कॉरपोरेट से लेकर आतंकवादियों को डाटा बेच चुका है फेसबुक
फेसबुक पर डाटा ब्रीच का इतिहास क्या है?
18 अक्टूबर 2010 में वॉल स्ट्रीट जरनल ने खुलासा किया था कि फेसबुक पर लाखों लोगों की प्राइवेसी के साथ सौदा हुआ है। अपने अध्ययन में अखबार ने पाया कि फेसबुक पर चलने वाले दस सबसे पापुलर एप्स और गेम्स, जिसमें फार्मविले, माफिया वार्स और टेक्सास होल्डे'म शामिल थे, इन सबने मिलकर उन सभी की आइडेंटिटी चुराकर कॉरपोरेट को बेची है, जो इन्हें यूज करते हैं या कभी इन एप्स या गेम्स को यूज किया है। फेसबुक की पॉलिसी में दिया है कि कोई भी उसके यूजर की सूचना किसी को भी नहीं बेच सकता। फिर भी सूचनाएं लगातार चोरी हो रही थीं (ऐसा फेसबुक का मानना है)। असल में सूचनाएं चोरी नहीं हो रही थीं, बल्कि पर्दे की पीछे समझौता करके बाकायदा बेची जा रही थीं (ऐसा दुनिया के अधिकतर डेवलपर्स का और मेरा भी मानना है)। जिस अल्गोरिदम का प्रयोग फेसबुक करता है, उसी का प्रयोग करके कई डेवलपर्स ने रेडिट डॉट कॉम पर पर्दे के पीछे की सारी बात डाली हुई है। जो समझना चाहें, रेडिट पर जाकर समझ सकते हैं। वह सब कोड्स में हैं।
इसी तरह से सन 2012 में फेसबुक के मुताबिक उसे बग लग गए। मतलब कीड़े लग गए। फेसबुक के ही मुताबिक उसे इसका पता सन 2013 में जाकर लगा और 24 घंटे में उसके इंजीनियर्स ने कीड़े का इलाज भी बांध दिया। लेकिन तब तक फेसबुक पर उस वक्त तक मौजूद 1.1 बिलियन यूजर्स का कॉन्टैक्ट डाटा उड़ चुका था, या यूं कहें कि खुले बाजार में बाकायदा रेहड़ी लगाकर बेचा जा रहा था। फेसबुक खुद खुले बाजार का खिलाड़ी है और उसी बाजार में घूमता रहता है। अपनी वेबसाइट फेसबुक ने पीएचपी पर बनाई है, जो कि एक ओपन सोर्स प्रोग्रामिंग भाषा है और दुनिया भर के सभी डेवलपर्स अपने-अपने हिसाब से इसे डेवलप करते रहते हैं। दुनिया का एक भी डेवलपर गंगा में गले तक खड़ा होकर भी यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि इस बदमाशी में फेसबुक ने हिस्सा नहीं लिया।
हमारी प्राइवेसी में सेंध लगाने की तीसरी घटना अगस्त 2015 की गर्मियों में तब पता चली, जब हम लोगों के लाखों फोन नंबर खुले बाजार में बिकने लगे। यह वही वक्त है, जिसके आसपास फेसबुक ने सभी यूजर्स से उनका फोन नंबर जबरदस्ती भरवाया था। कुछ यूजर्स ने फोन नंबर तो दिया, मगर उसे अपनी प्रोफाइल में शो नहीं किया तो कुछ ने शो किया। इन सभी के फोन नंबर फेसबुक ने माफी मांग-मांगकर खुले बाजार में बिकवाया। लोगों के डाटा के साथ फेसबुक ने जो चौथी बदमाशी की, उसमें नंबर्स तो कम हैं, लेकिन वह सबसे ज्यादा खतरनाक थी।
जून 2016 में पता चला कि जकरबर्ग ने तकरीबन एक हजार ऐसे लोगों के पर्सनल डाटा बाजार में उठाकर फेंक दिए, जो आतंकवाद के खिलाफ किसी न किसी रूप में काम करते थे। फेसबुक की पांचवीं बदमाशी, जो अमेरिका के चुनाव में हुई, और मार्च 2018 में सामने आई, हम सब देख ही रहे हैं। वैसे फेसबुक और इसी तरह की दूसरी कंपनिया डाटा ब्रीच को थोड़ा सा फैशनेबल शब्द में बोलती आई हैं- माने- डाटा हारवेस्टिंग। फिर भी मैं इसे डाटा ब्रीच ही कहता रहूंगा क्योंकि जो डाटा आप किसी की सहमति से हासिल नहीं करते, या उसे धोखे में रखकर लेते हैं, या जिसका डाटा ले रहे हैं, उसे ही पता नहीं तो वह डाटा ब्रीच ही कहलाएगा।
कानूनी पंडित यह कह सकते हैं कि फेसबुक ने डाटा की नोंच-घसीट के लिए अपनी पॉलिसी में पहले ही लिख रखा है, लेकिन यह भी एक मजबूत तथ्य है कि फेसबुक की पॉलिसी से आम यूजर को कोई मतलब नहीं और न ही वह उसे पढ़ता है। इसलिए, ऑनलाइन कंपनियां, चाहे वह फेसबुक हो या दैनिक जागरण, अपनी कुकीज और प्राइवेसी पॉलिसी के जरिए जो कुछ भी बताती हैं या मनवाती हैं, वह असल में महज एक धोखा है और ऐसा धोखा है जो कि धोखा खाने वाले को जल्द पता ही नहीं चलता।
अगली किस्त में पढ़ें दुनिया में डाटा ब्रीच का इतिहास और कहां कैसे होता है हमारे डाटा का उपयोग
पिछली किस्त यहां पढ़ें- जितना सोच सकते हैं, उससे अरबों गुना बड़ा है डाटा ब्रीच
18 अक्टूबर 2010 में वॉल स्ट्रीट जरनल ने खुलासा किया था कि फेसबुक पर लाखों लोगों की प्राइवेसी के साथ सौदा हुआ है। अपने अध्ययन में अखबार ने पाया कि फेसबुक पर चलने वाले दस सबसे पापुलर एप्स और गेम्स, जिसमें फार्मविले, माफिया वार्स और टेक्सास होल्डे'म शामिल थे, इन सबने मिलकर उन सभी की आइडेंटिटी चुराकर कॉरपोरेट को बेची है, जो इन्हें यूज करते हैं या कभी इन एप्स या गेम्स को यूज किया है। फेसबुक की पॉलिसी में दिया है कि कोई भी उसके यूजर की सूचना किसी को भी नहीं बेच सकता। फिर भी सूचनाएं लगातार चोरी हो रही थीं (ऐसा फेसबुक का मानना है)। असल में सूचनाएं चोरी नहीं हो रही थीं, बल्कि पर्दे की पीछे समझौता करके बाकायदा बेची जा रही थीं (ऐसा दुनिया के अधिकतर डेवलपर्स का और मेरा भी मानना है)। जिस अल्गोरिदम का प्रयोग फेसबुक करता है, उसी का प्रयोग करके कई डेवलपर्स ने रेडिट डॉट कॉम पर पर्दे के पीछे की सारी बात डाली हुई है। जो समझना चाहें, रेडिट पर जाकर समझ सकते हैं। वह सब कोड्स में हैं।
इसी तरह से सन 2012 में फेसबुक के मुताबिक उसे बग लग गए। मतलब कीड़े लग गए। फेसबुक के ही मुताबिक उसे इसका पता सन 2013 में जाकर लगा और 24 घंटे में उसके इंजीनियर्स ने कीड़े का इलाज भी बांध दिया। लेकिन तब तक फेसबुक पर उस वक्त तक मौजूद 1.1 बिलियन यूजर्स का कॉन्टैक्ट डाटा उड़ चुका था, या यूं कहें कि खुले बाजार में बाकायदा रेहड़ी लगाकर बेचा जा रहा था। फेसबुक खुद खुले बाजार का खिलाड़ी है और उसी बाजार में घूमता रहता है। अपनी वेबसाइट फेसबुक ने पीएचपी पर बनाई है, जो कि एक ओपन सोर्स प्रोग्रामिंग भाषा है और दुनिया भर के सभी डेवलपर्स अपने-अपने हिसाब से इसे डेवलप करते रहते हैं। दुनिया का एक भी डेवलपर गंगा में गले तक खड़ा होकर भी यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि इस बदमाशी में फेसबुक ने हिस्सा नहीं लिया।
हमारी प्राइवेसी में सेंध लगाने की तीसरी घटना अगस्त 2015 की गर्मियों में तब पता चली, जब हम लोगों के लाखों फोन नंबर खुले बाजार में बिकने लगे। यह वही वक्त है, जिसके आसपास फेसबुक ने सभी यूजर्स से उनका फोन नंबर जबरदस्ती भरवाया था। कुछ यूजर्स ने फोन नंबर तो दिया, मगर उसे अपनी प्रोफाइल में शो नहीं किया तो कुछ ने शो किया। इन सभी के फोन नंबर फेसबुक ने माफी मांग-मांगकर खुले बाजार में बिकवाया। लोगों के डाटा के साथ फेसबुक ने जो चौथी बदमाशी की, उसमें नंबर्स तो कम हैं, लेकिन वह सबसे ज्यादा खतरनाक थी।
जून 2016 में पता चला कि जकरबर्ग ने तकरीबन एक हजार ऐसे लोगों के पर्सनल डाटा बाजार में उठाकर फेंक दिए, जो आतंकवाद के खिलाफ किसी न किसी रूप में काम करते थे। फेसबुक की पांचवीं बदमाशी, जो अमेरिका के चुनाव में हुई, और मार्च 2018 में सामने आई, हम सब देख ही रहे हैं। वैसे फेसबुक और इसी तरह की दूसरी कंपनिया डाटा ब्रीच को थोड़ा सा फैशनेबल शब्द में बोलती आई हैं- माने- डाटा हारवेस्टिंग। फिर भी मैं इसे डाटा ब्रीच ही कहता रहूंगा क्योंकि जो डाटा आप किसी की सहमति से हासिल नहीं करते, या उसे धोखे में रखकर लेते हैं, या जिसका डाटा ले रहे हैं, उसे ही पता नहीं तो वह डाटा ब्रीच ही कहलाएगा।
कानूनी पंडित यह कह सकते हैं कि फेसबुक ने डाटा की नोंच-घसीट के लिए अपनी पॉलिसी में पहले ही लिख रखा है, लेकिन यह भी एक मजबूत तथ्य है कि फेसबुक की पॉलिसी से आम यूजर को कोई मतलब नहीं और न ही वह उसे पढ़ता है। इसलिए, ऑनलाइन कंपनियां, चाहे वह फेसबुक हो या दैनिक जागरण, अपनी कुकीज और प्राइवेसी पॉलिसी के जरिए जो कुछ भी बताती हैं या मनवाती हैं, वह असल में महज एक धोखा है और ऐसा धोखा है जो कि धोखा खाने वाले को जल्द पता ही नहीं चलता।
अगली किस्त में पढ़ें दुनिया में डाटा ब्रीच का इतिहास और कहां कैसे होता है हमारे डाटा का उपयोग
पिछली किस्त यहां पढ़ें- जितना सोच सकते हैं, उससे अरबों गुना बड़ा है डाटा ब्रीच
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