आलोचना के बहाने
सबसे पहले- ये वही दुनिया है, जहां हम और आप साथ-साथ रहते हैं। यही हमारी नियति है।
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नियति को समझना एक टेढ़ी खीर है। यह किसी एक सिद्धांत पर नहीं चलती कि कैलकुलेशन किया और भूत भविष्य बांच दिया। इसे समझना टेढ़ी खीर इसलिए भी है कि कार्य कारण संबंधों का मशीनी मामलों में पता लगाना तो आसान होता है, लेकिन मानवीय मामलों में यह इतनी परतों के नीचे दबे होते हैं कि हर एक परत को पलटना और उसकी जांच करना काफी मुश्किल होता है। फिर भी, इसे हमें ही समझना होता है, चाहे जितनी भी मुश्किल हो।
वैचारिक भटकाव हर जगह होता है। वैचारिक मतभेद, टूटन भी हर जगह होती है। यह बात तो समझना आसान है कि एक डॉक्टर को अपने मरीज की हत्या नहीं करनी चाहिए, उसका इलाज ठीक से करना चाहिए, या फिर एक इंजीनियर को ऐसा ही पुल या इमारत बनानी चाहिए जो सालों साल चले। पर यह समझना जरा कठिन है कि विचारों में मतभेद या विचारों का त्याग कहां से शुरू होता है। आखिरकार यह कोई तकनीक नहीं कि जिसके लिए बनाई गई है, वही काम करे। पिछले कई दशकों से पूंजीवाद ने यही मानसिकता लोगों के दिमाग में भरी है कि डॉक्टर है तो सही से ही इलाज करेगा, इंजीनियर है तो मजबूत निर्माण करेगा और वामपंथी है तो क्रांति ही करेगा। अगर ऐसा नहीं होता तो इसे पाप और भ्रष्टाचार माना जाता है।
क्या हम ऐसी दुनिया में रह रहे हैं या फिर मानते हैं कि ऐसी ही दुनिया है जहां सभी अपना काम सही तरीके से कर रहे हैं या करेंगे। अगर किसी को नाली साफ करने का काम मिला है तो वह जाले नहीं साफ करेगा। यहां तक कि वह अपने घर के भी जाले नहीं साफ करेगा। क्या सचमुच ऐसी दुनिया संभव है जहां काम करने वाले कामगार की उस काम से भावनाएं जुड़ती टूटती न हों, जिसे वह रोजाना कर रहा है। पर नहीं, ऐसी ही दुनिया की कल्पना सामंती पूंजीवाद पिछले कई दशकों से स्थापित कर रहा है। चूंकि ऐसा होता नहीं इसलिए स्वाभाविक रूप से लोग उन चीजों में ज्यादा रूचि लेते हैं, जो उस सामंती पूंजीवादी कल्पना से हटकर होती हैं।
वैसे इस सवाल का जवाब बताने की जरूरत नहीं कि पूंजीवाद ने ऐसा क्यों किया। बल्कि यह जानने की जरूरत है कि इस सामंती पूंजीवादी कल्पना को स्थापित करने में मदद किसकी ली। सामंती पूंजीवाद ने ऐसी फासिस्ट दुनिया का ख्याल नई फसल में बोने के लिए उसी पुरानी सामंती विचारधारा का सहारा लिया जो मनु स्मृति से लेकर रामचरितमानस में पाई जाती है। हिंदू धर्म की कई किताबों में यह विचार मिलते हैं। इसके लिए खासतौर पर ऐसे लोगों को तैयार किया गया जिनका चेहरा प्रगतिशील लगता हो, पर हों वो सामंती पूंजीवाद के पक्षधर। इन लोगों ने नई फसल को बोने से पहले उस खेत में ऐसा मट्ठा डाला कि अब ये फसल दिनों दिन खट्टी होती जा रही है। क्या यह चिंता की बात नहीं कि मशीनी दुनिया न होने पर यह फसल आगे उगलने लगती है पर मशीनी दुनिया कैसे इंसानों को साथ लेकर चलेगी, उनकी भावनाओं को कैसे पोसेगी, इसका कोई ठोस खाका उनके पास नहीं है। यह लोग हर बात पर चिल्लाते तो हैं पर दुनिया बनाने के नाम पर चुप हो जाते हैं। यही चीज सामंती पूंजीवाद को चाहिए थी, और पिछले कुछ वर्षों में सड़कों पर उमड़ी दिशाहीन भीड़ साफ बताती है कि ऐसा हो रहा है। वैसे कभी कभी यह भीड़ रामराज की भी बात करती है।
दंगों से सामंती पूंजीवाद का नुकसान होता है। उस इलाके में मजदूर नहीं मिलते और उस इलाके की उत्पादन इकाइयां बंद हो जाती हैं और मुनाफा कम होने लगता है। लेकिन ऐसा किन्हीं जगहों पर होता है इसलिए जितनी गंभीरता से सामंती पूंजीवाद वामपंथ को अपना शत्रु मानता है, दंगाइयों को नहीं। दंगों से असमानता फैलती है जो कहीं न कहीं पूंजीवाद को ही फायदा पहुंचाती है। पर वामपंथ वर्ग की समानता की बात करता है और हक की मजदूरी की बात करता है, इसलिए उससे मुनाफा कहीं ज्यादा कम होता है।
यह समझना मुश्किल नहीं है कि सामंती पूंजीवाद वर्ग संघर्ष को दबाने और कुचलने के लिए कैसे कैसे हथकंडे अपनाता होगा। उदाहरण के लिए इनका सबसे आसान टारगेट स्त्री पुरुष संबंधों को ही लेते हैं। इन संबंधों में अभी तक सबसे ज्यादा फायदा सामंतवाद ने उठाया है। स्त्री पुरुष संबंधों की सामंती सोच स्त्री पारगमन को पाप मानती है, पुरुषों को भी एक हद तक ही छोड़ती है। इसे तकनीकी हिसाब से समझें तो जिस नट में बोल्ट फिट कर दिया गया, अब उसी नट में फिट रहेगा। न तो वह खुलेगा और न ही दूसरे नट में फिट होगा, भले ही उसमें कितनी भी जंग लग जाए, वो सड़ जाए। शायद उन्हें नहीं पता कि दुनिया में एक ही साइज के अनगिनत नट बोल्ट बनते हैं। बहरहाल, यदि स्त्री को परपुरुष से प्रेम होता है या वह अपनी इच्छा से परपुरुष से संबंध बनाती है तो सामंती पूंजीवाद की यह फसल तपाक से उसे पाप कहने लगती है। इस मामले में कई प्रगतिशील साथी भी उनका साथ देते आसानी से देखे जा सकते हैं। लेकिन मेरा सवाल है क्या हम सचमुच ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जो नट बोल्ट की तरह है। क्या भारत में रोजाना होने वाले तलाक के सैकड़ों हजारों मुकदमों में समझौतानामा लग चुका है। जाहिर है कि नहीं। स्त्री पुरुष संबंध, कार्य संतुष्टि, डॉक्टर- अच्छा इलाज, इंजीनियर-अच्छा निर्माण, वामपंथी-क्रांति... क्या यह सारी चीजें मशीनी तरीके से समझी जा सकती हैं। जाहिर है कि मनुष्य मशीन नहीं है और मशीन विचारशील नहीं है। विचार तो बदलते रहते हैं, यही नियति है।