Sunday, September 11, 2016

अपराधियों से रिश्ता रखने का समाजवादी फैशन

Pic- Rediff
अखिलेश यादव ने सबक सीख लिया। लेकिन लालू जी कब सीखेंगे? या फिर समाजवादी कुनबे की पुरानी पीढ़ी का मुस्लिम समुदाय के अपराधियों से रिश्ता कभी नहीं टूटने वाला है? वह चाहे मुलायम सिंह हों या फिर लालू यादव दोनों इस मामले में एक ही जगह खड़े मिलते हैं। लालू यादव को पता होना चाहिए कि शहाबुद्दीन से उन्हें कुछ राजनीतिक लाभ भले हो जाए। लेकिन वह फायदा अल्पसंख्यकों के हितों की कीमत पर होगा, क्योंकि इससे संघ-बीजेपी को अल्पसंख्यक तबके को अपराधी और आतंकी समर्थक समुदाय के तौर पर पेश करने का मौका मिल जाता है। फिर उसके लिए सांप्रदायिक गोलबंदी आसान हो जाती है। लेकिन लगता है कि अपने तात्कालिक राजनीतिक स्वार्थों के वशीभूत लालू और मुलायम सिंह इस चीज को समझने के लिए तैयार ही नहीं हैं। उन्हें बस अपने स्वार्थ से मतलब है। वैसे भी उनके लिए एक अपराधी को सरंक्षण देकर उसे अपने वश में करना आसान रहता है। क्योंकि अगर अल्पसंख्यक तबके के किसी पढ़े-लिखे और जहनी शख्सियत को अपना नेता बनाएंगे तो उसे अपने मनमुताबिक हांकने में परेशानी होगी। लेकिन आपराधिक चरित्र के व्यक्ति के लिए सत्ता का संरक्षण प्राथमिक जरूरत होती है। ऐसे में उसके लिए किसी भी तरह की बगावत या फिर विरोध भारी पड़ सकता है। लिहाजा अपराधियों को नेता बनाना बेहतर होता है। लेकिन इस प्रक्रिया में वह कितना बीजेपी-संघ को फायदा पहुंचा रहे होते हैं यह उनको पता नहीं है।

यूपी में यही हाल मुख्तार अंसारी से लेकर अतीक अहमद तक का है। यहां पहले इनको मुलायम सिंह का गाहे-बगाहे संरक्षण मिलता रहा है। लेकिन उनके बेटे और सूबे के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इन दोनों समेत दूसरे अपराधियों के प्रति एक कड़ा रुख अपना कर अपनी एक दूसरी छवि पेश की है। और इसका दूसरे तरीके से उनको फायदा भी मिलता दिख रहा है। लेकिन बिहार में लालू जी ने तो यह सबक सीखा ही नहीं। उनके पुत्र तेजस्वी का भी इससे अलग कोई रुख अभी तक नहीं दिखा है। अलग रुख हो भी सकता है। लेकिन पार्टी और सरकार में वो हैसियत नहीं है कि उसे लागू कर सकें। फिर भी उन्हें चुप रहने की जगह उसे जाहिर जरूर करना चाहिए।

शहाबुद्दीन के जेल से छूटते ही संघियों ने गदर काट दिया है। हालांकि रिहाई अदालती प्रक्रिया के जरिये हुई है। बावजूद इसके उनकी रिहाई का हर संभव तरीके से विरोध होना चाहिए। क्योंकि हत्या से लेकर अपहरण और दूसरे दर्जनों अपराधों के आरोपी को जमानत मिलने का कोई तुक ही नहीं बनता है। वह कुछ इतने घृणित और नृशंष अपराधों के आरोपी हैं जिसके लिए उन्हें कभी माफ नहीं किया जा सकता है। इसमें जेएनयू के पूर्व अध्यक्ष चंद्रशेखर की हत्या और एक स्थानीय परिवार के तीन नौजवानों का तेजाब डालकर मौत के घाट उतारने के मसले शामिल हैं। इन अपराधों के बाद तो किसी का जीवन जेल में ही बीतना चाहिए। बावजूद इसके अगर वह छूटे हैं। तो जरूर इसके पीछे राज्य मशीनरी की कोई लापरवाही या फिर साजिश है। या यह जमानत किसी राजनीतिक दबाव का नतीजा है। और अगर राज्य इतना सक्रिय और चौकस होता तो उसके पास कई ऐसे रास्ते हैं जिसके जरिये उसे सीखचों के पीछे रखा जा सकता है। इसमें ऊपरी अदालत में अपील से लेकर दूसरे आपराधिक मामलों में जेल में रखने का विकल्प शामिल है। और ऐसा न करने के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सवालों के घेरे में हैं।

शहाबुद्दीन की रिहाई पर संघियों का बल्लियों उछलना बताता है कि वो कितने खुश हैं। दरअसल उनको लग रहा है कि इसके जरिये वो कितना राजनीतिक लाभ उठा सकते हैं। और अपने राजनीतिक विरोधियों को कठघरे में खड़ा सकते हैं। दरअसल वो इसी तरह के मौकों की तलाश में रहते हैं। लेकिन एक मिनट के लिए उन्हें जरूर अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। क्या वो गुजरात में दंगों के तमाम अपराधियों के मामले में भी इसी तरह से विरोध दर्ज करते हैं। डीपी यादव से लेकर ब्रजभूषण शरण सिंह और ब्रिजेश सिंह पर इसी तरह से गुस्सा जताते हैं। या फिर शहाबुद्दीन, अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी पर ही उनको उबाल आता है। अपराधी अपराधी होता है। वह किसी भी जाति, धर्म, क्षेत्र या समुदाय का हो। इसलिए सबके खिलाफ एक जैसा रुख वक्त की जरूरत है। अपने-अपने तुच्छ हितों के लिए या फिर किसी भावना वश समर्थन उनके लिए आक्सीजन का काम करता है। लेकिन वह पूरे समाज के लिए बहुत घातक होता है। शायद यह बात हम सोच नहीं पाते। या फिर उतनी दूर तक निगाह नहीं जाती। वंजारा के स्वागत का समर्थन और शहाबुद्दीन के स्वागत का विरोध दोनों चीजें एक साथ नहीं चल सकती हैं। लेखक- महेंद्र मिश्र 

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