Friday, December 23, 2011

साहस

फेसबुक पर स्टेटस अपडेट करते ही लगातार कमेंट आने शुरू हो गए थे। कोई कुछ कह रहा था तो कोई कुछ। इसी बीच किसी ने प्रोफाइल पर एक फोटो भी टैग कर दिया था। फोटो था कि किसी थाली में एक बच्ची रोटी से ढंककर रखी हुई थी। उधर वॉल पर लोग लगातार पोस्ट पर पोस्ट किए जा रहे थे मानो बरसात के बाद की हरी घास उगने से रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। कमेंट की कोपलें भले ही न फूट रही हों पर पोस्ट के पोस्ट हरे होकर लहलहा रहे थे। टि्‌वटर का भी काफी कुछ यही हाल था लेकिन इन सबके बीच चाय की खत्म हो गई पाी की चिंता सता रही थी। अब चाय की पाी खत्म होने की चिंता तो फेसबुक पर पोस्ट तो की नहीं जा सकती थी। कुछ चाय की तलब तो कुछ लिखने की मजबूरी और काफी कुछ अकेलेपन ने अपूर्वा को बाजार की तरफ धकेल ही दिया। कम से कम बाजार में भीडङ्ग तो मिलेगी। लोग दिखेंगे, लोगों के चेहरे दिखेंगे। जाड़ों में बोरोलीन की चिपचिपाहट से भरे चेहरों में कुछ तलाश शायद खत्म हो। या कुछ तलाशने की कोशिश ही की जाए। अब ये तलाश कोई दो सलाई लेकर स्वेटर बुनना तो है नहीं कि दो सलाइयां एक दूसरे से भिड़ाते रहे और दिन भर में एक आस्तीन तो बुनकर रख ही दी। गाना भी याद आ रहा था...मेरा कुछ सामान...तुहारे पास पड़ा है, मेरा सामान लौटा दो....खैर बाजार में भीड़ तो ज्यादा नहीं थी लेकिन रोशनी भरपूर थी। दुकानदार ने चाय की पाी का पैकेट देते वक्त हौले से हाथ सहला दिया। अपूर्वा कुछ नहीं बोली। भला लगा या बुरा, इसका भी チयाल नहीं आया। पैसे दिए तो पैसे लेते वक्त भी उंगलियां जानबूझकर सहला दीं। अपूर्वा को महसूस तो हुआ सहलाना पर भावना महसूस नहीं हुई। दरअसल अकेलेपन में अपूर्वा की छुअन कुछ मर सी चुकी थी। मकान मालकिन बुलाती रह जातीं, पर वो बगैर जवाब दिए ही सरपट सीढ़ी चढ़ती चली जाती।

चाय की पाी तो घर में आ चुकी थी पर चाय पीने की इच्छा सूख चुकी थी...बिलकुल उसी चाय की सूखी हुई पाी की तरह। हिप पर कुछ मांस ज्यादा हो रहा है, शीशा देखते समय अपूर्वा ने सोचा। लेकिन हो भी तो या? करना या है? किसे दिखाना है? फिर ये सोचना ही यों कि हिप पर कुछ मांस ज्यादा हो रहा है। शीशा देखा, मुंह धुला और लैपटॉप लेकर फिर से बिस्तर में घुस गई। ये जितने भी लड़के फेसबुक या टि्‌वटर पर हैं, सब साल भर के ही साथी होते हैं। साल भर बाद या तो लड़के मुझसे बोर हो जाते हैं या फिर मैं इन लड़कों से बोर हो जाती हूं। छुअन मर चुकी है तो या हुआ, अपना छुआ हुआ तो महसूस होता है। कंप्यूटर की घड़ी बता रही थी कि रात के पौने नौ हो चुके हैं। जैसे जैसे रात काली होती जाती है, छुअन की चाहत और उजली होकर भक से सामने आ जाती है। अब छोड़ो भी, जब तय कर लिया कि अकेले ही खड़े होना है तो अकेले ही खड़े होना है। इस बार फेसबुक नहीं खोलूंगी। अपूर्वा ने सोचा। जीमेल खोला तो फेसबुक पर आए ढेरों कमेंट मुंह बाए सामने रखे हुए थे। लेकिन एक भी वो कमेंट नहीं था, जिसकी अपूर्वा को तलाश थी। जो उसे कब्र से निकाल कर कब्रिस्तान की हरियाली दिखाए। कब्रिस्तान के पुराने दरチतों से फूटती ताजी कोपलों की लाली से जो रस टपकता है, उसका स्वाद दिलाए...कोई ऐसा कमेंट करने वाला मिला ही नहीं।
रात के साढ़े दस बज गए थे। अपनेपन के गहरे नशे में डूबी अपूर्वा को पता ही नहीं चल पा रहा था कि घड़ी आखिरकार इतनी तेजी से भाग कैसे रही है। ये अपनापन भी अजीब चीज है। हम जानते हैं कि हम हैं फिर भी हम मानने के लिए तैयार ही नहीं होते कि हम हैं। हम अपनी परिकल्पना बगैर किसी दूसरे के कर ही नहीं पाते। ठीक वैसे ही जैसे कि रेखागणित या बीज गणित। एक दूसरे के बराबर कैसे होगा। या एक दूसरे के बराबर किस सिद्धांत से होगा। स्टेटस तो अपूर्वा ने अपडेट नहीं किया, अलबाा उंगलियां फोड़ने में लग गई। एक उंगली फूटी तो दूसरी फोड़ी, दूसरी फोड़ी तो तीसरी फोड़ी....पर ये कैसे समझ में आएगा कि हम अकेले ही हैं। कैसे समझ में आएगा। भले ही सपने में देख ले कि रामलीला के सारे किरदार उसके साथ होली खेल रहे हैं। उसके सीने पर... उसके हिप्स पर रंग लगा रहे हैं...फिर भी वह छुअन महसूस ही नहीं कर पा रही है। या रामलीला के सारे किरदार झूठे हैं?
जारी....

Saturday, December 10, 2011

कहानी

घर से निकलते वक्त उसने सोचा नहीं कि जाना कहां है, बस एक झोंक में निकल गया। इतना जरूर सोचा कि बस जाना है, चले जाना है। कूकर की सीटी बज रही थी। शायद आलू उबालने को डाले होंगे। रोज रोज उबला हुआ आलू ही तो मिलता है। तंग आ गया है वो। पर किससे? उबले हुए आलू से या उबल रही जिंदगी से? या फिर जाना कहां है, इस सवाल से? इतने सारे सवाल, पर जवाब एक भी नहीं सूझ रहा था। शायद इसीलिए उसने यह सोचने की जहमत नहीं उठाई कि जाना कहां है।
चमन नाम है इसका। नाम पर मत जाइये, नाम में या रखा है? बाबा शेकेस्पियर भी कह गए थे। कहावत भी है आंख के अंधे नाम नयनसुख। बहरहाल चमन की जिंदगी में फूल कम और झड़ रहे पत्ते ज्यादा मिले। कभी किसी नाम से तो कभी किसी नाम से। अब इतने सारे नाम एक साथ तो याद नहीं रखे जा सकते। एक एक करके ही याद आते हैं। जिंदगी भी या चीज है... एक एक करके जीते हैं, एक साथ नहीं जी सकते, एक बार में नहीं जी सकते। टूटती जुड़ती बिखरती सिमटती जिंदगी।
बाइक में किक लगाई, एक्सीलेटर लेना शुरू किया। घूं घूं करके इंजन बार बार बंद हो रहा था। किसी तरह स्टार्ट की और निकल पड़ा। शहर, शहर की सड़कें और शहर की गलियां। एक भी तो उसे नहीं पहचानतीं। लोग भी उसे बगैर देखे निकल रहे हैं। लड़कियों को वो देख रहा है पर उसे लड़कियां नहीं देख रहीं। सपाट चेहरा, चेहरे पर कोई भाव नहीं। भाव होता तो शायद लोग देखते। पर अभी वह पागलपन तक नहीं पहुंचा। भाव तो पागलों के चेहरे पर आते हैं, कभी हंसने के तो कभी रोने के। कभी ठहाका लगाकर हंसने के तो कभी बुक्का फाड़कर रोने के। वह सोचने लगा कि यों न वह भी ऐसा ही करे। बेवजह हंसने लगे, बेवजह रोने लगे। या पागल भी चीजें बेवजह करते होंगे? उस दिन साइकैट्रिस्ट के साथ होने वाले बात उसे याद आने लगी। लोग पागल क्यों होते हैं? दरअसल कोई भी एक चीज जब असहनीय हो जाती है, तो सारी चीजें असहनीय होने लगती हैं। पर दिमाग में हिट लगातार उसी एक चीज का रहता है। मानसिक संतुलन खोने के लिए जरूरी नहीं है कि वही हिट हो, असहनीय चीजों के बंडल में से कोई भी एक हिट मानसिक असंतुलन बिगाड़ देती है। पागल जो हंसता है या रोता है, वह उन्हीं असहनीय चीजों पर हंसता या रोता है। उसे कभी लगता है कि उसका कुछ बिगड़ गया तो कभी लगता है कि सबकुछ बिगड़ गया। यानि कि पागल इमानदार होता है, भावनाओं के प्रति। काश वह भी पागल होता, कम से कम अपनी भावनाओं के प्रति तो ईमानदार होता।
गंज बाजार में तगड़ा जाम लगा था। दिमाग में भी लगा था। पीछे से रिशे वाले बढ़ो बढ़ो चिल्ला रहे थे तो आगे वाले हवा में बढ़ने का इशारा कर रहे थे। दुकानें थीं कि देखने को ही नहीं मिल रही थीं। कम से कम दुकानों पर सजे सामान को भावनाएं दी जा सकती हैं। योंकि पता होता है कि उनमें कोई भावनाएं नहीं होतीं। उनसे किसी तरह की भावनाओं की अपेक्षा भी नहीं होती। कितने ईमानदार होते हैं दुकानों पर सजे सामान। वह एक जैकेट देख रहा था। जैकेट का कॉलर छोटा था जो उसे पसंद तो था, पर मजबूरी थी कि छोटा कॉलर ठंड कैसे बचाएगा। जैकेट के ऊपर वाली जेब भी पसंद नहीं आ रही थी। सो चमन ने जैकेट देखनी बंद कर दी। वो बेल्ट देखने लगा। जबसे कासगंज से आया है, उसकी बेल्ट नहीं मिली। वजन गिर गया तो पैंट भी सरकने लगी। उसे बेल्ट चाहिए। लेकिन अगर पैंट थोड़ी बहुत सरक भी जाती है तो कोई बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। ऐसी ही सरकती उठती जिंदगी भी तो चल ही रही है। और ये तो फैशन बन चुका है। सरकती पैंट पहनना और जब जिंदगी ज्यादा सरक जाए तो धीमे से उठा लेना।
बेल्ट की बेवजह तलाश में गंज बाजार से निकलकर लालकुर्ती पहुंचा। आह, यहां तो काफी सामान हैं। इतने सारे सामानों में एक बेल्ट कैसे तलाश की जाए। इसी भीड़ में तो वो भी खो गया है। खुद को तलाश कर रहा है एक बेवजह बेल्ट की तरह। वैसे बेल्ट तो काफी सारी थीं, पर उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो कौन सी ले। आखिरकार उसने जूते देखने शुरू कर दिए। उसे लग रहा था कि ये सारे जूते एक साथ उसे पड़ रहे हैं। दर्द हो रहा था पर कहां कहां, ये पता नहीं चल पा रहा था। जूते देखते हुए उसे लगा कि अब वो दर्द से उल्टी कर देगा। अचानक उसे डर लगने लगा। जूतों से, बेल्ट से और दुकानदारों से। तुरंत उसने बाइक को रेस दी और किसी सूनसान जगह की तलाश करने लगा। वैसे ये भी अच्छी तलाश है। जगहें सूनसान कभी हुई हैं क्या ? जब खुद के अंदर इतना शोरगुल हो तो कैसे कोई भी जगह सूनसान हो सकती है। आवाजों से उसे दिक्कत हो रही थी। अपनी भी आवाज उसे बहुत बुरी लगने लगी। सोचना भी बुरा लगने लगा, यहां तक कि ये भी सोचना कि वह सोच ही यों रहा है और सोच है ही क्यों ? विचार आते ही क्यों हैं...यही तो सबसे बड़े दुश्मन हैं मेरे। विचार अगर विध्वसं करते हैं तो क्यों न विचारों को छोड़कर शारीरिक विध्वंस किया जाए। पर विध्वंस हो भी किसका? खुद उसका? या किसी और का?
गाड़ी की स्पीड बीस पचीस से ज्यादा नहीं थी। वह करना भी नहीं चाह रहा था। वह परेशान सोच से था पर ये नहीं सोच पा रहा था कि गाड़ी की स्पीड तेज करने से सोच पर बे्रक लगती है। वह ब्रेक नहीं लगाना चाह रहा था। उसे रुकना अच्छा नहीं लग रहा था। चलते जाना, बस बेवजह चलते जाना ही उसकी समझ में आ रहा था। पर ये सोच नहीं थी। ये उसे अच्छा लगने लगा। बेवजह चलने पर सोच रुक रुक कर साथ दे रही थी। विचार खत्म हो रहे थे, पल भर को ही सही, पर खत्म तो हो रहे थे। गाड़ी कहां जा रही थी, इसे लेकर वह कुछ भी नहीं सोच रहा था। बेध्यानी में अचानक गाड़ी घर पहुंच गई। उबले आलू की सजी बन गई होगी...उसने सोचा।