Saturday, August 27, 2016

अंदर कश्मीरी लाठी खाते हैं, बाहर मैं लात

ये इस देश में मेरे ख्‍याल से सबके साथ सबसे बड़ी समस्‍या है। लोग हंसते हुए घर से नि‍कलते हैं कि वे बड़े सुखी हैं, लेकि‍न दस मि‍नट बाद नर्क की बातें करने लगते हैं। ठेले से एक पर्सेंट ठीक खाना मि‍ल जाता है तो लगने लगता है कि सारा कश्‍मीर मि‍ल गया, कश्‍मीर के सारे बाग मि‍ल गए। दो महीने बाद कोई रि‍श्‍तेदार आके पूछ लेता है कि गुरु, सेहत बना रहे हो क्‍या? बस उतने में ही फूलकर सब अपनी अपनी कंपनी पर लहालोट होने लगते हैं। हालांकि रि‍श्‍तेदार के जाने के बाद ये भी कहते देखे जाते हैं कि कंपनी वंपनी कुछ नहीं, कहीं कोई आजादी नहीं है। दोस्‍त सुनते ही समझाने के मोड में आ जाते हैं कि गुरु, आजादी तो कहीं नहीं है। न कंपनी के अंदर न बाहर। बड़ेघर में भी ठीक ठीक आजादी नहीं मि‍लती।

मैंने सोचा है कि चने का अचार बनाउंगा। लौकी का भी और तुरई का भी। अगर स्‍कॉर्पियन यहां बन सकती है, अगर पर्रिकर रक्षामंत्री बन सकते हैं और अगर फ्रांस बुर्किनी उतार कर चालान कर सकता है तो तुरई का अचार आने वाले सात साल तक सुरक्षि‍त रखकर देखा और मन होने न होने पर खाया भी जा सकता है। देश को नर्क से नि‍कालने के लि‍ए अचार खाना जरूरी है। लि‍खना जरूरी नहीं है, पढ़ना तो बि‍लकुल नहीं। कि‍ताब की बात करना फालतू का काम है। कवि‍ता गरीब की लुगाई है। आजाद तो सिर्फ गोवा है, थोड़ा बहुत युसुफ भाई भी हैं, कुछ दि‍न में पूरे हो जाएंगे। महबूबा... एक बार तो बगैर मुफ्ती के मि‍लो। आई वि‍ल टेक योर ऑल व्‍यू इन माई मर्तबान। यू नो आइ लव अचार। डोंट यू नो? यू मस्‍ट नो!! आफ्टरऑल, आई एम एन आईटीयोआइयन!! यू मस्‍ट मेक एन आईटीओ देयर एट लाल चौक।

भारतीय नामपंथ के वि‍रोध में कौन कौन है। प्‍लीज जल्‍द बताएं। एक स्‍मारि‍का नि‍काल रहा हूं जि‍समें वो सारे होंगे तो नामपंथ के वि‍रोध में हैं, नाम के वि‍रोध में हैं, पंथ के वि‍रोध में हैं, संधि के वि‍रोध में हैं, वि‍च्‍छेदों के वि‍रोध में हैं, छेदों के वि‍रोध में हैं और इन सारे विरोधों के विरोध में हैं। जो भी वि‍रोध में हैं अगर वो नहीं हैं तो वही बता दें जो सिर्फ हैं। जो कहीं नहीं हैं वो मंडी हाउस आकर मुझसे मि‍ल सकते हैं। मैं भी कहीं नहीं हूं। जो है वो बस एक सटकन है!!

कश्‍मीरि‍यों, तुम चिंता न करो। मैं भी नहीं कर रहा। लाठी खाना तुम्‍हारी नि‍यति है और लात खाना मेरी। जैसे तुम्‍हारे साथ कई सारी आत्‍माएं लाठी लेकर चलती रहती हैं, वैसे ही मेरे साथ कई आत्‍माएं लात लेकर चलती रहती हैं। कश्‍मीर में तुम कहीं भी रहोगे, लाठी खाते रहोगे। कश्‍मीर के बाहर मैं कहीं भी रहूंगा, लात खाता रहूंगा। हम दोनों का खाते रहना, खाके बैठे रहना लोगों को ज्‍यादा जरूरी महसूस होता है। हम लोगों का कुछ भी करना, कर लेना वाजि‍ब नहीं। मैं अब चुप होता हूं। तुम तो चुप कर ही दि‍ए गए हो।

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