कोई पत्रकार मिले तो उसे खाना ही खिला दीजिए...
मेरे एक मित्र सहारनपुर में पत्रकार हुए। सहारनपुर के नहीं थे, मगर नौकरी खींच ले गई। तनख्वाह तय हुई साढ़े पांच हजार रुपए महीना, साढ़े तीन सौ रुपए मोबाइल और साढ़े छह सौ रुपए पेट्रोल। मित्र महोदय खुश, कि चलो फ्रीलांसिंग से तो पांच हजार का भी जुगाड़ नहीं हो पाता था, यहां कम से कम साढ़े छह मिलेंगे।
दिल्ली से घर बार बीवी लेकर सहारनपुर पहुंचे और ढाई हजार रुपए में एक कमरा किराए पर लिया। आठ दस साल पहले की बात है, सस्ते का जमाना था। साथ में एक साथी पत्रकार काम करते थे, जिनका सहारनपुर में ही गांव था। वो गांव से आने वाली आलू प्याज में एक हिस्सा इन्हें भी देते, सो बेसिक सब्जी का भी खर्च कम हो गया। फिर भी बचते बचते महीने की बीस तारीख तक वो पैसे खत्म हो जाते, जो लाला हर महीने सात दिन देर से देता।
इसी बीच बीवी ने एक दिन खुशखबरी दी तो पत्रकार महोदय ने मंदिर में जुगाड़ लगाकर प्रसाद में चढ़े दो तीन किलो लड्डू हथियाए और दफ्तर में सबका मुंह मीठा कराया। साथियों ने जै-जै की, पत्रकार महोदय फूले। मैंने भी देखा, बाइचांस वहीं थी। सबकुछ ठीक चल रहा था कि पांचवे हफ्ते डॉक्टर ने कहा कि कुछ भी ठीक नहीं। बीवी को भर्ती कराया, बच्चा गंवाया। डॉक्टरनी ने तो फीस नहीं ली, मगर साढ़े नौ हजार की दवाइयां लिख दीं।
साथी पत्रकारों ने मदद की, फिर भी साढ़े चार हजार रुपए की कमी थी। पत्रकार महोदय को वही अधिकारी याद आए, जिन्हें उनके बड़े भाई ने सहारनपुर में उनका लोकल गार्जियन बनाया था। ये पहुंचे उनके पास, लेकिन मुश्किल ये कि बतौर पत्रकार तो उन्होंने उस अधिकारी की भी बेजा हरकतें अखबार-ए-आम की हुई थीं। अब बोलें तो बोलें कैसे। बड़ी मुश्किल से अटक-अटक कर मुसीबत के बारे में बताया। अंत में मदद की दरख्वास्त की- यह कहकर कि सात तारीख को पूरी रकम चुका देंगे। अधिकारी महोदय ने कहा- सोचेंगे।
पत्रकार महोदय के मुताबिक उन्हें अंदाजा हो गया था, सो अधिकारी के यहां से बाइक लेकर निकले और पहुंचे सीधे मिस्त्री की दूकान पर। बाइक बेच दी और उसकी जगह ली एक और भी सस्ती और तीसरे दिन खराब रहने वाली बाइक। बचे हुए पैसों से दवा खरीदी और घर पहुंचे।
कुछ समय पहले उनसे बात हो रही थी। बता रहे थे कि लाला ने मजीठिया न देने के लिए चार बार साइन कराए हैं। फिर उसी अधिकारी की याद दिलाई। बोले कि दिल्ली रोड पर वसूली करते विजलेंस वालों ने पकड़ा। कहने लगे- आप तो वापस चली गई थीं, मगर इस अधिकारी ने संपादक के पास लिखकर शिकायत की थी और मेरी रिकॉर्डिंग भी कर ली थी। लेकिन रिकॉर्डिंग में भी मैंने कोई गलत बात नहीं की थी, इसलिए संपादक जी ने छोड़ दिया। दफ्तर आकर भी उन्होंने बहुत हंगामा किया तो संपादक जी ने उनसे कहा कि आप मुकदमा दर्ज कराइए। वो तो पुलिस में नहीं गए, मगर अब पुलिस उन्हें जरूर ले गई।
अब उन्हें महीने में साढ़े बारह हजार रुपए तनख्वाह, पांच सौ मोबाइल और हजार पेट्रोल के मिलने लगे हैं। आलू प्याज वैसे ही साथी पत्रकार के गांव से बिला नागा आ जाती है, जैसे आठ दस साल पहले आती थी। पैसे पहले बीस बाइस को खत्म होते थे, अब तो 18 तक का भी इंतजार नहीं करते और अगर सात को संडे पड़ गया तो नौ तक ही मिलते हैं। हर महीने आधी तनख्वाह एडवांस में कटती है। मैंने उनको कई बार कहा कि विचार से जीवन नहीं चलेगा, कुछ कमाई करिए। रिपोर्टर हैं तो अधिकारियों से या किसी से भी कुछ कमाने की सेटिंग करिए। बोले, एक जगह मैगजीन डिजाइन करने का काम मिला है, महीने में दो बार करना है, ढाई दे देंगे। कुल मिलाकर वो वैसे कमाने के लिए नहीं मान रहे हैं, जैसे कि मैं कह रही हूं।
बात सहारनपुर के पत्रकार की ही नहीं है, कहानी अकेले एक अखबार की भी नहीं। पहले संपादक भी सबकी सोचते थे, अब तो संपादक वह जीव है जो सबसे ज्यादा सैलरी इसलिए लेता है कि पत्रकारों को सबसे कम सैलरी दी जा सके। तुर्रा ये कि पत्रकारिता का त भी न पहचानने वाले जब तब उन्हें भ्रष्ट कहते रहते हैं। जानते हैं, पत्रकार दुनिया का अकेला ऐसा जीव होता है जो दुनियाभर के लिए आवाज उठाता है, पर खुद के लिए ऐसे खामोश हो जाता है, जैसे किसी ने जबरदस्ती उसके मुंह में कपड़ा ठूंसकर बांध दिया हो। याद करिए आखिरी बार शहर में कब पत्रकारों को अपने लिए आवाज उठाते देखा।
पत्रकार अगर भ्रष्ट हैं तो मैं कहती हूं कि उन्हें और भी भ्रष्ट होना चाहिए। तब तक पूरी तरह से भ्रष्ट होना चाहिए, जब तक कि उनका और उनके परिवार का पेट तीन वक्त न भरे। धर्म भी यही कहता है। जिन हालातों में इस वक्त देश भर के भाषाई पत्रकार हैं, अगर वह भ्रष्ट नहीं हैं तो वह अधर्मी हैं। उन्हें अपनेे ही बच्चों की भूख भरी आह लगेगी।
जिस किसी को इस भ्रष्टाचार से दिक्कत है, तो पहले वह पत्रकारों की मदद करना शुरू करें, तभी उनकी भी दिक्कत खत्म होगी, पत्रकारों की भी। कुछ नहीं कर सकते तो कोई पत्रकार मिले तो उसे खाना ही खिला दीजिए। जबरदस्ती। पत्रकारिता हमेशा समाज के भरोसे ही आगे बढ़ती आई है, न कि सत्ता के। सत्ता के भरोसे होती तो सत्ता उसे कब की मिटा चुकी होती। चीन में देखिए, मिटा ही चुकी है। दिल्ली, लखनऊ, पटना, कलकत्ता का चश्मा उतारकर जरा उन शहरों के पत्रकारों की भी खबर लीजिए, जहां से खबरें आती हैं। जोगेंद्र सिंह और राम चंदेर प्रजापति याद हैं या भूल गए?
लेखिका- रोहिणी गुप्ते
दिल्ली से घर बार बीवी लेकर सहारनपुर पहुंचे और ढाई हजार रुपए में एक कमरा किराए पर लिया। आठ दस साल पहले की बात है, सस्ते का जमाना था। साथ में एक साथी पत्रकार काम करते थे, जिनका सहारनपुर में ही गांव था। वो गांव से आने वाली आलू प्याज में एक हिस्सा इन्हें भी देते, सो बेसिक सब्जी का भी खर्च कम हो गया। फिर भी बचते बचते महीने की बीस तारीख तक वो पैसे खत्म हो जाते, जो लाला हर महीने सात दिन देर से देता।
इसी बीच बीवी ने एक दिन खुशखबरी दी तो पत्रकार महोदय ने मंदिर में जुगाड़ लगाकर प्रसाद में चढ़े दो तीन किलो लड्डू हथियाए और दफ्तर में सबका मुंह मीठा कराया। साथियों ने जै-जै की, पत्रकार महोदय फूले। मैंने भी देखा, बाइचांस वहीं थी। सबकुछ ठीक चल रहा था कि पांचवे हफ्ते डॉक्टर ने कहा कि कुछ भी ठीक नहीं। बीवी को भर्ती कराया, बच्चा गंवाया। डॉक्टरनी ने तो फीस नहीं ली, मगर साढ़े नौ हजार की दवाइयां लिख दीं।
साथी पत्रकारों ने मदद की, फिर भी साढ़े चार हजार रुपए की कमी थी। पत्रकार महोदय को वही अधिकारी याद आए, जिन्हें उनके बड़े भाई ने सहारनपुर में उनका लोकल गार्जियन बनाया था। ये पहुंचे उनके पास, लेकिन मुश्किल ये कि बतौर पत्रकार तो उन्होंने उस अधिकारी की भी बेजा हरकतें अखबार-ए-आम की हुई थीं। अब बोलें तो बोलें कैसे। बड़ी मुश्किल से अटक-अटक कर मुसीबत के बारे में बताया। अंत में मदद की दरख्वास्त की- यह कहकर कि सात तारीख को पूरी रकम चुका देंगे। अधिकारी महोदय ने कहा- सोचेंगे।
पत्रकार महोदय के मुताबिक उन्हें अंदाजा हो गया था, सो अधिकारी के यहां से बाइक लेकर निकले और पहुंचे सीधे मिस्त्री की दूकान पर। बाइक बेच दी और उसकी जगह ली एक और भी सस्ती और तीसरे दिन खराब रहने वाली बाइक। बचे हुए पैसों से दवा खरीदी और घर पहुंचे।
कुछ समय पहले उनसे बात हो रही थी। बता रहे थे कि लाला ने मजीठिया न देने के लिए चार बार साइन कराए हैं। फिर उसी अधिकारी की याद दिलाई। बोले कि दिल्ली रोड पर वसूली करते विजलेंस वालों ने पकड़ा। कहने लगे- आप तो वापस चली गई थीं, मगर इस अधिकारी ने संपादक के पास लिखकर शिकायत की थी और मेरी रिकॉर्डिंग भी कर ली थी। लेकिन रिकॉर्डिंग में भी मैंने कोई गलत बात नहीं की थी, इसलिए संपादक जी ने छोड़ दिया। दफ्तर आकर भी उन्होंने बहुत हंगामा किया तो संपादक जी ने उनसे कहा कि आप मुकदमा दर्ज कराइए। वो तो पुलिस में नहीं गए, मगर अब पुलिस उन्हें जरूर ले गई।
अब उन्हें महीने में साढ़े बारह हजार रुपए तनख्वाह, पांच सौ मोबाइल और हजार पेट्रोल के मिलने लगे हैं। आलू प्याज वैसे ही साथी पत्रकार के गांव से बिला नागा आ जाती है, जैसे आठ दस साल पहले आती थी। पैसे पहले बीस बाइस को खत्म होते थे, अब तो 18 तक का भी इंतजार नहीं करते और अगर सात को संडे पड़ गया तो नौ तक ही मिलते हैं। हर महीने आधी तनख्वाह एडवांस में कटती है। मैंने उनको कई बार कहा कि विचार से जीवन नहीं चलेगा, कुछ कमाई करिए। रिपोर्टर हैं तो अधिकारियों से या किसी से भी कुछ कमाने की सेटिंग करिए। बोले, एक जगह मैगजीन डिजाइन करने का काम मिला है, महीने में दो बार करना है, ढाई दे देंगे। कुल मिलाकर वो वैसे कमाने के लिए नहीं मान रहे हैं, जैसे कि मैं कह रही हूं।
बात सहारनपुर के पत्रकार की ही नहीं है, कहानी अकेले एक अखबार की भी नहीं। पहले संपादक भी सबकी सोचते थे, अब तो संपादक वह जीव है जो सबसे ज्यादा सैलरी इसलिए लेता है कि पत्रकारों को सबसे कम सैलरी दी जा सके। तुर्रा ये कि पत्रकारिता का त भी न पहचानने वाले जब तब उन्हें भ्रष्ट कहते रहते हैं। जानते हैं, पत्रकार दुनिया का अकेला ऐसा जीव होता है जो दुनियाभर के लिए आवाज उठाता है, पर खुद के लिए ऐसे खामोश हो जाता है, जैसे किसी ने जबरदस्ती उसके मुंह में कपड़ा ठूंसकर बांध दिया हो। याद करिए आखिरी बार शहर में कब पत्रकारों को अपने लिए आवाज उठाते देखा।
पत्रकार अगर भ्रष्ट हैं तो मैं कहती हूं कि उन्हें और भी भ्रष्ट होना चाहिए। तब तक पूरी तरह से भ्रष्ट होना चाहिए, जब तक कि उनका और उनके परिवार का पेट तीन वक्त न भरे। धर्म भी यही कहता है। जिन हालातों में इस वक्त देश भर के भाषाई पत्रकार हैं, अगर वह भ्रष्ट नहीं हैं तो वह अधर्मी हैं। उन्हें अपनेे ही बच्चों की भूख भरी आह लगेगी।
जिस किसी को इस भ्रष्टाचार से दिक्कत है, तो पहले वह पत्रकारों की मदद करना शुरू करें, तभी उनकी भी दिक्कत खत्म होगी, पत्रकारों की भी। कुछ नहीं कर सकते तो कोई पत्रकार मिले तो उसे खाना ही खिला दीजिए। जबरदस्ती। पत्रकारिता हमेशा समाज के भरोसे ही आगे बढ़ती आई है, न कि सत्ता के। सत्ता के भरोसे होती तो सत्ता उसे कब की मिटा चुकी होती। चीन में देखिए, मिटा ही चुकी है। दिल्ली, लखनऊ, पटना, कलकत्ता का चश्मा उतारकर जरा उन शहरों के पत्रकारों की भी खबर लीजिए, जहां से खबरें आती हैं। जोगेंद्र सिंह और राम चंदेर प्रजापति याद हैं या भूल गए?
लेखिका- रोहिणी गुप्ते
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