गदर: एक गुलाल कथा (2024)
कनपुरिया गदर: विजय त्रिपाठी |
इतना रंगो, इतना रंगो कि इतने-जितने की हर हद से बाहर फूट पड़ो। और फूटना तो उस गुब्बारे कि तरह बेपरवाह होकर ही फूटना। निशाना लगे- न लगे, फूटकर फैल जाना ही उसकी नियति है। और निशाना न लगने के बाद सिर फुड़वाना फेंकने वाले की नियति है। यही वक्त है नियति से साक्षात्कार का। यही सबसे सही वक्त है फैलने का। और यही सही वक्त है फूलने का भी। दो गोली भांग और लो। चिलम के चार सुट्टे और मारो। फैल फूलकर अगर कोई सीधे घर की राह पकड़े तो उसके कुर्ते का क्या करना है, ये भी बताना पड़ेगा? पूरे शहर में बिजली वालों ने तार टांग रखे हैं, आज के कुर्ते उनपर न सूखे तो भला कब सूखेंगे?
हिंदी के प्रफेसरों से आज बदला न लिया तो फिर कब बदला लोगे? साल भर से जितनी भी अंग्रेजी मन में फूली हुई है, एक साथ उनपर फोड़ो। फोड़ने से पहले इसका प्लान रेखागणित में ही बनाना, हिंदी वाले उसे शकुंतला की कमर समझेंगे। हिंदी वाले कमर में उलझे रहेंगे तो बांए हाथ से उन्हें उड़ता कौव्वा दिखाकर उनकी दाहिनी कखरी में दबी कामायनी छीन लो और उसमें कीट्स दबा दो। एक कीट्स से काम नहीं चलेगा। दो चार लेकर जाओ और हिंदी वालों के जहां-जहां दबा सकते हो, लगा सकते हो- लगा दो।
समाजशास्त्र वाले प्रफेसरों, आज बताना कि कहां गया समाज और कहां गया शास्त्र? बाहर आओ, तुम्हें उड़ता कौव्वा दिखाना है। पॉलिटिकल साइंस वाले के पास आज आधार आईडी लेकर जाने की कोई जरूरत नहीं। आज वह तुम्हें तुम्हारे आधार कार्ड वाली फोटो देखे बगैर ही पहचान लेगा। फिर भी वह आईडी मांगेगा। डरना मत। यह उसकी राजनीति का छुद्र छेद है हुरियारों। आज बंद होना मांगता है। राजनीति के सारे छुद्र-अछुद्र छेदों में आज गदर काटकर गुलाल भर दो, विज्ञान के भी। और हां, दांत दिखाना मगर किटकिटाना नहीं। कुछ करने से पहले इनकी आवाज में रंग भरना न भूलना। बड़े घाघ होते हैं। आवाज सुनकर ही जान जाएंगे कि पिछली कॉपी का हिसाब भर रहे हो।
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