अमेरिकी जनता की बौद्धिक समझ का आइना हैं डॉनल्ड ट्रंप
कई सभ्यताओं के पतन की कहानियां इतिहास में दर्ज हैं, लेकिन एक बड़े साम्राज्य को हम अपनी आंखों के सामने ढहते देख रहे हैं। हालांकि यह अभी आखिरी वाक्य नहीं है। अमेरिकी जनता ने एक ऐसा राष्ट्रपति चुना है जो अपने पूरे चरित्र में लंपट है। जिसकी महिलाओं के साथ छेड़खानी की कहानियां हैं, पोर्न स्टार्स से रिश्ते हैं। जो धुर मुस्लिम विरोधी होने के साथ अप्रवासियों के खिलाफ है। काले जिसको फूटी आंख नहीं सुहाते, अफ्रीकी-अमेरिकी उसे एक पल के लिए भी बर्दाश्त नहीं। वो देश में फिर से गोरों की सत्ता का ख्वाहिशमंद है। सरकारी प्रशासन के संचालन का जिसे एक दिन का अनुभव नहीं है। दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र की यह नई असलियत है, जो खुद में बहुत भयावह है। 250 साल के पूंजीवादी लोकतंत्र का अगर यही जमा हासिल है, तो इस पर फिर से विचार की जरूरत है। यह शायद पहला अमेरिकी चुनाव हो जिसमें नतीजों की घोषणा के बाद ही लाखों लोग सड़कों पर उतर आए हों। सब एक सुर में बोल रहे हों कि ट्रंप उनके राष्ट्रपति नहीं हैं। यह अभूतपूर्व स्थिति है।
ट्रंप के चयन के जरिये अमेरिकी समाज की वास्तविक तस्वीर भी सामने आ गई है। कहा जाता है कि नेतृत्व कुछ और नहीं बल्कि जनता की सोच, समझ और उसके बौद्धिक स्तर का आईना होता है। यह एक दूसरे तरीके से अमेरिकी पूंजीवादी समाज के पतन की कहानी भी बता रहा है। यह बताता है कि अमेरिकी समाज का बड़ा हिस्सा पतित हो गया है। उसके जीवन में विचारों, मूल्यों और सिद्धांतों के लिए अब कोई जगह नहीं बची है। मुनाफे के बाजार में पला बढ़ा उपभोक्ता अब सामान का हिस्सा बन चुका है। उसमें किसी मानवीय सोच और संवेदना के लिए जगह तलाशना बेमानी है।
दरअसल अमेरिकी अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजर रही है, ट्रंप उसी की पैदाइश हैं। जब तक पूरी दुनिया में अमेरिकी लूट का कारोबार चलता रहा, पूंजी का निर्बाध प्रवाह उसके मक्का की ओर बना रहा, इस लूट में जनता की हिस्सेदारी चलती रही, तब तक कोई समस्या नहीं दिखी। लेकिन जैसे ही इसमें अड़चन आयी, प्रक्रिया बाधित होती दिखी, समस्याओं का अंबार आ गया। अमेरिका 2008 की मंदी से अभी तक नहीं उबर सका है। ऊपर से चीन की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़त और बाजारों पर कब्जे ने उसके सामने नई परेशानी खड़ी कर दी है। मध्यपूर्व में दखल और युद्धों में उसकी शिरकत ने फायदा कम नुकसान ज्यादा पहुंचाया। पूंजी के मद में भले ही कुछ फायदा हुआ हो लेकिन इसने जन हानि और आतंकवाद के तौर पर नई समस्याएं दे दी।
घरों में आर्थिक संकट होता है तो पारिवारिक झगड़े बढ़ जाते हैं। यही अमेरिका में हुआ। संसाधन सीमित होते जा रहे हैं। और उसमें हिस्सेदारी के लिए होड़ बढ़ती जा रही है। ऐसे में एक पक्ष को असली दावेदार करार देकर दूसरे पक्ष के एक हिस्से को अवैध ठहराने और दूसरे को बाहर निकालने और तीसरे को शंट करने की राजनीति शुरू हो गई। ट्रंप ने इसी राजनीति को सुर दिया। जब उन्होंने स्थानीय गोरों का संसाधनों पर पहला हक बताया। इस कड़ी में उन्होंने मुसलमानों से लेकर अप्रवासियों और अफ्रीकी-अमेरिकियों को बाहरी करार देने के साथ ही उन्हें सारी समस्याओं के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया। पूरी दुनिया का ठेका नहीं लेने का उनका बयान इसी का विस्तार है। फिर इसको बढ़ाते हुए उन्होंने एक प्रक्रिया में दुनिया के पैमाने पर अपने फौजी अड्डों वाले देशों से उसकी कीमत वसूलने का ऐलान किया। उनके इस पूरे आक्रामक प्रचार में समस्या को हल करने का एक रास्ता दिखा। यह अपने तरीके से एक दृष्टि का भी निर्माण करता था। यह बेवजह नहीं है कि ट्रंप के वोटरों में गोरे अमेरिकी, कम शिक्षित, वर्किंग क्लास, सब अर्बन क्षेत्रों के लोगों के साथ पुरुषों समेत धनाड्य विरोधी जेहनियत वाले तबकों का बहुमत है।
दूसरी तरफ हिलेरी क्लिंटन के साथ महिलाएं, उच्चशिक्षित अभिजात तबका तथा भारतीय और अफ्रीकी-अमेरिकियों समेत उच्चवर्गों का बड़ा हिस्सा था। लेकिन उनके पास समस्याओं को हल करने का कोई विजन नहीं था। डेमोक्रैटिक पार्टी के लगातार सत्ता में बने रहने और ओबामा के लोगों की आकांक्षाओं को पूरा न कर पाने का ठीकरा भी क्लिंटन के सिर फूटा है। ऊपर से आईएसआईएस को फंडिंग से लेकर उसे खड़ा करने में क्लिंटन की हिस्सेदारी का खुलासा ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ। इस मामले में रूसी राष्ट्रपति पुतिन की भूमिका बेहद संदिग्ध मानी जा रही है। कहा जा रहा है कि पुतिन अमेरिका में ट्रंप को देखना चाहते थे। और इस लिहाज से उन्हें हर संभव सहायता दे रहे थे। रूसी हैकरों के जरिये विकीलीक्स के माध्यम से क्लिंटन के ईमेल का खुलासा इसी का हिस्सा था। रूसी विदेश उपमंत्री ने भी ट्रंप की टीम से संपर्क में रहने की बात मानी है। दरअसल पुतिन को लग रहा है कि ट्रंप के आने पर सीरिया में उनका मिशन आसान हो जाएगा। चाहकर भी ट्रंप आईएसआईएस के साथ नहीं जा पाएंगे। क्योंकि उन्होंने अपना पूरा चुनाव ही उसी के खिलाफ लड़ा है। नाटो मंच के खिलाफ ट्रंप पहले ही बोल चुके हैं। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका का दखल कुछ कमजोर होने की आशंका है। और रूस से बाहर पांव पसारने के लिए बेताब पुतिन के लिए इससे बेहतर मौका दूसरा नहीं हो सकता है।
बहरहाल आने वाले तीन-चार साल पूरी दुनिया के लिए बेहद उथल-पुथल और अनिश्चितता भरे होने वाले हैं। अंतरराष्ट्रीय राजनीति किस करवट बैठेगी कुछ कह पाना मुश्किल है। कुछ ऐसी चीजें हो सकती हैं जिनके बारे में किसी ने कभी सोचा भी नहीं हो। अनायास नहीं अमेरिकी न्यूक्लियर बमों की कमान संभालने वाले एक पूर्व कर्मचारी ने ट्रंप की दिमागी अनिश्चितता को देखकर उन्हें वोट न देने की अपील की थी। फिलहाल अब जब उन्हें चुन लिया गया है। और उनका ह्वाइट हाउस पहुंचना तय है। ऐसे में वह खतरा दुनिया के बिल्कुल सामने है। यह ट्रंप के राष्ट्रपति की कुर्सी पर रहने तक बना रहेगा। इस कड़ी मंा देखना होगा कि अमेरिका खुद को कितना बचा पाएगा और कितनी अपनी समस्याएं हल कर पाएगा। या फिर वैश्विक साम्राज्यवाद के सूरज के अब ढलने के दिन आ गए हैं?
लेखक महेंद्र मिश्र लंबे समय से जन अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं।
ट्रंप के चयन के जरिये अमेरिकी समाज की वास्तविक तस्वीर भी सामने आ गई है। कहा जाता है कि नेतृत्व कुछ और नहीं बल्कि जनता की सोच, समझ और उसके बौद्धिक स्तर का आईना होता है। यह एक दूसरे तरीके से अमेरिकी पूंजीवादी समाज के पतन की कहानी भी बता रहा है। यह बताता है कि अमेरिकी समाज का बड़ा हिस्सा पतित हो गया है। उसके जीवन में विचारों, मूल्यों और सिद्धांतों के लिए अब कोई जगह नहीं बची है। मुनाफे के बाजार में पला बढ़ा उपभोक्ता अब सामान का हिस्सा बन चुका है। उसमें किसी मानवीय सोच और संवेदना के लिए जगह तलाशना बेमानी है।
दरअसल अमेरिकी अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजर रही है, ट्रंप उसी की पैदाइश हैं। जब तक पूरी दुनिया में अमेरिकी लूट का कारोबार चलता रहा, पूंजी का निर्बाध प्रवाह उसके मक्का की ओर बना रहा, इस लूट में जनता की हिस्सेदारी चलती रही, तब तक कोई समस्या नहीं दिखी। लेकिन जैसे ही इसमें अड़चन आयी, प्रक्रिया बाधित होती दिखी, समस्याओं का अंबार आ गया। अमेरिका 2008 की मंदी से अभी तक नहीं उबर सका है। ऊपर से चीन की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़त और बाजारों पर कब्जे ने उसके सामने नई परेशानी खड़ी कर दी है। मध्यपूर्व में दखल और युद्धों में उसकी शिरकत ने फायदा कम नुकसान ज्यादा पहुंचाया। पूंजी के मद में भले ही कुछ फायदा हुआ हो लेकिन इसने जन हानि और आतंकवाद के तौर पर नई समस्याएं दे दी।
घरों में आर्थिक संकट होता है तो पारिवारिक झगड़े बढ़ जाते हैं। यही अमेरिका में हुआ। संसाधन सीमित होते जा रहे हैं। और उसमें हिस्सेदारी के लिए होड़ बढ़ती जा रही है। ऐसे में एक पक्ष को असली दावेदार करार देकर दूसरे पक्ष के एक हिस्से को अवैध ठहराने और दूसरे को बाहर निकालने और तीसरे को शंट करने की राजनीति शुरू हो गई। ट्रंप ने इसी राजनीति को सुर दिया। जब उन्होंने स्थानीय गोरों का संसाधनों पर पहला हक बताया। इस कड़ी में उन्होंने मुसलमानों से लेकर अप्रवासियों और अफ्रीकी-अमेरिकियों को बाहरी करार देने के साथ ही उन्हें सारी समस्याओं के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया। पूरी दुनिया का ठेका नहीं लेने का उनका बयान इसी का विस्तार है। फिर इसको बढ़ाते हुए उन्होंने एक प्रक्रिया में दुनिया के पैमाने पर अपने फौजी अड्डों वाले देशों से उसकी कीमत वसूलने का ऐलान किया। उनके इस पूरे आक्रामक प्रचार में समस्या को हल करने का एक रास्ता दिखा। यह अपने तरीके से एक दृष्टि का भी निर्माण करता था। यह बेवजह नहीं है कि ट्रंप के वोटरों में गोरे अमेरिकी, कम शिक्षित, वर्किंग क्लास, सब अर्बन क्षेत्रों के लोगों के साथ पुरुषों समेत धनाड्य विरोधी जेहनियत वाले तबकों का बहुमत है।
दूसरी तरफ हिलेरी क्लिंटन के साथ महिलाएं, उच्चशिक्षित अभिजात तबका तथा भारतीय और अफ्रीकी-अमेरिकियों समेत उच्चवर्गों का बड़ा हिस्सा था। लेकिन उनके पास समस्याओं को हल करने का कोई विजन नहीं था। डेमोक्रैटिक पार्टी के लगातार सत्ता में बने रहने और ओबामा के लोगों की आकांक्षाओं को पूरा न कर पाने का ठीकरा भी क्लिंटन के सिर फूटा है। ऊपर से आईएसआईएस को फंडिंग से लेकर उसे खड़ा करने में क्लिंटन की हिस्सेदारी का खुलासा ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ। इस मामले में रूसी राष्ट्रपति पुतिन की भूमिका बेहद संदिग्ध मानी जा रही है। कहा जा रहा है कि पुतिन अमेरिका में ट्रंप को देखना चाहते थे। और इस लिहाज से उन्हें हर संभव सहायता दे रहे थे। रूसी हैकरों के जरिये विकीलीक्स के माध्यम से क्लिंटन के ईमेल का खुलासा इसी का हिस्सा था। रूसी विदेश उपमंत्री ने भी ट्रंप की टीम से संपर्क में रहने की बात मानी है। दरअसल पुतिन को लग रहा है कि ट्रंप के आने पर सीरिया में उनका मिशन आसान हो जाएगा। चाहकर भी ट्रंप आईएसआईएस के साथ नहीं जा पाएंगे। क्योंकि उन्होंने अपना पूरा चुनाव ही उसी के खिलाफ लड़ा है। नाटो मंच के खिलाफ ट्रंप पहले ही बोल चुके हैं। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका का दखल कुछ कमजोर होने की आशंका है। और रूस से बाहर पांव पसारने के लिए बेताब पुतिन के लिए इससे बेहतर मौका दूसरा नहीं हो सकता है।
बहरहाल आने वाले तीन-चार साल पूरी दुनिया के लिए बेहद उथल-पुथल और अनिश्चितता भरे होने वाले हैं। अंतरराष्ट्रीय राजनीति किस करवट बैठेगी कुछ कह पाना मुश्किल है। कुछ ऐसी चीजें हो सकती हैं जिनके बारे में किसी ने कभी सोचा भी नहीं हो। अनायास नहीं अमेरिकी न्यूक्लियर बमों की कमान संभालने वाले एक पूर्व कर्मचारी ने ट्रंप की दिमागी अनिश्चितता को देखकर उन्हें वोट न देने की अपील की थी। फिलहाल अब जब उन्हें चुन लिया गया है। और उनका ह्वाइट हाउस पहुंचना तय है। ऐसे में वह खतरा दुनिया के बिल्कुल सामने है। यह ट्रंप के राष्ट्रपति की कुर्सी पर रहने तक बना रहेगा। इस कड़ी मंा देखना होगा कि अमेरिका खुद को कितना बचा पाएगा और कितनी अपनी समस्याएं हल कर पाएगा। या फिर वैश्विक साम्राज्यवाद के सूरज के अब ढलने के दिन आ गए हैं?
लेखक महेंद्र मिश्र लंबे समय से जन अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं।
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