Sunday, January 31, 2016

3- सूनसान बि‍याबान

बहुत वक्‍त बाद बोलता मि‍ला एक जीवंत इंसान
मैं क्‍या करने नि‍कला था और क्‍या कर रहा था, इसका मुझे ठीक-ठीक कोई अंदाजा नहीं लग पा रहा था। अब तो जो कुछ भी था, सामने का रास्‍ता था, बुलेट की धड़-धड़ के साथ ठंडी हवा की कान के बगल से नि‍कलती खड़खड़ थी। इस लंबे रास्‍ते पर उन सारी जगहों के मील के पत्‍थर लगे हुए थे, जहां मुझे नहीं जाना था लेकि‍न क्‍या मजाल कि जहां जाना था, वहां का एक भी मील का पत्‍थर पूरे रास्‍ते में कहीं मि‍ल जाए। कुछ देर तक तो मैं चि‍ढ़ के साथ मील के पत्‍थरों को खोजता आगे बढ़ता रहा और तकरीबन सौ सवा सौ कि‍लोमीटर चलने के बाद जब उन्‍हें कहीं भी न पाया तो पूरी ऊब के साथ उन्‍हें तलाशता रहा। ये बड़ा अजीब रास्‍ता था। रास्‍ते पर चलने के लि‍ए बहुत कुछ था लेकि‍न चलने वाले थे कि दूर दूर तक नज़र ही नहीं आते थे। बड़ी देर बाद जब मुझे रास्‍ते में कीचड़ में पांव लथेड़े सि‍र पर धान लादे मोबाइल पर जोर जोर से हलो-हलो करता एक आदमी दि‍खा तो मैनें तुरंत उसकी फोटो उतार ली। वो बहुत वक्‍त बाद बोलता मि‍ला एक जीवंत इंसान था जि‍सके लि‍ए धीमे बोलने का कोई खास अर्थ नहीं था।

यूपी में बहुत घनी आबादी है। यहां अगर हर तरफ से बंद सड़क न हो (जैसे मुरादाबाद से दि‍ल्‍ली वाली या लखनऊ से फ़ैज़ाबाद वाली या एक्‍सप्रेस वे) तो साठ के ऊपर कुछ भी चलाना बहुत मुश्‍कि‍ल है। हर दो से तीन कि‍लोमीटर पर दो से तीन गांव पड़ते हैं और गांव में रहने वालों का सड़क पर हर हाल में एक ठीहा होना ही होता है। ठीहा होगा तो कुत्‍ते से लेकर बच्‍चे तक उसपर होंगे तो घंटा स्‍पीड मि‍लेगी। बिहार में भी आबादी है लेकि‍न यूपी जि‍तनी घनी नहीं। खासकर उस सड़क पर तो बि‍लकुल नहीं जो मोहनि‍यां से पटना की तरफ मुड़ती है। ये सड़क मुझे हमेशा याद रहेगी। ठि‍ठुरन, सि‍हरन, सड़न, करन, ऊबन... ऐसे कौन से भाव नहीं थे, जि‍नसे होते हुए मैं इस रास्‍ते से गुजरा। और वैसे भी, गि‍नती के 185 कि‍लोमीटर के रास्‍ते पर अगर पांच घंटे लग जाएं तो इन सारे भावों का आना ग़ैरवाज़ि‍ब नहीं है। वो भी तब, जबकि ये रास्‍ता नब्‍बे फीसद खाली था। कभी कभार कोई बस या जीप दि‍ख जाए तो सही रास्‍ते पर चलते रहने का यकीन होता था, नहीं तो कहां जा रहे हैं, इसका अंदाजा ही लगाना पड़ रहा था और वो भी ठीक-ठीक नहीं लग पा रहा था। इस रास्‍ते की उस रास्‍ते से भी तुलना की जा सकती है जो मुरादाबाद से रामपुर के चावल के कटोरे स्‍वार से होते हुए हल्‍त्द्वानी और फि‍र नैनीताल को जाता है।

जहानाबाद से गया जाते हुए ताड़ के पेड़
रोहतास से नि‍कलते ही शीत लहर ने जोर पकड़ा। हालांकि मैनें इनर के साथ गर्म पायजामा पहना हुआ था लेकि‍न सर्द हवाएं तेज़ हो रही थीं। एक जगह आराम करने के लि‍ए बाइक खड़ी की तो बहुत दि‍न क्‍या बहुत साल पहले कभी देखा हुआ नज़ारा फि‍र से देखा। दाहि‍नी तरफ सूरज छुप रहा था और बाईं तरफ चांद नि‍कल रहा था। यही नज़ारा फि‍र से एकबार जहानाबाद से गया जाते हुए ताड़ के पेड़ों के पार भी दि‍खा। आधे घंटे के अंदर मेरे सामने रात थी, उधड़ा हुआ पूरी तरह से बि‍याबान ऐसा रास्‍ता था जि‍समें 30-30 कि‍लोमीटर तक न तो कोई गांव दि‍खता था न इंसान। गाड़ी घोड़ा भी बहुत कम। भूख बहुत जोर की लगी थी क्‍योंकि दि‍न भर में जो खाने को मि‍ला था वो बक्‍सर में वही काले होंठों वाली स्‍त्री के बनाए दो समोसे थे या नि‍कलने से ठीक पहले मेवा मि‍ली बनारस की ठंडई। कहीं आदमी नहीं दि‍ख रहा था, कुछ ढंग के खाने की दूकान कहां से दि‍खती। बीती ताहि बि‍सारता भूखा पेट बुलेट लि‍ए मैं भागा जा रहा था। ठि‍ठुरता, सि‍हरता, डूबता पाटलि‍पुत्र की ओर।   

Saturday, January 30, 2016

2- काले होठों वाली स्‍त्रि‍यां

- तस्‍वीर में ऐसी ही काली कुपोषि‍त काया वाली बच्‍ची है
जि‍सके पैरों में चांदी की पायल सर्दी की हलकी धुंध में भी चमक रही है
और एक काले होंठों वाला व्‍यक्‍ति उन्‍हें गोलकर फूस में आग जलाने का प्रयत्‍न कर रहा है।
बक्‍सर में जो समोसे खाने को मि‍ले, उनमें आलू के साथ साथ काले चने भी मि‍ले थे। साथ में टमाटर लहसुन और हरी मिर्च की सि‍ल पर पीसी चटनी थी। जि‍स स्‍त्री ने इसे बनाया, उसका रंग सांवला और होंठ काले थे। जौनपुर में जो समोसा खाया, उसके साथ तलकर नमक से लपेटी हरी मिर्च भी मि‍ली, जि‍से मेरे बगल अपने पति के साथ खड़ी स्‍त्री नहीं खा पा रही थी। उसके होंठ भी काले थे जि‍नपर मिर्च से उतरे नमक के महीन दाने शाम की धूप में चमक रहे थे। मोहनि‍यां से पटना तक के दो सौ कि‍लोमीटर के रास्‍ते में मुझे एक भी स्‍त्री ऐसी नहीं दि‍खी, जो कवि‍यों की कुकल्‍पना के मुताबि‍क हो। अब अगर कोई कवि गुलाबी होंठों को केंद्र में रखकर कोई कवि‍ता कहेगा या कह चुका होगा तो मैं उसे कवि‍ता मानने से इन्‍कार करता हूं और उस कवि की समूची कल्‍पना के आगे सर्वकाल के लि‍ए कु शब्‍द स्‍थापि‍त करता हूं।

नहीं हैं गुलाबी होंठों वाली स्‍त्रि‍यां अपने यहां। होंगी तो कहीं एयर कंडि‍शनर या ब्‍लोअर की छांव तले होंगी जि‍नतक भोजपुर बक्‍सर की नंगी उधड़ी सड़क पर भागते हुए मैं नहीं पहुंच सका। जहां भी पहुंचा, फि‍र चाहे वो कमाली बेगम की मज़ार हो या कौआ डोल या राजगीर की खुरदुरी पहाड़ि‍यां, सर्दियों से सूखे काले होंठ और कुपोषि‍त काया वाली स्‍त्रि‍यों को कंडे पाथते या पुआल धरते पाया। बि‍हार में अभी कई जगहों पर गेहूं बोया नहीं गया है नहीं तो खेतों में उनके जीवि‍त कंकाल काले होंठों के पीछे से मोती चमकाते दि‍खाई देते।

वही स्‍त्रि‍यां
राजगि‍र के उड़न खटोलों में भी वही स्‍त्रि‍यां थीं जो दोनों हाथ के अंगूठों को मुट्ठी में भींचकर अभी ठीक ठीक सैलानी बनना सीख रही थीं। मुंह और आंख, दोनों फाड़कर वो हि‍लते हुए वहां की पहाड़ि‍यों को ऐसे देख रही थीं, जैसे आंखों से ही सारी तस्‍वीरें उतार लेना चाह रही हों। कैमरा क्‍या होता है, काले होंठ वाली उन स्‍त्रि‍यों के लि‍ए कल्‍पना मात्र था, हालांकि सैलानी बनने की ज़ि‍द में उन सबने चोटी पर पहुंचकर वहां 34 रुपये की एक फोटो खींचने वाले तस्‍वीरकार से तस्‍वीर जरूर उतरवाई। लौटते वक्‍त सभी के हाथ में मोती पि‍रोती पन्‍नी मढ़ी एक एक तस्‍वीर थी।

Vishva Shanti Stupa, Rajgir
हालांकि मैं भी अभी सीख ही रहा हूं कि ठीक-ठीक सैलानी कैसे बना जाता है और अफ़सोस से कहता हूं कि मेरी अब तक की सभी यात्राएं मुझे पूरी तरह से सैलानी नहीं बना पाई हैं। हो सकता है कि पांच-सात हजार कि‍लोमीटर चल लेने के बाद मुझमें बंगालि‍यों की तरह इसका कोई हुनर डेवलप हो जाए, फि‍र भी उसमें अभी काफी वक्‍त है और तब तक मैं अधूरा सैलानी, भ्रमि‍त यात्री ही बना रहूंगा, ये तय है। कहते हैं कि बंगाली सबसे अच्‍छे सैलानी होते हैं। हालांकि मेरी ही नामाराशि के एक भाईसाब मि‍थकतोड़ इति‍हास बन चुके हैं, मैं उनका सवा ग्‍यारह भी पा जाऊं तो धन्‍य होऊं। गुलाबी होंठ, गुलाबी आंखें, गुलाबी बदन और जो कुछ भी श्रृंगार के झूठे मानक मुझे आज तक बताए गए, वो कहीं नहीं मि‍ले, इसलि‍ए इस बात का मैं दावा करता हूं कि अपने यहां श्रृंगार के झूठे मानक गढ़े गए हैं। श्रृंगार के असली मानक काली कुपोषि‍त काया में दमकते मोती और पूरे चांद की चमक लि‍ए वो आंखें ही हो सकती हैं जि‍नमें से बातें गि‍रती हैं। इस सौंदर्य की मैं तस्‍वीर उतारना चाहता था लेकि‍न पूरे रास्‍ते मुझे ऐसी कोई भी स्‍त्री मेरी कल्‍पनाजनि‍त मुस्‍कान लि‍ए  नहीं मि‍ली। मुझे तस्‍वीर न उतार पाने और स्‍त्रि‍यों के न हंस पाने पर भी अफ़सोस है।  

1- कौन देता है रास्‍ता


-मोहनि‍यां से पाटलि‍पुत्र जाते गड्ढों की एक छवि।
अब ये पुराने जमाने की बात हो चली कि जब बुलेट चले तो दुनि‍या रास्‍ता दे। दुनि‍या में कोई रास्‍ता नहीं देता और न ही देने को तैयार है। बुलेट क्‍या, कार लेकर भी चलि‍एगा तो सड़क पर बैठा कुत्‍ता भी बगैर हौंकाए नहीं हटता, आदमी तो उससे भी ज्‍यादा जि‍द्दी ठैरा। ये बात जि‍तनी जल्‍दी समझ में आ जाए, उतना अच्‍छा। और फि‍र रास्‍ता कोई देगा कैसे। रास्‍ता होगा तब ना देगा। होबे नहीं करेगा तो क्‍या घंटा देगा। जो कुछ भी रास्‍ता होता है वो होने से कहीं ज्‍यादा गड्ढा होता है, तालाब होता है जि‍सके कि‍नारे से हर कोई बस कैसे भी करके नि‍कल जाना चाहता है। सैकड़ों कि‍लोमीटर गड्ढों और तालाब के कि‍नारे कि‍नारे नि‍कलते जब मन मांझी होने लगता है तो पता चलता है कि कि‍तनी भी हि‍म्‍मत बटोर लें, मन ही मन कि‍तने भी पत्‍थर काट लें, गड्ढे में चलना, उसमें पड़े रहना ही हम सबकी नि‍यति बन चुकी है। फि‍र चाहे हम ऊपी में हों या बि‍हार में, अंतत: हम रास्‍तों में बने गड्ढों में ही होते हैं।

वही... 
रास्‍ता कैसे लि‍या जाता है, उससे ज्‍यादा कैसे सामने वाले को एकदम नहीं दि‍या जाता है, ये हम बनारस में अच्‍छी तरह से सीख सकते हैं। थोड़ा बहुत इसका असर पता नहीं कैसे मेरठ वालों पर पड़ा है, लेकि‍न पूरा पड़ने से रह गया है, इसलि‍ए अभी भी मेरठ में दस मि‍नट की ड्राइव में हम दो मि‍नट इधर उधर देख सकते हैं। बनारस में दस मि‍नट गाड़ी चलाएंगे तो पंद्रह मि‍नट सिर्फ सामने से रास्‍ता छीनने को लपलपाते लोगों से ही नि‍पटने में लगेगा। कहने को तो सब लाल बत्‍ती देखकर रुक जाते हैं लेकि‍न बत्‍ती जब हरी होती है तो वो सामने से आते ट्रक को भी नाली कि‍नारे नि‍कलने पर मजबूर कर दें। पटना और मेरठ में रास्‍ता ले लेने वालों में उन्‍नीस बीस का ही फर्क है, फि‍र भी जबरदस्‍ती आपका रास्‍ता छीनकर जि‍स कद़र बनारसी लाज़वाब करते हैं, वो या तो अपना सि‍र पीटने पर मज़बूर करता है या उनका। उनका तो पीट नहीं पाएंगे क्‍योंकि पीटने और पाटने में उन्‍हें ज्‍यादा यकीन है (बनारस से लेकर पुस्‍तक मेले में वो लोगों को इसकी धमकी भी देते रैते हैं।) तो बेहतर यही होगा कि मेरी तरह अपना माथा पीटें और बगैर कि‍सी से पि‍टे घर सुरक्षि‍त वापस लौटने का यकीन कर अपने हाथ पैर टो लीजि‍ए कि सबकुछ सुरक्षि‍त तो है या रास्‍ते के कि‍सी गड्ढे में कुछ गि‍रा तो नहीं आए।

वही... 
वैसे मोहनि‍यां से पटना वाले रास्‍ते पर लोग खूब पास देते हैं। खुद कि‍नारे कि‍नारे जुगत लड़ाकर चलते रहते हैं और पास मांगि‍ए तो झट आगे जाने के लि‍ए हाथ दि‍खा देते हैं। आगे जाने के लि‍ए जो चीज सामने होती है वो घुटने भर जि‍तने बड़े गड्ढे होते हैं। चाहे रोहतास हो, बक्‍सर, भोजपुर या आरा ही हो, यहां के लोग चाहते ही नहीं कि कोई उनके यहां सही सलामत पहुंच जाए। अगर पहुंच जाता है तो खुशी मनाकर चार लोगों से जरूर गाते होंगे कि अरे, ई त एकदमे सुरच्‍छि‍त पहुंच गइली हो। मुझे कोई ताज्‍जुब नहीं होगा अगर सालों से गड्ढे में चलते गि‍रते सुरक्षि‍त घर पहुंचते इन जि‍लों के लोगों ने इसपर कोई लोकगीत भी बना लि‍या हो क्‍योंकि जो भी लोक है, वो गड्ढे में है और जो गड्ढे हैं, एक बार गि‍रकर देखि‍ए, हर लोक का दर्शन होने की सुनि‍श्‍चि‍त गारंटी है।

कइलीं गढ़इयन का पार
अइलीं रमेसर के सार
लवनी फटफटि‍या औ कार
उखड़ा नाहीं एक्‍को बार
चना जोर गरम।

Saturday, January 16, 2016

नई कि‍ताब डि‍स्‍कवरी ऑफ सेल्‍फ

मुहल्‍ले के बुजुर्ग जि‍स तरह से तौबाओं को तड़ातड़ तोड़ रहे थे, आखि‍रकार पि‍छले बुधवार को भाई को शर्म आ ही गई। कि‍स तरफ से आई और आकर अभी तक गई या नहीं, भाई ने इस बारे में कुछ भी बताने से साफ इन्‍कार तो कर दि‍या अलबत्‍ता ये जरूर बताया कि अब वो अपने घर में बकरी और भेड़ पालने लगा है। आते जाते रस्‍ते में मि‍लने वाली आवारा गाय और बैल पर हाथ फेरते फेरते भाई को ये क्रांति‍कारी आइडि‍या आया कि इंसान न सही तो कोई बात नहीं, सहलाया तो भेड़ और बकरी को भी जा सकता है। अब न तो अंग्रेज रहे, न यशपाल और न वो लखनऊ कि भेड़ बकरी को सहलाने पर अंग्रेज खुद कि‍सी एंग्‍लो इंडि‍यन की औलाद को पकड़ ले जाएं।


अब हालात कुछ इस तरह से हैं कि मुहल्‍ले के तमाम बुजुर्ग अपनी तोड़ी हुई तौबाओं की गदराई कमर में हाथ डालकर मेले में अपने रोज ठेलने का कि‍स्‍सा बयां करते सुने देखे और पकड़े जा सकते हैं। उन्‍हें ऐसा करते देख भाई भी कभी बकरी का कान पकड़के सहलाता है तो कभी घर के चबूतरे पर बैठकर भेड़ों के बालों में हाथ फेरता है। भाई ने ये भी बताया कि सुख का सिर्फ एक ही अर्थ होता है जि‍से सुख ही कहते हैं। उसके आने का भी वही एक प्राचीन रास्‍ता है फि‍र चाहे को तौबा तोड़े या भेड़ बकरी बि‍ल्‍ली सहलाए।

अपने सुख की सर्वकालजयी कथा के लि‍ए भाई ने अब तय कर लि‍या है कि अंदी बंदी नंदी की जगह अब वह अपने लि‍ए अपनी नई कि‍ताब डि‍स्‍कवरी ऑफ सेल्‍फ लि‍खने जा रहा है। इसके आठ खंडों में प्रकाशन के लि‍ए भाई की वाणी प्रकाशन वालों से बात हो गई है। भाई ने ये भी दावा कि‍या है कि इसके देखने मात्र से प्राणी के जीवन में दुख भरी चि‍ड़चि‍ड़ी वासनाओं की शुरुआत हो जाएगी। वाणी वालों ने न छापी तो वो अपना खुद का प्रकाशन गि‍रोह खोल लेगा। वैसे भी जि‍न अश्‍कों को बहना ना आया, उनने प्रकाशन गि‍रोह बना लि‍या।

इसी जोश में भाई ने हाल फि‍लहाल फि‍र से तौबा तोड़ने वाले एक बुजुर्ग कवि से इसका जि‍क्र कर दि‍या तो कवि ने कहा कि वो तो कम से कम 16 खंडों में अपनी कवि‍ताएं छपवाएगा। इससे कम में वह कि‍सी भी कीमत पर राजी नहीं होगा फि‍र भले ही उसकी तोड़ी हुई तौबा मचलकर कि‍सी सदन लश्‍यप के हाथ जाकर लग जाए। क्‍या जुल्‍फ क्‍या जुगल, कवि‍ताओं व कामनाओं का मुग़ल बनने से बुजुर्ग कवि को भाई भी नहीं रोक पाएगा, ऐसा भाई का वि‍श्‍वास है और ऐसा ही भाई ने मुझे बताया।

भाई खुश है। अब उसके पास एक भेड़ है, एक बकरी है, जि‍न्‍हें रात में वो कमरे के अंदर बांधने का दावा करता है कि पहाड़ों में ठंड बहुत होती है।

मैं खुश हूं। मेरे पास भी एक बि‍ल्‍ली है। मैं उसे रात या दि‍न, कभी भी नहीं बांधता।

(नोट: बुजुर्ग शब्‍द भाई ने प्रयोग कि‍या है। इससे कि‍सी को दुख हो तो मैं भाई की तरफ से क्षमाप्रार्थी हूं।)

दरवाज़े, आओ तुमको चश्‍मा पहना दें

गौरी, आओ तुमको रंगोली बना दें। फूल, आओ तुमपे गेंदा चढ़ा दें। चि‍रैया आओ तुमको उड़ा दें। लड़की, आओ तुमको वो सबकुछ बना दें जो तुम नहीं हो। दन्‍न से दुनि‍या को बता दें कि तुम अड़की हो। जो तुम हो, वो सात कोस दूर के कुंए में डालके देर तक नि‍हार के कन्‍फरम कर लें कि कायदे से कुंए में तुम्‍हरा होना धंसा या नहीं। कहीं से कोनो उंगली बाल नि‍कलके दि‍ख तो नहीं रहा।

बाबा, आओ तुमको बजा दें। डीजे, आओ तुमको बाबू बना दें। जोकर, आओ तुमको जोंक चि‍पका दें। दांत, आओ तुमको चि‍यार दें। बाल, आओ तुमको खैनी बना दें। भगत, आओ तुमको चढ़ा दें। पुलि‍स, आओ तुमको बहका दें। कोरट, आओ तुमको बि‍गेर कत्‍थे का पान खि‍ला दें। तुम सबको एक थूकदान दे दें, सब इकठ्ठा हो जाओ तो संसद में साजि‍श करके पहुंचा दें।

पड़ोसी, आओ पैजामा पहना दें। अड़ोसी, आओ तुमको नाड़ा थमा दें। दरवाज़े, आओ तुमको चश्‍मा पहना दें। खि‍ड़कि‍यों, आओ तुम्‍हरी आंख टेस्‍ट करा दें। दीवारों, आओ तुमको पहि‍या लगा दें। पत्‍थर, आओ तुमको पंख लगा दें। तुम सबको बांस की वो खांची दें, जि‍समें कैसे भी सब अपना सामान लेकर अमा जाओ, गि‍रा दें सूखे तालाब में, बन आंगन खटि‍या नीचे समा जाओ।

गाली दो गुणगान करूंगा
सुबे दोपहर शाम करूंगा
काम मेरा है गाली खाना
श्रद्धा से मैं काम करूंगा।

मिलेगा तो देखेंगे - 17

an original photo of dreams by Lesley Roberts
जब मैं तुम्‍हें सपने में देख रहा होता हूं तो क्‍या तुम भी खुद को देख रही होती हो? लगती तो तुम खुद को वैसी ही होगी जैसा मैं तुम्‍हें देखता हूं या फि‍र तुम खुद को जैसा दि‍खाना चाहती हो, जब चाहती हो, वैसा लग लेती हो? उम्र के साथ आपाधापी करती हर कदम पटककर जमीन को तोड़ देने जैसा तुम्‍हारा दि‍खाना मैं देखता रहता हूं। तुम्‍हें भी और उस ज़मीन को भी जहां तुमने लात मारी थी। हर कदम को मैं उसी खुरपी से टहोकता हूं जि‍ससे खेत में आलू। क्‍या मजाल एक भी आलू को चोट लगे।

आलू को चोट लगती है तो वो छीलने पर भी नहीं जाती। चेहरों को चोट लगती है तो सि‍लवटाें में नुमायां होती है। सपनों को जो चोट लगती है, वो नींद के खालीपन में भरी रहती है। आलू की चोट तो काटकर अलग कर लेते हैं, सपनों की चोट अलग करने को बने चाकू को खोजते अक्‍सर मैं खाली नींद में वि‍चरता हूं। अक्‍सर मैं सपनों में सो जाता हूं। अक्‍सर वही होता है जैसा तुमने चाहा। अक्‍सर वही होता है, जि‍सका मै सपना ही नहीं देख पाया। रेत मेरे हाथों से फि‍सलती जाती है। झुर्रियां रोज एक नया सपना देखने का नि‍शान तो दर्ज कर लेती हैं लेकिन खालीपन में वि‍चरते अदेखे सपने मेरी तरह अबोले ही रह जाते हैं।

मैं चोट लि‍खता हूं, फि‍र कुरेद देता हूं। मैं नींद देखता हूं और सपने सो जाता हूं। मैं खुरचता हूं और खाली नि‍शान देखता रहता हूं। मैं चि‍ल्‍लाना रिकॉर्ड करता हूं और नीरवता सुनता रहता हूं। मैं खुरपी हाथ में लेता हूं और जमीन में गाड़ देता हूं। मैं शीशा बनाता हूं और नींदों में उड़ेल देता हूं। तलवों पर रेत जमाता हूं और फि‍र हाथ झाड़ लेता हूं। दि‍खाता हूं खुद को और अनदेखा रह जाता हूं। करता हूं प्रेम और नहा लेता हूं नफरत से। बैठता हूं आगे जाने को, आना भूल जाता हूं।

Thursday, January 7, 2016

मेरा मन चंपक होने लगता है

मैं अपना प्रस्‍थान अनदेखा रहने देता हूं। लोग मुझे आते हुए तो देखते हैं लेकि‍न मेरा जाना नहीं देख पाते। मेरी पूरी कोशि‍श रहती है कि मुझे जाते हुए कोई न देख पाए। शुतुरमुर्ग की तरह मैं जाने से पहले गर्दन उठाकर चारों तरफ देखता हूं और जब कोई नहीं देख रहा होता है तो मैं चुपचाप दौड़कर नि‍कल जाता हूं। जो कुछ भी जि‍तने हाहाकारी तरीके से नि‍कल चुका है, उसने मेरे जाने की उन ति‍हत्‍तर अदाओं को चुप कर दि‍या है जि‍नसे मैं कभी कभार बति‍याते चंपि‍याते नि‍कलता था। मेरा मन चंपक होने लगता है जब मैं देखता हूं कि कोई मेरा जाना देख रहा होता है। उम्र बढ़ रही है इसलि‍ए मैं मेरे मन का चंपक होना टॉलरेट नहीं कर सकता और इसीलि‍ए सर्दी की गर्म रातों में मैं नहाने का पानी गर्म करके खुद पर बर्फ उड़ेल लेता हूं। रात भी मैनें यही कि‍या, रात भी मैं यही करने वाला हूं सर...

डायरी-3


गजब हाल है कि अपने होने का सबूत दि‍ए बगैर हम कहीं भाग भी नहीं सकते। रि‍हाई क्‍या होती है, ये मुझे तो ठीक ठीक समझ में आती है, महान और अगर उससे भी ऊपर कोई शब्‍द है तो वो यूज करते हुए मेरे साथ रहने वालों को भी आ जाती तो दुनि‍या की पंचानवे फीसद समस्‍या हल हो गई होती। अभी सुबह मैनें कहीं लि‍खा देख लि‍या कि बहादुर आदमी ही रोते हैं और तबसे मैंने बहुत बहादुर बनने की नाकामयाब कोशि‍श करके भी देख ली। न मेरे कमरे में आलमारि‍यां या कोई ऐसा ताखा है जि‍से बहादुर बनते वक्‍त पकड़ा जा सके और न ही टॉयलेट या बाथरूम में। कि‍चन में कुछएक ताखे हैं जि‍नका मैं खुद को कायर बनाने की सतत प्रक्रि‍या के तहत ही इस्‍तेमाल करता हूं। मैं बहादुर नहीं, अलबत्‍ता जो चाहे पैसे देकर मुझे बहादुर बना सकता है। बहादुर कौन सी भाषा का शब्‍द है, इसके लि‍ए मैं राग भोपाली भी नहीं गाने वाला क्‍योंकि मेरे पास न तो उसकी कैसेट है और न कैसेट नंबर। सीडी और पेनड्राइव भी मेरी बहादुर के नाम पर नहीं हैं। यशवंत सिंह मेरे अच्‍छे दोस्‍त हैं और मैनें उनसे कबीर को सुना है।

डायरी-4

शर्म पर नि‍यंत्रण करने का एक पति‍त प्रयास

मैं मनुष्‍यता के काबि‍ल नहीं, अलबत्‍ता भेड़ों के समूह में भी मुझे लेकर नवक्रांति‍कारी बहस का भी कोई नतीजा नहीं नि‍कलेगा कि क्‍या मैं उनकी जाति के काबि‍ल हूं। तौबाओं को तोड़ते रहने से ऊबा मैं अब तो बस तौबाओं को तीन तकि‍ए दूर से ताड़ता हूं और बचता हूं उनसे आंख मि‍लाने से। वैसे कई सारी आखि‍री तौबाएं मैनें बचा रखी हैं जो न मुझे करनी हैं न ताड़नी।

डायरी-1

नंगई की भी अपनी अदाएं होती हैं जि‍न्‍हें मैं अपने बहुरंगी चश्‍मे से देखता रहता हूं। बदन की सारी नंगई कि‍स तरह के ख्‍यालों में आजाद होती हैं, इसपर आदि अनादिकाल से कि‍सने नहीं लि‍खा। मन की सारी नंगई जो रोज मेरे सामने मुजरा करके मेरे बचे हुए सैंतीस रूपये कैसे छीनने को उतारू है, ये कि‍स बहीखाते के किस मद में दर्ज करूं, बस इसी कश्‍मकश में हूं। हया की ये कैसी दीवार मेरी जबान पर खड़ी हो गई है कि मैं कि‍सी की भी नंगई से फि‍सल पाने में खुद को चुना हुआ पाता हूं। नंगों को देखकर भी शर्म मुझे ही आती है। सोचता हूं कि दि‍ल्‍ली के हर फ्लाईओवर के नीचे मैं सिर्फ काली शर्ट पहनकर नि‍कलूं। अगर कोई पूछे कि नीचे नंगे क्‍यूं तो बोलूं कि कुछ नहीं, बस अपनी शर्म पर नि‍यंत्रण करने का एक पति‍त प्रयास ही तो कर रहा हूं सर..

डायरी-2