Thursday, October 31, 2013

हमारे युग का नायक

अवि‍नाश मि‍श्र 

हिंदी साहित्य के शिखर पुरुष राजेंद्र यादव अब सदेह हमारे बीच उपस्थित नहीं हैं। 28 अक्टूबर की रात उनका देहांत हो गया। वे 84 वर्ष के थे...  इसके आगे और भी बहुत कुछ जोड़ा जाना चाहिए, मसलन मृत्यु की वजह, अब उनके परिवार में उनके पीछे कौन-कौन रह गया है, शिक्षा-दीक्षा, उनका सामाजिक और साहित्यिक अवदान, उनकी कृतियों के नाम, उनके अवसान पर उनके समकालीनों के विचार... वगैरह-वगैरह। ये सब कुछ निश्चित तौर पर इस दुखद खबर के साथ जोड़ा जाना चाहिए, लेकिन फिर भी बहुत त्रासद ढंग से बहुत कुछ छूट जाएगा। इसलिए यहां केवल यह जोड़ना चाहिए कि समग्र सकारात्मक अर्थों में राजेंद्र यादव की मृत्यु एक क्रांतिकारी सृजक की मृत्यु है। उन्होंने हिंदी साहित्य और समाज में बहुत कुछ बदला। वे एक लोकतांत्रिक, परिवर्तनकामी और युगद्रष्टा व्यक्तित्व थे। उनकी सारी खूबियों और खामियों के साथ अब उन पर बात करते हुए हम उनके लिए ‘थे’ का प्रयोग करेंगे। ‘हैं’ के ‘थे’ में बदल जाने पर हमें यकीन करना होगा।

कथा सम्राट प्रेमचंद की ओर से शुरू की गई साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ का राजेंद्र यादव 1986 से संपादन कर रहे थे। वे अपनी अंतिम सांस तक सक्रिय रहे। ‘हंस’ का संपादन करते और संपादकीय लिखते रहे। उनकी किताबें और उन पर किताबें हाल-हाल तक आती रहीं और अब भी कई प्रकाशन-प्रक्रिया में हैं। मीडिया में उनकी बाइट्स/वर्जन भी बराबर सुनने/पढ़ने को मिलते रहे। 31 जुलाई को प्रेमचंद जयंती और 28 अगस्त को अपना जन्मदिन वे प्रतिवर्ष बहुत लगन और उत्साह से आयोजित करते रहे। मृत्यु से चंद दिनों के फासले पर खड़े और अस्वस्थ होने के बावजूद भी राजेंद्र यादव साहित्यिक आयोजनों में अध्यक्षीय भूमिका निभाते दिखते रहे। उन्होंने कभी किसी एकांत, एकाग्रता और अनंतता की चाह नहीं की। भीड़-भाड़, रंगीनियां, चहल-पहल, साहित्यिक शोर और विवाद उन्हें पसंद थे। बगैर लड़े कोई महान और बड़ा नहीं बनता। वे उम्र भर लड़ते रहे... पाखंड से, जातीयता से, शुद्धतावाद से, हिंदी के प्राचीन और अकादमिक छद्म और षड्यंत्र से, कट्टरता से, सांप्रदायिकता से और सत्ता से भी।  

एक लैटिन अमेरिकी कहावत है कि मृतकों के विषय में अप्रिय नहीं कहना चाहिए। लेकिन राजेंद्र यादव अपने संपादकीयों में कइयों को आहत करते रहे। इसमें जीवित और मृतक दोनों ही रहे। जब कभी इस कहे/लिखे पर फंसने की सूरत आई, उन्होंने अगले ही अंक में माफी भी मांग ली। उन्होंने ‘हंस’ में कई बार अपने मित्रों, करीबियों और साहित्यकारों के अवसान पर बेहद भावपूर्ण और मार्मिक संपादकीय भी लिखे। इस तरह के संपादकीयों में वे दो बातें बहुत जोर देकर कहते रहे। पहली यह कि हमें मृतक की कमियों पर भी बात करनी चाहिए और दूसरी यह कि देह के साथ व्यक्ति से जुड़ी बुराइयां खत्म नहीं होतीं। शेक्सपीयर ने अपने नाटक ‘जूलियस सीजर’ में भी कुछ ऐसा ही कहा है... ‘मनुष्य की बुराइयां उसके बाद भी जीवित रहती हैं, अच्छाइयां अक्सर हड्डियों के साथ दफन हो जाती हैं।’ राजेंद्र यादव अपने अंतिम दिनों में शेक्सपीयर के नाटकों के मुख्य पात्रों की त्रासदियों के नजदीक जाते नजर आते हैं।

‘स्वस्थ व्यक्ति के बीमार विचार’ लिखवाने की स्थिति में जब वे पहुंचे तब उनकी विरासत का प्रश्न उनके उत्तराधिकारियों के सम्मुख खड़ा हो गया। आनन-फानन में उनके अंत को  निकट देख ‘हंसाक्षर ट्रस्ट’ में बड़े बदलाव किए गए। राजेंद्र यादव जब अपने ‘अंत’ को पछाड़कर लौटे तब भीड़ से घिरे होने के बावजूद बहुत अकेले और टूटे हुए थे। ‘हंस’ अब उनके सपनों का ‘हंस’ नहीं रह गया था...। उनकी शारीरिक विकलांगता उन्हें लोगों का सहयोग लेने और उन पर भरोसा करने के लिए बाध्य करती थी। उनके कुछ करीबियों, लेखक-लेखिकाओं ने उनकी इस कमजोरी और यकीन का गलत फायदा उठाते हुए अपनी महत्वाकांक्षाएं पूरी कीं।

राजेंद्र यादव द्वारा संपादित ‘हंस’ का अतीत विमर्शों के पुनर्स्थापन  प्रतिभाओं की खोज और एक बेबाक समझ व सत्य से संबंधित रहा है। ‘हंस’ ने कितनों को कहानीकार, कवि, समीक्षक, विश्लेषक, समाजशास्त्री और संपादक (अतिथि) बना दिया, यह उसके प्रशंसकों और आलोचकों से छुपा हुआ नहीं है। वे प्रतिपक्ष को स्पेस देना और उससे बहस करना पसंद करते थे। हिंदी में एक पूरी की पूरी स्थापित और स्थापित होने की ओर अग्रसर पीढ़ी है जो ‘हंस’ पढ़ते और राजेंद्र यादव से लड़ते हुए बड़ी हुई है। वे असहमतियों को सुनना जानते थे।

‘न लिखने के कारण’ बताते हुए उन्होंने अपने समय और समाज के सवालों से ‘हंस’ के संपादकीय पृष्ठों पर सीधी मुठभेड़ की। ‘मेरी तेरी उसकी बात’ कभी ‘मेरी मेरी मेरी बात’ नहीं लगी, हालांकि ‘कभी-कभार’ ऐसे आरोप जरूर लगे। एक कविता संग्रह के कवि होने के बावजूद उनकी छवि एक कविता-विरोधी व्यक्ति और संपादक की बनी, लेकिन एक दौर ऐसा भी था जब ‘हंस’ के कविता-पृष्ठों पर प्रकाशित होना किसी भी युवा कवि के लिए अपनी पहचान पुख्ता करने का एक माध्यम हुआ करता था। लेकिन गए पांच वर्षों से ‘हंस’ की स्तरीयता में भयानक कमी आई और वह केवल निकलने के लिए ही निकलती रही। ‘मैं हंस नहीं पढ़ता’ यह कहना अज्ञान और अजागरूकता का नहीं बेहतरीन साहित्यिक समझ का परिचायक हो गया। बावजूद इसके ‘हंस’ के ‘अपना मोर्चा’ में दूर-दराज के पाठकों के पत्र बराबर छपते रहे...।

वर्तमान समय का सबसे विराट संकट यदि कुछ है तो यही है- बड़े अध्वसाय से अर्जित की गई गरिमा को अंततः बचाकर रख पाना। इस अर्थ में राजेंद्र यादव के आखिरी दिन उनकी प्रतिष्ठा को आघात पहुंचाने वाले रहे। लेकिन अंततः व्यक्ति का काम ही शेष रहता है, तब तो और भी जब यह काम हाशिए पर जी रहे समाज के वंचित वर्ग के पक्ष में खड़ा हो। उन्हें स्वर दे रहा हो, जिनकी आवाज सदियों से कुचली जाती रही हो। स्त्रियों, दलितों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, किसानों... सबके लिए विमर्श उत्पन्न करने वाले राजेंद्र यादव को उनके व्यक्तिगत जीवन को लेकर ‘हमारे युग का खलनायक’ बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी गई। लेकिन राजेंद्र यादव खलनायक नहीं हैं, वे नायक हैं हमारे युग के नायक। वे जब तक रहे, काम करते हुए विवादों में रहे, अब यादों में रहेंगे...।

असुरों का ज्ञान सहेजने में जुटीं सुषमा

झारखंड में असुर आदिम जनजाति नेतरहाट के आसपास मिलते हैं. वैसे इनका निवास स्थान नेतरहाट से छत्तीसगढ. को जोड़ने वाली पट्टी तक फैला है. लेकिन , आज इनका अस्तित्व खतरे में है. ऐसे में एक असुर की बेटी ने इस जनजाति के संरक्षण का बीड़ा उठाकर मिसाल पेश की है. इनका नाम सुषमा असुर है. इनके पिता खंभीला असुर लातेहार जिला के नेतरहाट के रहने वाले हैं. इस जनजाति को बचाने के लिए जो काम सरकार को करनी चाहिए वह सुषमा कर रही हैं. बकौल सुषमा अगर असुर का अस्तित्व समाप्त हो गया तो झारखंड से एक इतिहास का अंत हो जायेगा. उनके मुताबिक 1872 में देश में पहली जनगणना हुई थी. उस समय 18 जनजातियों को मूल आदिवासी की श्रेणी में रखा गया था. इसमें असुर पहले नंबर पर थे. लेकिन, इन 150 वर्षों में जैसे सरकार ने इस आदिवासी समुदाय को भुला दिया है. नेतरहाट क्षेत्र में जहां इनका निवास स्थान है, वहां जीवन की मूलभूत सुविधाएं जैसे चिकित्सा, पेयजल, बिजली, सड़क आदि का आभाव है. शिक्षा के नाम पर इनके पास प्राथमिक विद्यालय तो है पर शिक्षक नहीं. दसवीं कक्षा पास आदिम जनजाति के लोगों को सीधे सरकारी नौकरी देने का प्रावधान है. लेकिन, कईलोग ऐसे हैं जो दसवीं पास हैं और नौकरी नहीं है. जिस इलाके में असुर जनजाति रहते हैं वह एक पठारी इलाका है. निचली जगह से उपर की ओर चढ.ने में दिक्कत होती है. उपरी इलाके में चढ.ने के लिए इन्हें बॉक्साइट लदे ट्रक का सहारा लेना पड़ता है. इन ट्रकों में इनके साथ अभद्र व्यवहार किया जाता है. ऐसा परिवहन की सुविधा नहीं होने के कारण होता है.

सुषमा बताती हैं कि असुर समुदाय के लोग अपने कला-कौशल के कारण जाने जाते थे. लेकिन, अब इनकी कला कौशल को बचाये रखना मुश्किल होता जा रहा है. अब लगता है असुर जाति केवल हमें किस्से-कहानियों में ही सुनने को मिलेंगे. कभी प्रचीन काल में दुश्मनों के छक्के छुड़ा देने वाले असुर आज की तारीख में अपनी जिंदगी की लड़ाई लड़ रहे हैं. असुरों की संख्या अब महज 10000 से भी कम बची है. ऐसे में इनके कला कौशल के संरक्षण की जरूरत है.

सुषमा असुर अपने जनजाति के ज्ञान का दस्तावेजीकरण करने की कोशिश में लगी हैं. इसके तहत वे वीडियो फुटेज बनाकर रखना चाहती हैं ताकि आने वाली पीढ.ियों को इस ज्ञान की संपदा हासिल हो सके. सुषमा के इस प्रयास को हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार उदय प्रकाश का सर्मथन और सहयोग मिला है. रांची से साहित्यकार अश्‍विनी कुमार पंकज लगातार उनके संपर्क में हैं और उनके काम को आगे बढ.ाने में हर तरह का सहयोग कर रहे हैं.

असुरों का महत्व

साहित्यकार अश्‍विनी पंकज के मुताबिक झारखंड के लोकगीतों में असुरों का उल्लेख मिलता है. इनमें असुरों की वीरता और उनके कार्यों की जानकारी मिलती है. ऐसा माना जाता है कि महाभारत के लिए हथियारों का निर्माण असुरों के द्वारा ही हुआ था. ये सारी बातें सादरी और कुड़ुख भाषा के लोकगीतों में सुनने को मिलती है. रामायण में भी इन असुरों का उल्लेख मिलता है. असुरों को इस काल में युद्ध करने वाला बताया जाता है. ये शारीरिक रूप से सृदृढ. होते थे. असुर दुनिया के सबसे पुराने बाशिंदे और धातुविज्ञानी हैं. ऐसा माना जाता है कि असुरों ने ही लोहा बनाने की विधि का अविष्कार किया जिससे स्टील बनाया जा सका. अध्ययनकर्ताओं और इतिहासकारों के मुताबिक एशिया व यूरोप में और कोई इंसानी समुदाय ऐसा नहीं बचा है जो यह प्राचीन धातुविज्ञान जानता हो. शायद अफ्रीका में एक-दो आदिवासी समुदाय हैं जिन्हें यह कला आती है.

खतरे में असुर 

नेतरहाट क्षेत्र में असुरों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. इनकी जमीन पर बॉक्साइट खनन का काम होने से आजीविका का मूल स्रोत छिन गया है. इनके पास आजीविका का साधन नहीं होने के कारण ये भूखे रहने को मजबूर हैं. खेतों में बॉक्साईट के अपशिष्ट जमा हो जाने के कारण खेत उपजाऊ नहीं रहे. खेतो की उर्वरा शक्ति कम हो गई है. सरकार भी इनके लिए कुछ नहीं कर रही. सरकार की जितनी भी योजना इनके लिए बनी वह केवल कागजों में ही दब कर रह गई. पिछले कुछ सालों में इनकी आबादी लगातार कम होती जा रही है. जाहिर है, जिस रफ्तार के साथ असुरों की आबादी सिमट रही है, उसमें अब ये सवाल खड़ा होने लगा है कि क्या असुरों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा?

मदद को आगे आये 

असुर जनजातियों के कला एवं कौशल के संरक्षण के लिए सुषमा को तकनीक की जरूरत थीा. इसके लिए इन्होंने सोशल मीडिया का सहारा लिया है. फेसबुक पर इन्होंने असुरों के आदि ज्ञान एवं सामुदायिक ज्ञान के संग्रह के लिए एक वीडियो एचडी कैमरा, एक ऑडियो रिकॉर्डर, कार्यक्षेत्र में स्टोरेज के लिए एक लैपटाप, ऑडियो, वीडिया एवं फोटो के व्यविस्थत संग्रहण व संपादन के सबटाइटलिंग के लिए एक मैक पीसी की डिमांड की. जिससे वे अपने विलुप्त होते ज्ञान को संरक्षित कर सकें.

इसके बाद असुरों की पीड़ा और विषय की गंभीरता को समझते हुये भारत के सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार उदय प्रकाश ने एक मिनी डीवी कैमरा इन्हें भेंट किया. इंग्लैंड के एक विश्‍वविद्यालय के छात्र तथागत नियोगी ने उन्हें कैनन का एक डिजिटल कैमरा दिया है. यह उनके लिए बहुत उपयोगी साबित हो रहा है.

तथागत का कहना है कि ‘असुरों के पास जो ज्ञान है अब वह कम से कम एशिया के किसी इंसानी समाज के पास नहीं बचा है. खासकर, धातुविज्ञान की प्राचीनतम परंपरा. एशिया से बाहर अफ्रीका के दो-तीन आदिवासी समाज में भी अभी यह ज्ञान परंपरा बची हुई है.’ असुरों के अनुसार उनकी संस्कृती को बचाने के लिए उन्हें और भी संसाधन की अवश्यकता है. असुर झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखडा संगठन ने भी इन असुरों की आवाज उठाई और इनका सर्मथन किया है.

असुरों का पर्व

हर आदिम जनजाति का अपना एक विशेष पर्व होता है. इसी प्रकार असुरों का भी अपना एक पर्व है. यह फागुन के महीने में मनाया जाता है. इसे ये लोग सड़सी कुटासी के नाम से मनाते हैं. इस पर्व में ये लोग अपने पुराने औजारों के साथ-साथ उस भट्ठी की भी पूजा करते हैं जिसमें ये औजार बनाते थे. इनके समुदाय में एक नेत्रहीन बुजुर्ग आज भी हैं जो कच्ची धातु को हाथ में उठा कर यह बता देते हैं कि इसमें धातु की कितनी मात्रा है.

झारखण्ड का आदिवासी इतिहास

- डॉ. रोज केरकेट्टा

झारखण्ड विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों का प्रदेश है। एक ओर यहां प्रागैतिहासिक सभ्यता के अवशेष और आदिम जीवन की स्वर लहरियां हैं तो दूसरी ओर अति आधुनिक जीवनदृष्टि भी। हजारों वर्षों में हुई भौगोलिक और ऐतिहासिक घटनाओं ने प्रकृति और सभ्यता-संस्कृति, दोनों ही स्तरों पर इसे समृद्ध बनाया है। यहां सुरम्य घाटियां, झरने, नदियां और नयनाभिराम प्राकृतिक संरचनाएं हैं। रत्नगर्भा धरती है। और हैं सामूहिक एवं समन्वित संस्कृति को पीढ़ी दर पीढ़ी जीने वाले जनजातीय समुदाय। जीवंत गीतों, नृत्यों और अपार साहस व शौर्य की धरती है यह झारखण्ड। आदिवासी पहचान, संस्कृति और स्वतंत्रता के अंतहीन संघर्ष और अदम्य जिजीविषा का प्रतीक।

ऋगवैदिक काल में झारखण्ड कीकट प्रदेश के नाम से जाना जाता था। उस समय का आदिम समुदाय घुमन्तु था और शिकार, पशुपालन तथा जंगली कंद-मूल पर उसका जीवन निर्भर था। ये लोग कौन थे? कहीं बाहर से आए थे या यहीं के मूल निवासी थे, इस बारे में कहीं कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। झारखण्ड के आदिम निवासियों में जिनके पदचिन्ह सर्वाधिक स्पष्टता से दिखाई पड़ते हैं, वे हैं असुर।

झारखण्ड कुल 30 आदिवासी समुदायों का निवास स्थल है। ये हैं - असुर, मुण्डा, संताल, हो, खड़िया, उरांव, माल एवं सौरिया पहाड़िया, बिरहोर, बैगा, बंजारा, बेदिया, बिंझिया, बिरजिया, बाथूड़ी, भूमिज, चेरी, चीक बड़ाईक, गौड़, गोड़ाइत, करमाली, खरवार, किसान, कोरा, कौरवा, लोहरा, महली, शबर खड़िया, खौंड और परहिया। इनमें संतालों की संख्या सर्वाधिक है और ये भारत के सबसे बड़े आदिवासी समूहों में गिने जाते हैं। झारखण्ड का संताल परगना मुख्यतः इन्हीं से आबाद है जबकि रांची पठार के पूर्वी भाग में मुण्डाओं की बहुलता है। पश्चिम में उरांवों का। नेतरहाट का क्षेत्र असुरों का है तो निम्न पठारीय भागों के उत्तर में भुंइयां, बिरहोर, संताल; पूर्व में संताल, पहाड़िया और भुंइयां; दक्षिण में हो और पश्चिम में चेरो, खरवार,कोरवा आदि।

इतिहासकारों के अनुसार महाभारत काल में झारखण्ड मगध के अंतर्गत था और मगध जरासंध के आधिपत्य में था। अनुमान है कि जरासंध के वंशजों ने लगभग एक हजार सालों तक मगध में एकछत्र शासन किया। जरासंध शैव था और असुर उसकी जाति थी। के. के. ल्युबा का अध्ययन है कि झारखण्ड के वर्तमान असुर महाभारतकालीन असुरों के ही वंशज हैं। झारखण्ड की पुरातात्विक खुदाईयों में मिलने वाली असुरकालीन ईंटों से तथा रांची गजेटियर 1917 में प्रकाशित निष्कर्षों से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। असुर मुख्यतः लोहा गलाने का व्यवसाय करते थे और असंदिग्ध रूप से मुण्डा एवं अन्य आदिवासी समुदायों के आने से पहले इस झारखण्ड में उनकी एक विकसित सभ्यता विद्यमान थी।

यह भी तथ्य है कि असुरों के समय में झारखण्ड के कुछ इलाकों में जैनियों का प्रभाव था। खासकर, हजारीबाग और मानभूम आदि इलाके में। पारसनाथ में जैन तीर्थ का होना तथा उस क्षेत्र में सराक जाति की उपस्थिति और उनके रीति-रिवाज इसके जीवंत साक्ष्य हैं। असुरकालीन समाज और सभ्यता के बारे में अब तक हुए अध्ययन कुछ सूत्र ही दे पाते हैं, विस्तृत परिचय नहीं। पर इतना तय है कि असुरों के समय में और उनके पहले भी झारखण्ड का इलाका निरापद नहीं था। हजारीबाग की इस्को गुफाओं में मिले प्रागैतिहासिक शैल चित्रों और वस्तुओं ने इस धारणा को और पुष्ट किया है। दामोदर नदी घाटी तथा समस्त झारखण्ड में पाये जाने वाले अनेक पुरातात्विक अवशेषों के वैज्ञानिक अध्ययन भविष्य में मानव जाति और सभ्यता के नितांत नये इतिहास का उद्घाटन कर सकते हैं।

नृजातीय रूप से झारखण्ड के तमाम आदिवासी समुदायों की पहचान - प्रोटो आस्ट्रेलाइड और द्रविड़, दो समूहों में की जाती है। उरांवों को छोड़कर जो कि द्रविड़ समूह के हैं, अधिकांश जनजातीय समुदाय प्रोटो आस्ट्रेलाइड समूह में आते हैं। झारखण्ड के गैर आदिवासी समुदाय जिन्हें कि यहां सदान कहा जाता है, आर्यन समूह के हैं। हालांकि वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों के दबाव में आज अधिकांश सदान अपने आपको अनार्य कहलाने पर ज्यादा जोर दे रहे हैं।

भाषायी वर्गीकरण के लिहाज से भाषाविद् झारखण्ड को तीन वर्गों में बांटते हैं। मुण्डा भाषा परिवार, द्रविड़ भाषा परिवार और आर्य भाषा परिवार। उरांव और पहाड़िया जनजातियों की भाषा ‘कुड़ुख’ द्रविड़ है जबकि सदानों की नागपुरी, सादरी, कुरमाली, खोरठा आदि आर्यन। मुण्डा, संताल, खड़िया, हो, बिरहोर आदि मुण्डा भाषा परिवार की भाषाएं बोलते हैं। रांची विश्वविद्यालय भारत का एकमात्र विश्वविद्यालय है जहां क्षेत्रीय एवं आदिवासी भाषाओं के अध्ययन एवं अध्ययापन की व्यवस्था एम. ए. स्तर पर है। फिलहाल झारखण्ड में मुण्डारी, संताली, हो, खड़िया, कुड़ुख, नागपुरी, पंच परगनिया, कुरमाली एवं खोरठा, 9 क्षेत्रीय एवं जनजातीय भाषाएं पढ़ाई जा रही हैं।

600 ईसा पूर्व जब मुण्डा लोग झारखण्ड आए तो उनका सामना असुरों से हुआ। मुण्डाओं की लोकगाथा ‘सोसोबोंगा’ में उनके आगमन और असुरों से संघर्ष का विस्तार से वर्णन है। भारत के विख्यात मानवशास्त्री शरत चंद्र राय अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘मुण्डाज एण्ड देयर कंट्री’ में इसका समर्थन करते हैं। मुण्डा जब झारखण्ड आए तो उनकी एक शाखा संताल परगना की ओर गई। इन लोगों को आज हम संताल के नाम से जानते हैं जबकि दूसरी शाखा रांची की पश्चिमी घाटियों में उतरी। रांचीकी ओर आनेवाली शाखा मुण्डा कहलाई। ये मुण्डा लोग ही असुरों से भिड़े।

बाद में, इतिहासकारों के अनुसार लगभग 1206 ई. में उरांव कर्नाटक की ओर से, नर्मदा के किनारे-किनारे विंध्य एवं सोन की घाटियों से होते हुए रोहतासगढ़ पहुंचे। जहां उन्होंने राज किया और फिर अपना राजपाट खोकर पराजित होने के पश्चात् रांची की ओर आए। तब उनका सामना मुण्डाओं से हुआ। उरांवों के आने के बाद मुण्डा लोग दक्षिण की ओर चले गए। यह इलाका आज का खूंटी क्षेत्र है जहां मुण्डाओं की बहुलता है।

असुर लोग कृषिजीवी नहीं थे और उस समय में झारखण्ड में कृषि प्रधान समाज की उपस्थिति के प्रमाण नहीं मिलते हैं। मुण्डा लोग जब यहां आए तब उन्होंने ही व्यवस्थित कृषि और जीवन-समाज पद्धति की मजबूत नींव डाली। मुण्डा लोग न सिर्फ कृषि कार्यों में कुशल थे बल्कि उनका सामाजिक संगठन और प्रशासन बेहद सुव्यवस्थित था। उनकी सामाजिक-प्रशासनिक व्यवस्था गणतांत्रिक थी। गांव का मुखिया मुण्डा कहलाता था और कई गांव के मुण्डाओं का चुना हुआ प्रतिनिधि ‘मानकी’ होता था। वे सामुदायिक जीवन जीते थे और सामुहिकता उनकी प्राण-वायु थी।

पहली शताब्दी में यहां नागवंशियों का आधिपत्य हो गया। अनुमान है कि पहली ईश्वी के शुरूआती दिनों में नाग जाति जो कि जनमेजय के नाग यज्ञ के बाद से कांतिहीन जीवन जी रहे थे, ने अपनी खोयी शक्ति वापस पा ली थी और समूचे मध्यदेश पर इनका प्रभुत्व स्थापित हो गया था। इसी नाग जाति के वंशज फणिमुकुट राय ने 19 वर्ष की अवस्था में 83 ईश्वी में यहां नागवंशी शासन की नींव डाली। सुतियाम्बे उनकी पहली राजधानी थी और मुण्डाओं के गणतंत्र का आखिरी सर्वोच्च केन्द्र।

नागवंशी शासन के बाद समूचे झारखण्ड में आर्य संस्कृति-सभ्यता का विस्तार हुआ। इस विस्तार ने आदिवासी एवं सदान, दोनों ही संस्कृतियों के सम्मिलन में युगांतकारी भूमिका निभायी। सांस्कृतिक सम्मिलन से झारखण्ड में ‘सहिया’ संस्कृति का विकास हुआ जिसके फलस्वरूप अंग्रेजों के आगमन तक दोनों के संबंध सौहार्द्रपूर्ण बने रहे। सामुदायिक और सामूहिक संस्कृति व जीवनशैली अविच्छिन्न रूप से गतिमान रहा। नागवंशियों का राजतंत्र और आदिवासियों की पारंपरिक गणतांत्रिक परंपरा की समानान्तर धाराएं बिना एक दूसरे को काटे अथवा बाधित किये चलती रही।

इसे छिन्न-भिन्न किया अंग्रेजी राज ने। जिसको यहां के आदिवासी और सदानों ने अपने तीव्र प्रतिरोधों से स्वतंत्रता प्राप्ति तक लगातार चुनौती दी। सिदो-कान्हू, चांद-भैरव, बाबा तिलका मांझी, बिरसा मुण्डा, जतरा टाना भगत, बुधु भगत, तेलंगा खड़िया, शेख भिखारी जैसे अनेक झारखण्डी नायकों ने। इन्होंने भारत के अंग्रेजी राज में स्वतंत्रता और स्वाभिमान के लिए हुए झारखण्डी जनता के जनविद्रोहों को संगठित, संचालित एवं उसका साहसी नेतृत्व किया। अपनी शहादतें दी।

झारखण्ड मूलतः आदिवासी जीवन-दर्शन के मूल सिद्धांतों सह-अस्तित्व, सामुदायिकता, सामूहिकता और सहभागी संस्कृति के विरासत का केन्द्र है। जीवन के उल्लास और इंसानियत के विभिन्न रंगों को यहां के गीतों, नृत्यों, पर्व-त्यौहारों व लोक कलाओं में सहज देखा व अनुभव किया जा सकता है। करमा, सरहुल, मागे, बन्दई मुख्य सामाजिक पर्व हैं। स्वर्णरेखा, कोयलकारो, दामोदर और शंख नदियां जीवनरेखा हैं तो हुण्डरू, दसोंग, हिरनी, पंचघाघ आदि जलप्रपात यहां की प्रकृति, वनस्पति और जीवन की स्थायी धड़कन।

(असुरनेशन.इन से साभार)

Monday, October 28, 2013

संकट मन में लि‍ए भेड़ चरते देख रहे हैं

टेलमार्क वाया नॉर्थ कैरोलि‍ना. देखि‍ए, कांसेप्‍ट आधा चुराया हुआ है, इसलि‍ए शब्‍द भी चुराए हुए ही होंगे। इसलि‍ए पहले से ही बता दे रहे हैं कि इस चोरी चकारी में हमारा बड़ा यकीन है। अब ये दूसरी बात है कि चटनी सोका की तरह एक नया म्‍यूजि‍क जन्‍म ले ले, तो सबकुछ ओरि‍जनल ही बन जाएगा। बहरहाल, डि‍स्‍क्‍लेमर अभी से लगा दे रहे हैं कि जबसे मोदी जी खुद को खुदै प्रधानमंत्री घोषि‍त कर दि‍ए हैं, ऊ साउथ इंडि‍या मा बैइठे बाबाजी सिर्फ जाने की बात कहे और हम तो बाकायदा आ भी गए। यहां पर, नॉर्वे में हम फि‍लहाल रह रहे हैं और कुछ भेड़ खरीद लि‍ए हैं। चिंता न करें, हम कि‍सी पाउलो कोएलो से प्रेरि‍त होकर न भेड़ खरीदे हैं और न ही हम उन भेड़ों को रेगि‍स्‍तान के कि‍सी व्‍यापारी के हवाले करने जा रहे हैं। हालांकि सपने अभी भी आते हैं और सुबह उठते ही धुंधले हो जाते हैं।

हम पहले तो कैरोलि‍ना ही आए। वहां हमें फहीम मि‍ले। फहीम मि‍यां अफगानि‍स्‍तान के हैं और वहां पर उनका ऑडि‍यो कैसेट का बि‍न्‍नि‍स था। तालि‍बानि‍यों ने संगीत पर पाबंदी लगा दी और पहुंच गए फहीम की दुकान पर। वहां पर फहीम अपने चचा के लड़के मजकूर के साथ बैठके रात का बना कलेवा तोड़ रहे थे। तालि‍बानि‍यों ने कलेवा तो करने न दि‍या, उल्‍टे दुकान में आग लगाकर दोनों को बांधकर अपने साथ ले गए। कई महीनों तक अफगानि‍स्‍तान की नामालूम से पहाड़ी में इन दोनों से तब तक पत्‍थर तुड़वाए गए, जब तक कि दोनों ने आइंदा जिंदगी में संगीत को कान से न लगाने की कसम खा ली। धीमे धीमे कि‍सी तरह से दोनों ने वि‍श्‍वास जीता और एक दि‍न मौका मि‍ला तो उड़नछू होने की कोशि‍श की। फहीम तो कि‍सी तरह से नि‍कल आए, लेकि‍न मजकूर मि‍यां अभी भी वहीं कंधार की कि‍सी पहाड़ी पर दस्‍तखत कर रहे हैं।

पहाड़ि‍यों से नि‍कलकर फहीम मि‍यां कि‍सी तरह से काबुल पहुंचे। वहां उन्‍हें असद मि‍ला जो लोगों से पैसे लेकर उन्‍हें नॉर्वे भेज देता था। तालि‍बानि‍यों के यहां से भागते वक्‍त फहीम ने वहां जमा डॉलरों पर एक लंबा हाथ भी मारा था। असद ने 20 हजार डॉलर लि‍ए और उन्‍हें सड़क मार्ग से पहले तो अफगानि‍स्‍तान से नि‍काला। उसके
बाद कि‍सी तरह से उनका फर्जी पासपोर्ट बनवाया और एक वीजा उनके हाथ में थमा दि‍या। वहां से फहीम मि‍यां समुद्र के रास्‍ते इंडोनेशि‍या होते हुए नॉर्वे तक पहुंचे। न न, कि‍सी जहाज से नहीं बल्‍कि मछुआरों वाली डोंगी में बैठकर। सबूत के तौर पर फहीम मि‍यां हमसे ये वाली फोटो लगाने को बोले थे। इसमें से दाहि‍ने से तीसरे वाले हैं अपने फहीम भाई।

यहां आने पर फहीम भाई ने 32 भेड़ें खरीदीं और उनके लि‍ए एक चारागाह और रखने के लि‍ए बाड़ा। लकड़ि‍यों का एक घर भी बनवाया जि‍समें पांच खि‍ड़कि‍यां हैं। पांच खि‍ड़कि‍यों की दास्‍तान अलग है तो वो फि‍र कभी। फि‍र कभी मने, हम और फहीम जि‍स कि‍सी दि‍न कबाब वबाब खाने बैठे तो उसका भी जि‍क्र हो जाएगा। ये सारा ताम झाम फहीम ने टेलमार्क में फैलाया। कैरोलि‍ना तो वो अक्‍सर ऊन व्‍यापारि‍यों से सौदेबाजी करने के लि‍ए जाते रहते हैं। वहीं उन्‍होंने हमें बताया कि कैरोलि‍ना थोड़ा महंगा है, अगर टेलमार्क चलकर रहा जाए तो वहां धंधे पानी का भी कुछ इंतजाम हो सकता है और रहने का भी मामला सस्‍ता ही है।

और हम टेलमार्क पहुंच गए।

टेलमार्क की पहाड़ि‍यां काफी घनी हैं। बुरांश और देवदार से भरी हुई। यहां हमारी आसपास के लोगों से दोस्‍ती भी हो गई है। हमने भेड़ें भी खरीद ली हैं और उन्‍हें रोज सुबह फहीम की ही भेड़ों के साथ चरने के लि‍ए भेज देते हैं। दि‍न में कई बार खि‍ड़की पर बैठते हैं और अक्‍सर तब बैठते हैं जब फेसबुक पर आकर अपना मन खि‍न्‍न कर लेते हैं। फेसबुक की दुनि‍या नॉर्वे की दुनि‍या से अलग है। यहां फेसबुक की तरह खि‍ल्‍ल खि‍ल्‍ल क्रांति को खि‍लौना बनाने वाले लोग न के बराबर हैं। अपना सामंती दोष भाषा के माध्‍यम से नि‍कालकर ज्‍योतिबा को तू तुम कहने वाले लोग भी नहीं हैं। यहां तो बड़े तमीजदार और सलीकेदार लोग हैं। फहीम की बीवी सालेहा कभी बुर्का नहीं करती और अगर उसके सामने कि‍सी ने अपशब्‍द कहा तो वो अपशब्‍द नहीं कहती, पर 911 पर डायल करके बता देती है कि फलां ने अपशब्‍द कहा। इसलि‍ए उसे अपशब्‍द कहने की कोई हि‍म्‍मत नहीं करता। सोचता हूं कि अगर ज्‍योति‍बा होते तो अपशब्‍द कहने वालों को क्‍या कहते?