ठानों का क़ब्जा है। इसीलिये जब हिंदुस्तान टाइम्स के कर्मचारी अपनी आम करने की परि स्थितियों के विरोध मे हड़ताल करते हैं या यू एन आई के पत्रकार जी टी वी द्वारा अधिग्रहण का विरोध करते हैं तो उनके विरोध का स्वर जनता तक नही पंहुचता । उदारीकरण और भूमंडलीकरण के इस दौर मे संसाधनों का केंद्रीकरण , पूँजी का केंद्रीकरण , ज्ञान का केंद्रीकरण तथा सूचना का केंद्रीकरण एक उभरता खतरा है। इस ख़तरे की चाय देश के विभिन्न भागों मे महसूस की जा रही है तथा विरोध के स्वर छोटे छोटे जन आंदोलनों के रुप मे उभर रहे हैं।
इन जन आंदोलनों को एक व्यापक स्तर पर लाने के लिए जन पत्रकारिता की जरुरत है। ऎसी पत्रकारिता जो आम जनता की आवाज़ आम जनता के बीच पंहुचाते हुए मानवीय अस्मिता तथा अधिकारों की रचना करे। ऐसा तभी होगा जब इनमे से ही कुछ लोग धन की बैसाखी का सहारा लिए बिना पत्रकारिता को एक सामाजिक कर्म के रुप मे देखेंगे और पोषित करेंगे।
फोटो-जय देव सिंह , किसान , दादरी फोटो साभार - बी बी सी

ये बुर्जुवा सरकार कब समझेगी ?

प्रदीप सिंह
सरकार कपडे उतार कर नाच रही है -
पहला भाग यहाँ पढ़ें
पहली ध्यान देने की बात यह है कि बडे उद्योगों मे एक रोजगार पैदा करने के लिए जहाँ तकरीबन एक करोड़ रुपये लगते हैं वहीं छोटे उद्योग मे दस लाख और हथकरघा उद्योग तो सिर्फ लाख दो लाख से ही शुरू हो जाता है। इस सबकी तुलना मे सिंचित जमीन मे नाम मात्र के निवेश से ही बड़ी संख्या मे रोजगार पैदा किया जा सकते हैं। लेकिन सरकार का ध्यान तो परमाणु समझौता - हथियारों की खरीद मे लगा हुआ है , इस तरफ नही। या फिर उद्योगों की तरफ जिसके लिए वो किसानो का पेट सर हाथ पैर सब कुछ काटने के लिए नई नई नीतियाँ बनाने मे लगी है। बडे उद्योग जहाँ छोटे उद्योगों को खाकर लघु और कुटीर उद्योग से बने रोजगार के अवसरों को ख़त्म कर रहे हैं , वहीं कृषि जमीन का बहुत बड़ा हिस्सा भी इन उद्योगों को दिया जा रहा है । जो भी किसान इसमे आनाकानी कर रहा है उसे जान से मार डाला जा रहा है। ग्रामीण क्षेत्र के परंपरागत व्यवसाय बडे उद्योगों की वजह से नष्ट हो रहे हैं। सरकार इस पैतृक एवम ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ को बचने के लिए कुछ कर तो रही नही है उल्टे उस जर्जर हो चुकी पीठ पर खर्चे का और ज्यादा बोझ लादने के लिए तैयार बैठी है।
लघु और कुटीर उद्योगों की रक्षा के लिए यह आवश्यक है कि कुछ विशिष्ट वस्तुओं के उत्पादन का कार्य इन्हें ही दिया जाय। लघु एवम कुटीर उद्योगों से जिन उत्पादों का निर्माण संभव है उनसे बडे उद्योगों को वंचित किया जाय। आज पंखे और टोकरियाँ बनाने के क्षेत्र मे बड़ी बड़ी कम्पनियाँ लग गई हैं । अब तक बांस की टोकरियों एवम पंखे और ग्रामीण क्षेत्रों की अन्य जरूरतों का सामान गाँव मे ही बनाने वाले लोग थे , लेकिन अब ये सामान बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गिरफ्त मे है। मिटटी के बरतन बनाने वाले कुम्हार बेकार बैठे हैं। क्यों ? क्योंकि इसकी जगह अब प्लास्टिक ने ले ली है । ये मिटटी के कुल्हडों से सस्ता भी पड़ रहा है। प्लास्टिक से होने वाले ख़तरे का अनुमान तो सबको है लेकिन फिर भी सब कबूतर बने हुए हैं।
एक अनुमान के अनुसार सन २०२० तक भारत की जनसँख्या डेढ़ अरब तक पहुच जायेगी। उस हालत मे तकरीबन पचास करोड़ बेरोजगार हमारे देश मे होंगे। इससे अधिक भी हो सकते हैं लेकिन कम होने के आसार नज़र नही आते। और इस संख्या मे आधे से ज्यादा बेरोजगार होंगे युवक । अभी क्या है कि सरकार की ओर से औधोगिक क्रान्ति का सब्ज़ बाग़ दिखाया जा रहा है । शेयर बाज़ार के भावों से उन्नति का बखान किया जा रहा है। आवारा पूँजी के दम पर अंतरिक्ष मे छलांग लगाने के सपने देखे और दिखाए जा रहे हैं। हमारे प्रधानमंत्री और उनके अफसर बडे बडे दावे कर रहे हैं। मनमोहन सिंह कह रहे हैं कि आगामी पांच वर्षों मे नौ करोड़ रोजगार पैदा होंगे। इसी तरह का दावा पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी किया था कि प्रत्येक वर्ष एक करोड़ रोजगार के अवसरों को उनकी सरकार बनाएगी । उस सरकार का क्या हश्र हुआ ये किसी से छिपा नही है। सरकारें अगर वस्तु स्थिति का आकलन करके कोई दूरगामी नीति नही बनाएँगी तो यह समस्या विस्फोटक रुप अख्तियार कर लेगी । भारत खेती किसानी का देश है। दिल्ली नही है भारत। यहाँ की संस्कृति खेती पर ही निर्भर है। सीमित पूँजी वाला भारत बेरोजगारी की समस्या का हल केवल कृषि के विकास से ही कर सकता है। हमने एक बंगलौर तो बना लिया है लेकिन हमारी खेती अभी भी मानसून पर निर्भर है। न तो पर्याप्त सिंचाई की व्यवस्था है और न ही खाद , बीज एवम फसलों का उचित मूल्य। अखिर ये बुर्जुवा सरकार कब ये समझेगी कि विकास नीचे से ऊपर की तरफ चलता है न कि ऊपर से नीचे की तरफ।
(अभी तो ये शुरुआत है ...)

सरकार कपडे उतार कर नाच रही है

प्रदीप सिंह
अपनी आज़ादी को साठ साल होने जा रहे हैं । शायद इसी उपलक्ष्य मे किसानो को एक तोहफा दिया जाने वाला है - सिंचाई के खर्चे को और बढ़ाकर । पहले से ही कर्ज़ मे डूबे किसान , जिनके पढे लिखे बच्चों ने कब का घर छोड़ दिया है और कही बड़ी अच्छी कमाई भी नही कर रहे हैं कि वो अपने अपने बाबू को इतना पैसा दे दें कि धान लग जाय, उनके लिए स्वतंत्रता के ये साठ साल कोई मायने नही रखते । वहीं गाव के नौजवान ताश के पत्तों के साथ शहर का सपना भी संजोये हुए हैं। बेरोजगारी अलग से कोढ़ मे खाज का काम कर रही है। जो कुछ बच रहा है उसे सेज लील जाने को तैयार बैठा है। इन्ही सारी समस्यायों की विवेचना लेकर बजार मे प्रदीप जी आये हैं ......

भारत मे बेरोजगारी बढती जा रही है। देश की संसद के पास इस समस्या का कोई हल नही है। आर्थिक सर्वेक्षण मे यह बताया जा रहा है कि ग्रामीण क्षेत्रों मे १० % पुरुष व इससे भी ज्यादा महिलाएं रोजगार से वंचित हैं। यह संख्या बहुत ही कम है। हमारे देश मे बेरोजगारी की समस्या बहुत ही भयावह हो गई है। अशिक्षित लोग तो कुछ छोटा मोटा काम पा भी जा रहे हैं , किन्तु पढे लिखे बेरोजगारों की संख्या मे गुणात्मक वृद्धि हो रही है। विडम्बना तो यह है कि विकास के बावजूद बेरोजगारों की संख्या मे बढोत्तरी हो रही है और लगातार रोजगार के अवसर घट रहे हैं। स्वतंत्रता के बाद से ही जिस क्षेत्र मे रोजगार पैदा करने की अपूर्व क्षमता है , उस क्षेत्र की तरफ पर्याप्त ध्यान नही दिया गया। यदि हमारे देश मे सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाली कांग्रेस सरकार ने कृषि क्षेत्र को थोडा भी गम्भीरता से लिया होता तो आज भारत की दूसरी ही तस्वीर होती। लेकिन उनके लिए तो कम्प्यूटर महत्वपूर्ण है , किसान नही। हमारे देश मे आज किसान और कृषि की दशा अत्यंत ही दयनीय है। कृषि की दुर्दशा के पीछे गहरी साजिश है। विकसित देश विकास शील देशों पर जबरन दबाव डालकर कृषि पर मिलने वाली सब्सिडी कम करा रहे हैं। कृषि उत्पादन के लगत मूल्य मे वृद्धि , कृषि सब्सिडी मे लगातार की जा रही कमी , सिंचाई के साधनों का आभाव , किसानो का ऋण के जाल मे उलझना , फसलों का समुचित मूल्य न मिलना आदि अनेक कारण हैं । अब तो किसानो को सिंचाई का भी अच्छा खासा मूल्य चुकाना पड़ेगा। बड़ी संख्या मे किसान अब खेती करना पसंद ही नही कर रहे हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार ४०% ग्रामीण युवक खेती नही करना चाहते । कृषि से लगातार घट रही आय के कारण ग्रामीण क्षेत्र से लोग शहर की तरफ पलायन कर रहे हैं। इस तरह शहरों पर जहाँ काम के इच्छुक लोगों का बोझ बढ रहा है , वहीं कृषि पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। सवाल यह है कि जब प्रोद्योगिकी के प्रभाव से हर क्षेत्र उन्नति कर रह है तो कृषि पिछ़ड क्यों रही है। इसका एक उत्तर हो सकता है कि सिंचाई की पर्याप्त सुविधा का न होना और कृषि को उद्योग की तरह विकसित न करना। आज बडे उद्योगों के लिए जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को किसानो की उपजाऊ जमीन पर उद्योग लगाने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है । पूँजी निवेश को रिझाने के लिए हमारी सरकार किसी भी निवेशक के सामने अपने कपडे उतार कर नाचने के लिए तत्पर दिखती है। जो उद्योग लग रहे हैं उनमे स्वचालित मशीनों को प्रधानता दी जा रही है। ओद्योगिक घराने कारखानों मे ऎसी मशीने लगा रहे हैं जहाँ कम से कम मजदूरों की जरुरत पडे।

जारी .....

Thursday, August 9, 2007

अभी और कितनी मंहगी होगी खेती बाड़ी ?

किसानो से वसूला जाएगा सिचाई का खर्चा
मदन जैडा
देश के अन्नदाता की दुश्वारियाँ बढ़ने वाली हैं। खाद,बीज और अन्य जरूरतों के लिए , लिए गए कर्ज़ का जाल , मंडी और मौसम की मार के बाद अब सरकार भी किसान की जेब से पैसा निकलने की तयारी मे है। पहले ही घाटे का सौदा साबित हो रही खेती बाड़ी अब और मंहगी होने वाली है। योजना आयोग की योजना है कि सिंचाई परियोजनाओं के संचालन और रख रखाव की लागत किसानो स वसूल की जाय।
इस बारे मे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के निर्देश पर शरद पवार के नेतृत्व मे बनी राष्ट्रिय विकास परिषद की उप समिति की सिफारिशों को आयोग अन्तिम रुप देने मे जुटा है। आयोग सूत्रों का कहना है कि कई दक्षिणी राज्यों ने सैधान्तिक तौर पर सहमति व्यक्त कर दी है लेकिन उत्तरी राज्यों -उत्तर प्रदेश , पंजाब , हरियाणा अदि ने भारी विरोध किया है। बहरहाल , इसी महीने संभावित एन डी सी बैठक मे इस मुद्दे पर विचार किये जाने की सम्भावना है। ११ वीं योजना के दौरान एक करोड़ दस लाख हेक्टेयर असिंचित भूमि को सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया है। इस मद मे १,३७,५०० करोड़ रुपये खर्च होंगे। केंद्र चाहता है कि एक बार योजना बना देने के बाद सरकार को योजनाओं के संचालन और रख रखाव पर किये जाने वाले खर्चे से मुक्ति मिल जाय। पहले से चल रही सिंचाई परियोजनाओं के संचालन और रख रखाव पर सालाना १५-२० हज़ार करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं। यदि पुरानी योजनाओं पर ही सरकार इतना खर्च करती रहेगी तो नई योजनायें कैसे शुरू हो पाएँगी। इसलिये योजनाओं का खर्च किसानो की जेब काटकर निकला जाएगा। जो खाका आयोग ने तैयार किया है उसके अनुसार सिंचाई परियोजनाओं की लगत पांच साल के भीतर वसूल की जाय। इसके लिए किसानो को सिंचाई के पानी का हज़ारों रुपये प्रतिमाह शुल्क देना पड़ेगा । ज़्यादातर राज्यों मे सिंचाई सुविधा किसानो को निः शुल्क हासिल है। कुछ राज्यों मे बहुत मामूली शुल्क लिया जाता है। आयोग कमेटी के इस सिफारिश पर सहमत है कि शुल्क तय करने का अधिकार राज्यों को दिया जाय ताकी वह अपने हिसाब से निर्धारण कर सकें।

Tuesday, July 31, 2007

ग्लोबल होती दुनिया में प्रेमचंद का यथार्थ

आज जब हम प्रेमचंद को याद करते हैं तो हमें यह भी याद करना चाहिए कि उन्होंने हमें किन हथियारों से लैस किया. जब देश को गांधी का आंदोलन एक अंधेरी गुफ़ा में ले जा रहा था, जहां समझौतों और दलालियों का एक अंतहीन सिलसिला था और जब लुटेरों की एक फ़ौज बन रही थी, प्रेमचंद ने समय रहते अपनी रचनाओं से हमें उनके प्रति सचेत किया. आज के दौर में भी हम उन हथियारों की ज़रूरत शिद्दत से महसूस करते हैं. कथाकार शैवाल का आलेख.

ग्लोबल होती दुनिया में प्रेमचंद का यथार्थ

शैवाल
सृजन में व्याख्या सन्निहित नहीं होती. सृजन मनुष्य और समुदाय के बीच का सेतुबंध है. रचना पाठ के जरिये हम तक पहुंचती है. हर काल में उसके पाठ से अलग अर्थ की प्राप्ति होती है. समाज काल और रचना-तीनों के अंतर्संबंध हैं. इसी कारण ग्लोबल विलेज में प्रेमचंद की रचनाओं का पुनर्पाठ आवश्यक है. उसकी अलग उपादेयता दिखेगी. उपादेयता इस संदर्भ में कि मनुष्य और समुदाय का अस्तित्व कैसे बचे आखिर.
मैं एक कथा कहना चाहूंगा. तब शायद यह प्रसंग ज्यादा खुले. क्योंकि हम बेहद नाजुक दौर से गुजर रहे है. यह ऐसा पड़ाव है, जहां एक व्यक्ति जीवित बचता है तो समुदाय का दूसरा हिस्सा मर जाता है. यहां सपने बचते हैं तो आदमी की कीमत मर जाती है. परंपरा और नैतिक मूल्यों के शवदाह केंद्र में अपने सपने को फलता-फूलता देख कर हम खुश नहीं हो सकते. होते हैं तो हम कब्रिस्तान के उस मुलाजिम की तरह हैं जो मुर्दों की आमद पर खुश होता है. हम आदमी की तरह बच पायें, ऐसे कातिल दौर में, तो समझें-जिंदगी जीने का यह तरीका ही कला है. कला वाकई समुदायजीवी जीवन जीने की पद्धति है. पर हम मानते नहीं. हम तो मानते हैं कि कला बैठे-ठाले लोगों का कार्य व्यापार है. जो कार्य व्यापार बाजार में बिकता नहीं या बिकने को तैयार नहीं होता, वह सब कुछ भद्रजनों की दृष्टि में कला है. तंत्र भद्रजनों के इशारे पर चलता है. तो होता या? कला हाशिये पर चली गयी या डाल दी गयी. यह अलग-सा सवाल है कि कला को हाशिये पर डाल कर या समुदाय बोध से अलग होकर अपने वजूद को हम बचा सकते हैं. आज के विध्वंसक दौर का यह सब से बड़ा प्रश्न है. निश्चय ही यह भूमंडलीकरण की पैदाईश है.

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कथा कहता हूं. रेड इंडियन लोगों की बस्ती थी एक. वहां के निवासी खाली वक्त में छोटी-छोटी टोकरियां बनाते थे, उन्हें रंगते थे. टोकरी खूबसूरत हो जाती थी. एक चॉकलेट कंपनी के अधिकारी ने वहां की टोकरियां देखीं. उसके मन ने कहा-इन टोकरियों में चॉकलेट रख कर बेचा जाये तो बिक्री बढ़ जायेगी. उसकी दृष्टि में बाजार की मांग थी. वह बस्ती में पहुंचा. वहां के बुजुर्ग से मिला. पूछा- एक टोकरी का दाम कितना लोगे?
बुजुर्ग ने कहा- दो रुपये. अधिकारी चला गया. पर एक सप्ताह बाद फिर आया. पूछा- 10 टोकरियां चाहिए, दाम क्या होगा? बुजुर्ग ने बताया, अरे वही दो रुपये. अधिकारी चला गया. दो दिन बाद फिर आया. पूछा- मुझे 10 हजार टोकरियां चाहिए. अब दाम तय करो. बुजुर्ग चिंता में पड़ गया. बोला- सोचना होगा. तुम एक सप्ताह बाद आओ. अधिकारी नियत वक्त पर आया. बुजुर्ग ने छूटते ही कहा- बात-विचार कर लिया बस्ती के लोगों से. एक टोकरी का दाम 10 रुपये होगा.
अधिकारी अवाक रह गया. खीझ कर बोला- पागल हुए हो. दाम बढ़ा रहे हो. मांग बढ़ने पर दाम घटना चाहिए, बाजार का नियम है. बुजुर्ग ने कहा, पागल तो तुम बना रहे हो हमें. हमें 10 हजार टोकरियां बनाने के लिए अपनी खेती-बारी सब को छोड़ना होगा. तो इसका दाम कहां जुड़ेगा?
आज के दौर में जब लाखों किसान आत्महत्या कर रहे हैं, केंद्र सरकार की नीतियां गांव को दरकिनार कर रही हैं, सेज ग्राम के निवासी निरंतर विद्रोह कर रहे हैं, हमें प्रेमचंद इस रेड इंडियन समुदाय के वृद्ध सदस्य की तरह दिखते हैं. इनकी रचनाओं में वर्णित समुदाय के संकेतवत निर्णय प्रभावी दिखते हैं. उनमें भारतीय ग्रामीण समाज की दस्तावेजी पहचान सन्निहित है. उस पहचान के आधार पर हमें अपनी प्राथमिकताएं तय करनी होंगी, चाहे वह नीतियों की प्राथमिकता हो या सामाजिक व्यवहार की या आर्थिक मसलों की. वस्तुत: यथार्थ से बहुत आगे तक का रास्ता तय करता है इन रचनाओं का यथार्थ. सच्चाई यही है कि जब आप यथार्थ को पाते हैं, एक निजी संदर्भ से गुजरते हैं और यथार्थ का स्वरूप इसीलिए संकुल होता है. लेकिन जब आप यथार्थ को देने की प्रक्रिया में होते हैं, लोक आपकी निजता में समाहित होता है और इसी कारण रचना यथार्थ से बड़ी हो जाती है. और उसकी संघर्ष यात्रा आगे के दिनों में भी जारी रह पाती है क्योंकि आदमी, उसके जीवन और जीवन संघर्ष के बीच पैदा हुई एक संपूर्ण रचना- पुन: लोक जीवन और लोक संघर्ष में समाहित हो जाती है. प्रेमचंद की रचनाएं इस तथ्य को प्रमाणित करती हैं.
पर इन रचनाओं का ग्लोबल प्रक्षेपण हम नहीं कर पा रहे हैं. क्यों? प्रेमचंद जयंती पर यह सवाल अपने आप से करना वाजिब होगा. हैरी पॉटर की एक करोड़ प्रतियां एक दिन में बिकती हैं. नौ सौ रुपये की किताब की प्रतियों की अग्रिम बुकिंग होती है. इसमें सिर्फ जादुई कारनामे हैं. तो क्या विशुद्ध अयथार्थ और बाजार के करिश्मे के आगे सामाजिक यथार्थ हार रहा है? क्यों हमारे बच्चे पांच-दस रुपयेवाले पंचफूल को खरीद कर पढ़ने को आतुर नहीं दिखते.
जवाब न्यूयार्क के विश्व हिंदी सम्मेलन में मिल जाता है. चीन के हिंदी विद्वान छियांग छिंग कुई यह स्वीकारते हैं कि हिंदी बहुत पहले अंतरराष्ट्रीय भाषा बन चुकी है, लेकिन विडंबना यह है कि भारत में हिंदी को लेकर वह आग्रह नहीं है जो होना चाहिए. हम छाती ठोंक कर कभी यह नहीं कहते कि प्रेमचंद हिंदी के पर्याय हैं. हम गर्व के साथ विदेशी भाषा-भाषियों के सम्मुख यह नहीं कह पाते कि तुम्हारे पास पूंजी है, बाजार है, सुविधाएं हैं, सुख है पर हमारे पास प्रेमचंद हैं.

पेंटिंग : वीर मुंशी

Monday, July 23, 2007

नारद का रंग भगवा क्यों है ?

नारद का रंग भगवा क्यों है ?






यह
अवचेतन मे हो गया या चेतना के साथ ?

Tuesday, July 17, 2007

मेले और झमेले के बीच फंसी हिंदी

क्या हमारी भाषा साहित्य के बजाय सत्ता की मुखापेक्षी है ?
मंगलेश डबराल
न्यूयार्क मे आठवा विश्व हिंदी सम्मेलन कुछ ठोस या नया किये बग़ैर लगभग घटनाहीन तरीके से सम्पन्न हो
गया। इस आयोजन के सिलसिले मे असमंजस ,अफरातफरी और खींचतान का जो माहौल था ,उसे देखते हुए यह उम्मीद भी नही थी कि आठवें सम्मेलन मे ऐसा कोई काम होगा जो पिछले सात सम्मेलनों से अलग , नया और स्मरणीय हो। सम्मेलन के अंत मे रखे गए प्रस्तावों मे भी कोई नया मुद्दा नही उभरा। हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने का संकल्प भी शायद आठवीं बार दोहराया गया होगा और जहाँ तक नागरी लिपि का एक सर्वमान्य-सर्वसुलभ यूनीकोड बनाने की बात है , तो यह जरूरी माँग लंबे समय से उठाई जाती रही है। लेकिन हिंदी फाँट के मानकीकरण मे किसी हिंदी सेवी संस्था की वास्तविक रूचि ना होने के कारन इस भाषा मे तरह तरह के फाँट चल रहे हैं और एक दूसरे के लिए पेचीदगियाँ पैदा कर रहे हैं। कुल मिलाकर इस सम्मेलन की उपलब्धि यह थी कि उदघाटन के मौक़े पर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून ने एक मिनट हिंदी मे भाषण करके वहाँ एकत्र लोगों को 'चमत्कृत' और 'गदगद' कर दिया। उन्होने 'नमस्ते' किया, हालचाल पूछे और कहा कि 'मैंने दिल्ली दूतावास मे रहते हुए हिंदी सीखी है,पर यह मुझे अच्छी तरह से नही आती' और 'मेरा दामाद हिंदी जानता है' । यह महासचिव का शिष्टाचरण था ,जिसका सिर्फ एक प्रतीकात्मक महत्त्व है। कई वर्ष पहले अटलबिहारी वाजपेयी ने भी संयुक्त राष्ट्र मे अचानक हिंदी मे अनुप्रास-अलंकारमय भाषण करके ऎसी ही प्रतीकात्मकता का परिचय दिया था,जिसकी चर्चा कट्टर हिंदी-हिंदूवादी आज भी किया करते हैं। हमारे प्राण ऐसे ही प्रतीकों मे बसते हैं और असली मुद्दे अपनी जगह ठहरे , अनसुलझे या सड़ते-गलते रहते हैं।

शायद ऎसी ही प्रतीकात्मकता की आलोचना मे प्रसिद्ध कवि और समाज चिन्तक रघुवीर सहाय ने अपनी एक कविता मे कहा था : 'भारत मे हर संकट एक गाय है / रास्ते मे गोबर कर देता है विचार।' विश्व मे हिंदी भाषा -भाषियों की संख्या ७० से ८० करोड़ के बीच बताई जाती है। हालांकि वास्तविकता मे उसे पढने लिखने और बोलने वाले ४५ करोड़ से अधिक नही हैं। इसी तरह विश्व हिंदी सम्मेलन के समय यह कहा जाता है कि हिंदी संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनने के रास्ते मे एक कदम और बढ़ा चुकी है। हालांकि वास्तविकता यह है कि उसने ऐसा कोई कदम आगे नही बढाया है, क्योंकि किसी भाषा के संयुक्त राष्ट्र मे शामिल होने की प्रक्रिया बिल्कुल अलग है,जिसके लिए सदस्य देशों को काफी धन देना पड़ता है और उसके सचिवालय की तामझाम जुटाना पड़ता है। न्यूयार्क मे अगर साल के ३६५ दिन भी विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित किये जाये , तब भी यह काम नही हो सकता क्योंकि इसे सिर्फ भारत सरकार कर सकती है।

विश्व हिंदी सम्मेलन के क्षेत्र पर अब तक ऎसी शक्तियों का वर्चस्व रहा है , जो हिंदीवाद को हिंदूवाद का ही विस्तार मानती हैं और हिंदी के वैश्विक मंचों पर अपने अधिकार को जन्मजात समझती हैं। यही वजह है कि पिछले सातों सम्मेलनों को एक अर्ध धार्मिक और अर्ध राजनितिक कथ्य के साथ आयोजित किया गया। लंदन मे हुए छठे सम्मेलन के बारे मे यह सुना गया कि वहाँ आमंत्रित लेखको को लक्ष्मीनारायण मंदिर की परिक्रमा के लिए भी ले जाया गया और सूरीनाम मे हुए सातवे सम्मेलन मे कमलेश्वर जैसे वरिष्ठ और सम्मानित लेखकों को काफी अपमानजनक परिस्थिति मे रहना पड़ा था। इन सम्मेलनों के केंद्र मे ऎसी हिंदी रही है, जो साहित्य के बजाय सत्ता-राजनीति की मुखापेक्षी है, देश की दूसरी भाषाओं पर सरकार के माध्यम से अपना वर्चस्व कायम करना चाहती है या जिसे सुखी सम्पन्न अंग्रेजी की छोटी और कुछ गरीब बहन बनकर रहना स्वीकार है। इस हिंदी की अंतर्वस्तु प्रगतिशील होना तो दूर , आधुनिक सेकुलर और लोकतांत्रिक भी नही है , क्योंकि वह भक्तिकाल के सगुण और निर्गुण नाम के दो पैरों पर खडी नागरी प्रचारिणी सभा छाप हिंदी है , जो भारतेंदु युग और छायावाद से आगे के साहित्य को साहित्य नही मानती। हिंदूवादी हिंदी शक्तियों के अतिरिक्त विश्व हिंदी मंचो पर सरकारी हिंदी तंत्र की भी ताक़तवर उपलब्धि है , जिसके पास राजभाषा नाम का अस्त्र है। इस बार के सम्मेलन मे सम्मानित किये गए हिंदी 'विद्वानो' की सूची से सरकार के हिंदी ज्ञान को समझा जा सकता है। सम्मान पाने वाले १७ लोगो मे से सिर्फ चार-पांच व्यक्ति ऐसे हैं , जिनके हिंदी भाषा और साहित्य मे कुछ योगदान से लोग परिचित है , शेष 'विद्वान ' राजनितिक कारणों से ही सम्मानित किये जाते हैं । हिंदी के श्रेष्ठ साहित्यकारों की एक लंबी सूची तैयार की जा सकती है जिन्हे किसी विश्व हिंदी सम्मेलन मे सम्मानित नही किया गया। इस बार के सम्मानीय लोगों मे सबसे प्रमुख केदारनाथ सिंह थे , लेकिन वह विदेश मंत्रालय के व्यवहार से इतने आहत हुए कि उन्होने न जाना ही उचित समझा। पिछले दो सम्मेलनों के कुछ साम्प्रदायिक स्वरूप से जो लेखक क्षुब्ध थे , इस बार उन्हें अपेक्षा थी कि कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार इसे एक सेकुलर और लोकतांत्रिक हिंदी का मंच बनाएगी , लेकिन उन्हें भी निराश होना पड़ा। अब तक के सभी विश्व हिंदी सम्मेलनों मे साहित्य और साहित्यकार सबसे अधिक उपेक्षित रहे हैं , जबकि साहित्य ही एक मात्र ऐसा क्षेत्र है जिस पर हिंदी कुछ गर्व कर सकती है। ज्ञान के दूसरे क्षेत्रों मे हिंदी की दरअसल कोई उपलब्धि नही है। उसमे दर्शन , विज्ञानं , समाजशास्त्र , पर्यावरण , इतिहास संबंधी मौलिक और गम्भीर लेखन बहुत कम हुआ है , इसलिये उसकी सारी बौद्धिक संपदा साहित्यिक ही है । लेकिन विचित्र यह है कि हिंदी लेखक की भूमिका विश्व मंचो पर नगण्य ही रहती है। क्या इसका कारण यह है कि ऐसे मंचो की बागडोर जिन नई पुरानी संस्थाओं के हाथ मे है , उनके लिए हिंदी संघर्ष की नही , सत्ता और ताकत की भाषा है ? विश्व विजय की थोथी आकांक्षा रखने वाले हिंदी के इस स्वरूप पर कवि रघुवीर सहाय करीब २५ वर्ष पहले ही गम्भीर हताशा व्यक्त कर चुके थे। 'लोग भूल गए हैं' शीर्षक की कविता मे उन्होने कहा था ,
हिंदी का प्रश्न अब हिंदी का प्रश्न नही रह गया है / हम हार चुके हैं...../ हिंदी के मलिक जो हैं गुलाम हैं / उनके गुलाम हैं जो वे आजाद नही / हिंदी है मलिक की/ तब आज़ादी के लिए लड़ने की भाषा फिर क्या होगी/ हिंदी की माँग/ अब दलालों की अपने दास मालिकों से/ एक माँग है/ बेहतर बर्ताव की/ अधिकार की नही.....

रघुवीर सहाय की यह कविता विश्व हिंदी सम्मेलन जैसे सैर सपाटों और विजयी भावों पर एल स्थाई टिपण्णी की तरह पढी जा सकती है।

साभार: अमर उजाला