बैन क्यूं? जनता को मार के छील दीजिए मोदी महोदय
एनडीटीवी पर पाबंदी किसी एक चैनल का मसला नहीं है। यह पूरे प्रेस और उसकी स्वतंत्रता से जुड़ा है। यह बोलने की आजादी पर हमला है। यह कुछ और नहीं बल्कि जनता के दमन और उत्पीड़न की तैयारी है, क्योंकि सरकार के आखिरी निशाने पर वही है। दरअसल मोदी सरकार सारे मोर्चों पर नाकाम हो गई है। उसका सिराजा बिखर रहा है। अच्छे दिन का गुब्बारा फूट चुका है और वादे जुमले साबित हो चुके हैं। अब बचे-खुचे इकबाल के भी जाने का खतरा पैदा हो गया है। हालात बद से बदतर हैं। जनता में रोष है। ऐसे में सरकार को पता है कि उसके अलग-अलग हिस्से सड़क पर उतरेंगे और सरकार को उनसे निपटने के लिए बल की जरूरत पड़ेगी।
सरकार के इस रास्ते में तीन चीजें आड़े आएंगी। अदालत, प्रेस और विपक्ष। इसलिए बारी-बारी से इनको ठिकाने लगाने की तैयारी शुरू हो गई है। न्यायपालिका और मोदी सरकार के बीच की लड़ाई किसी से छुपी नहीं है। न्यायिक आयोग कानून के जरिये अदालतों को अपने चंगुल में लेने में नाकाम सरकार अब दूसरे रास्ते अपना रही है। कई जगहों और कई मंचों पर मुख्य न्यायाधीश इसको जाहिर भी कर चुके हैं। इसका असर भी दिखना शुरू हो गया है। अदालतें देखने के बाद भी अब चीजों की अनदेखी कर रही हैं।
प्रेस का बड़ा हिस्सा कारपोरेट मालिकाने की गिरफ्त के चलते पहले से ही समर्पण कर चुका है। सरकार का सुर ही उसका सुर बन गया है। तमाम दबावों के बाद कुछ ने झुकना मंजूर नहीं किया। उन्होंने अपनी रीढ़ सीधी रखी। लिहाजा सरकार अब ऐसे घरानों के ‘इलाज’ में जुट गई है। एनडीटीवी पर पाबंदी उसी का हिस्सा है। प्रेस और कुछ नहीं बल्कि जनता की आवाज होता है। वह जनता और सरकार के बीच माध्यम है। अब इसी पुल को ही तोड़ने की कोशिश हो रही है। यह मार्ग अब एकतरफा हो जाएगा जिसमें सरकार का पक्ष तो होगा, लेकिन जनता का पक्ष और उसके सवाल गायब हो जाएंगे। इसलिए यह कार्रवाई प्राथमिक और आखिरी तौर पर जनता के खिलाफ है।
रामकिशन मसले पर दिल्ली में विपक्षी नेताओं के साथ सलूक ने बहुत कुछ बता दिया है। लोकतंत्र में विपक्ष अगर सरकार नहीं तो उसकी हैसियत उससे कम भी नहीं होती है। संसद से लेकर सड़क तक वह जनता की आवाज होता है। वह सरकार के जनविरोधी और गलत कामों का तुर्की ब तुर्की जवाब देता है। अनायास नहीं संसदीय लोकतंत्र में शैडो कैबिनेट की अवधारणा है। जनता पार्टी के शासन के दौरान बिहार के बेलछी में हुए दलित हत्याकांड का इंदिरा गांधी ने दौरा किया था। मोरारजी सरकार उन्हें वहां जाने से तो नहीं रोक पायी थी? यहां राजधानी के भीतर अगर विपक्षी नेताओं को पीड़ित के परिजनों से नहीं मिलने दिया जा रहा है तो यह बहुत कुछ कहता है। विपक्ष को अपने बराबर न सही, लेकिन दौ कौड़ी का भी न समझना लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है। क्योंकि किसी अदालत और प्रेस के मुकाबले विपक्ष जनता के सबसे करीब होता है और उसकी आवाज को बंद करने की कोशिश का मतलब है जनता की पहल पर पाबंदी। अनायास नहीं सरकार ने इन तीनों स्तंभों के चोटी के लोगों के गिरेबान पर हाथ डाला है। उसे पता है कि एकबारगी इन्हें काबू में कर लेने का मतलब है पूरा मैदान साफ।
इस तरह से बारी-बारी से जनता की रक्षा करने वाले हथियारों को छीनकर उसे निहत्था किया जा रहा है। आखिर में वह फिल्म किस्सा कुर्सी का में जनता बनी शबाना आजमी की तरह अकेली तो रह जाएगी, लेकिन आत्महत्या नहीं कर पाएगी। इस बार जनता से जो भी सड़क पर उतरेगा मारा जाएगा। कारपोरेट विरोध मौत का पैगाम होगा। सरकार के विरोध का मतलब सीने पर गोली। यह बात अलग है कि वह कहीं किसान होगा तो कहीं दलित, तो कहीं मुसलमान। कहीं बेरोजगार और किसी जगह नक्सली होगा। यह सब कुछ राष्ट्रवाद और देश की रक्षा के नाम पर किया जाएगा। एक ऐसा राष्ट्रवाद जिसमें जनता नहीं होगी, उसके हित नहीं होंगे। जनता की बलि देश की सुरक्षा के नाम पर ली जाएगी। इसकी शुरुआत हो चुकी है। झारखंड में 8 किसानों की पुलिस की गोली से मौत इसी का हिस्सा है। उड़ीसा में नक्सली के नाम पर 24 आदिवासियों की हत्या इसका ट्रेलर।
इस कड़ी में सरकार का सबसे ज्यादा जोर सुरक्षा बलों और उसके जवानों पर है। क्योंकि यही वह हिस्सा है जिसके कंधे पर बैठकर मोदी भविष्य की सत्ता की सवारी करेंगे। इस लिहाज से उसका भरोसा और विश्वास हासिल करना पहली जरूरत बन जाती है। और फिर जवान अपने किसान बाप की छाती गोलियों से छलनी करेगा। राष्ट्र और उसके सुरक्षा के नाम पर छेड़ा गया यह गृहयुद्ध देश को तबाही के रास्ते पर ले जाएगा।
लेखक महेंद्र मिश्र लंबे समय से जन अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं।
सरकार के इस रास्ते में तीन चीजें आड़े आएंगी। अदालत, प्रेस और विपक्ष। इसलिए बारी-बारी से इनको ठिकाने लगाने की तैयारी शुरू हो गई है। न्यायपालिका और मोदी सरकार के बीच की लड़ाई किसी से छुपी नहीं है। न्यायिक आयोग कानून के जरिये अदालतों को अपने चंगुल में लेने में नाकाम सरकार अब दूसरे रास्ते अपना रही है। कई जगहों और कई मंचों पर मुख्य न्यायाधीश इसको जाहिर भी कर चुके हैं। इसका असर भी दिखना शुरू हो गया है। अदालतें देखने के बाद भी अब चीजों की अनदेखी कर रही हैं।
प्रेस का बड़ा हिस्सा कारपोरेट मालिकाने की गिरफ्त के चलते पहले से ही समर्पण कर चुका है। सरकार का सुर ही उसका सुर बन गया है। तमाम दबावों के बाद कुछ ने झुकना मंजूर नहीं किया। उन्होंने अपनी रीढ़ सीधी रखी। लिहाजा सरकार अब ऐसे घरानों के ‘इलाज’ में जुट गई है। एनडीटीवी पर पाबंदी उसी का हिस्सा है। प्रेस और कुछ नहीं बल्कि जनता की आवाज होता है। वह जनता और सरकार के बीच माध्यम है। अब इसी पुल को ही तोड़ने की कोशिश हो रही है। यह मार्ग अब एकतरफा हो जाएगा जिसमें सरकार का पक्ष तो होगा, लेकिन जनता का पक्ष और उसके सवाल गायब हो जाएंगे। इसलिए यह कार्रवाई प्राथमिक और आखिरी तौर पर जनता के खिलाफ है।
रामकिशन मसले पर दिल्ली में विपक्षी नेताओं के साथ सलूक ने बहुत कुछ बता दिया है। लोकतंत्र में विपक्ष अगर सरकार नहीं तो उसकी हैसियत उससे कम भी नहीं होती है। संसद से लेकर सड़क तक वह जनता की आवाज होता है। वह सरकार के जनविरोधी और गलत कामों का तुर्की ब तुर्की जवाब देता है। अनायास नहीं संसदीय लोकतंत्र में शैडो कैबिनेट की अवधारणा है। जनता पार्टी के शासन के दौरान बिहार के बेलछी में हुए दलित हत्याकांड का इंदिरा गांधी ने दौरा किया था। मोरारजी सरकार उन्हें वहां जाने से तो नहीं रोक पायी थी? यहां राजधानी के भीतर अगर विपक्षी नेताओं को पीड़ित के परिजनों से नहीं मिलने दिया जा रहा है तो यह बहुत कुछ कहता है। विपक्ष को अपने बराबर न सही, लेकिन दौ कौड़ी का भी न समझना लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है। क्योंकि किसी अदालत और प्रेस के मुकाबले विपक्ष जनता के सबसे करीब होता है और उसकी आवाज को बंद करने की कोशिश का मतलब है जनता की पहल पर पाबंदी। अनायास नहीं सरकार ने इन तीनों स्तंभों के चोटी के लोगों के गिरेबान पर हाथ डाला है। उसे पता है कि एकबारगी इन्हें काबू में कर लेने का मतलब है पूरा मैदान साफ।
इस तरह से बारी-बारी से जनता की रक्षा करने वाले हथियारों को छीनकर उसे निहत्था किया जा रहा है। आखिर में वह फिल्म किस्सा कुर्सी का में जनता बनी शबाना आजमी की तरह अकेली तो रह जाएगी, लेकिन आत्महत्या नहीं कर पाएगी। इस बार जनता से जो भी सड़क पर उतरेगा मारा जाएगा। कारपोरेट विरोध मौत का पैगाम होगा। सरकार के विरोध का मतलब सीने पर गोली। यह बात अलग है कि वह कहीं किसान होगा तो कहीं दलित, तो कहीं मुसलमान। कहीं बेरोजगार और किसी जगह नक्सली होगा। यह सब कुछ राष्ट्रवाद और देश की रक्षा के नाम पर किया जाएगा। एक ऐसा राष्ट्रवाद जिसमें जनता नहीं होगी, उसके हित नहीं होंगे। जनता की बलि देश की सुरक्षा के नाम पर ली जाएगी। इसकी शुरुआत हो चुकी है। झारखंड में 8 किसानों की पुलिस की गोली से मौत इसी का हिस्सा है। उड़ीसा में नक्सली के नाम पर 24 आदिवासियों की हत्या इसका ट्रेलर।
इस कड़ी में सरकार का सबसे ज्यादा जोर सुरक्षा बलों और उसके जवानों पर है। क्योंकि यही वह हिस्सा है जिसके कंधे पर बैठकर मोदी भविष्य की सत्ता की सवारी करेंगे। इस लिहाज से उसका भरोसा और विश्वास हासिल करना पहली जरूरत बन जाती है। और फिर जवान अपने किसान बाप की छाती गोलियों से छलनी करेगा। राष्ट्र और उसके सुरक्षा के नाम पर छेड़ा गया यह गृहयुद्ध देश को तबाही के रास्ते पर ले जाएगा।
लेखक महेंद्र मिश्र लंबे समय से जन अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं।
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