डेटा ब्रीच से बचने का फेसबुक ने जो उपाय निकाला है, वह है कि हम अपनी सेटिंग्स में जाकर थर्ड पार्टी साइट डिसेबल कर दें।
इसका मतलब है कि हम फेसबुक से बाहर की चीजों न देखें, न पढ़ें न किसी से बताएं या किसी को दिखाएं। अगर किसी एप पर हमें कोई खबर पसंद आ रही है और हम चाहते हैं कि दूसरे भी पढ़ें तो फेसबुक नहीं चाहता। इसलिए भी क्योंकि वह यह भी नहीं चाहता कि हम उसके अलावा बाकी की दुनिया से किसी तरह का कोई संवाद रखें। ऐसा तब भी किया गया था, जब फेक न्यूज का मामला प्रकाश में आया था। फेक न्यूज या अवांछित गतिविधि का एकमात्र मान्य इलाज फिल्टर होता है। हर बड़ी वेबसाइट के पास यह फिल्टर टीम होती है जो डाटा इंजीनियर्स के साथ मिलकर काम करती है। फिल्टर यानी छन्नी में अक्सर गड़बड़ चीजें पकड़ में आ जाती हैं। मगर फेसबुक छन्नी नहीं, सीधे ताला लगाने की बात कर रहा है। यानी हर तरह की थर्ड पार्टी से किनारा। बाकी लोग अब बिजनेस कैसे करेंगे, इसका कोई जवाब फेसबुक के पास नहीं है। अभी जवाब सोचा नहीं गया है, लेकिन महान लोगों की बड़ी बाते हैं, जिनके हो जाने के बाद जवाब तो बना ही लिए जाते हैं।
लेकिन मार्क भैया, एक बात तो बताओ, जब यह थर्ड पार्टी वेबसाइट्स या एप्प हमारी प्रोफाइल एक्सेस कर रहे थे, तब तुम क्या कर रहे थे? तुम्हें याद हो या न याद हो, पर मैं याद दिला दूं कि तब तुम चीन में चड्ढी पहनकर दौड़ रहे थे, मगर चीन तब भी तुम्हारी इसी बेईमानी पर नजर रखते हुए तुम्हें सिर्फ दौड़ा ही रहा था। भूल गए चीन ने कैसे भगाया? तो जब ये थर्ड पार्टी टूल्स हमारी प्रोफाइल्स एक्सेस कर रहे थे, हमारे पर तो इसकी नोटिफिकेशन आती थी, ऐसा कैसा तुम्हारा सिस्टम है कि तुम्हारे पास इसकी नोटिफकेशन ही नहीं आती थी? भावना एंड किंबा प्रकाशन कानपुर क्या अब सोचेंगी कि वह हमेशा नंबर वन दोस्त कैसे बनी रहती थीं? क्योंकि हमारे चैटबॉक्स के अंदर से लेकर बाहर तक, सबकुछ एनालाइज हो रहा था। अब जकरबर्ग कह रहे हैं कि पता ही नहीं चला। मतलब यार दुनिया में बस एक तुम्हीं समझदार हो?
एकबारगी फेसबुक यह तर्क दे सकता है कि जो कुछ भी हो, सिर्फ उसी की वेबसाइट पर हो, या यूजर जो कुछ भी करे, उसी की वेबसाइट पर करे। वेबसाइट के बाहर की चीजें फेसबुक में न आने पाएं, भले ही फेसबुक की चीजें उससे बाहर चली जाएं, जाती ही हैं। हालांकि, 70 फीसद चीजें जो फेसबुक से बाहर जाती हैं, वह फेसबुक के ही दूसरे प्रोडक्ट्स- इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप्प पर जाती हैं। गूगल और ट्विटर फेसबुक को सपोर्ट नहीं करते इसलिए उसकी चीजें आमतौर पर वह अपने हैंडल पर नहीं दिखाने देते। लेकिन भैया, हम बाहर से चाय की पत्ती लेकर आते हैं और जब चाय बनाते हैं तो उसमें अदरक इलायची दूध चीनी मिलाते हैं, जिन्हें चाय बनाने वाली कंपनी नहीं बनाती। मगर मार्क खुद को अधिक महीन दिमाग का समझते हैं सो इस मुसीबत से निपटने का उन्होंने जो तोड़ निकाला है- वह ये कि चाय की तलब हो तो सिर्फ पत्ती फांकिये। और ऐसा सिर्फ फेसबुक ही नहीं, दुनिया भर की वह सभी वेबसाइट्स करती हैं जिसमें लाला जी का पैसा लगा हुआ है। इसीलिए इंटरनेट में तीसरी-चौथी दुनिया तो बनी ही, भाई लोग तो मारियाना ट्रेंच तक का गोता लगा आए हैं।
एकबारगी यह बात मान भी ली जाए, और फेसबुक का कनेक्शन इससे बाहर की दुनिया से तोड़ भी दिया जाए, यानी थर्ड पार्टी ऑथेंटिकेशन डिसेबल कर भी दिया जाए, किसी के पास इसका कोई जवाब है कि फिर फेसबुक खुद हमारा डाटा नहीं चुराएगा? अरे भैया, फिर भी फेसबुक हमारा डाटा खूब चुराएगा। क्योंकि हमारे डाटा की चोरी करके वह अपने विज्ञापनदाताओं को वह डाटा बेचता है। जैसे मैं कई फेसबुक पेज चलाता हूं और फेसबुक का रेग्युलर विज्ञापनदाता हूं। इस ऐवज में फेसबुक मुझे लोगों की उम्र, लिंग, पसंद-नापसंद, जियोग्राफी, टाइम, एवरेज टाइम सहित इतने डाटा बेचता है, आम यूजर उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। मसलन, मुझे पता है कि पिछले 28 दिनों में मैं अमेरिका में कितने घंटे देखा गया हूं, किस-किस ने देखा है और जिसने भी देखा है, उसकी रुचियां-अरुचियां क्या हैं। एक चीज और है, जो मुझे नहीं पता पर फेसबुक को पता है। पर आने वाले दिनों में मुझे भी पता होगी क्योंकि पूंजीवाद बेचने की कोई चीज जेब में बचाकर कभी नहीं रखता। उसे तो बस मौका चाहिए जो अभी आया नहीं है। पर आएगा जरूर।
फेसबुक प्रोफाइल पर हम जो अपनी तस्वीर या सेल्फी अपलोड करते हैं, या फिर जो अपने बारे में डीटेल्स डालते हैं, मेरी नजर में वह बेहद छोटी डाटा चोरी है। सौ में से आधा फीसद या उससे भी कम। दुनिया की सबसे बड़ी डाटा चोरी हमारे इमोशंस हैं। फेसबुक हर पोस्ट पर छह तरह का इमोशन देता है, क्रमश: न्यूट्रल लाइक, रेड हार्ट इमोशन, हाहा इमोशन, वाऊ इमोशन, सैड इमोशन और क्रोध इमोशन। इन इमोशंस की डाटा माइनिंग से निकलने वाले सबसे प्रचलित प्रोडक्ट्स हैं- एआई प्रोडक्ट्स- यानी आर्टीफीशियल इंटेलीजेंस प्रोडक्ट्स। हम क्या देखते हैं, क्या देखना चाहते हैं, क्या नहीं देखना चाहते, क्या हमेशा ही देखते रहना चाहते हैं, हमें कब गुस्सा आता है और किसपर प्यार आता है, सबकुछ फेसबुक की मशीन में रिकॉर्ड होता रहता है। इससे आर्टीफीशियल इंटेलीजेंस डेवलप की जाती है और इसी बेस पर मशीनों को थोड़ा और इंसानों जैसा बनाने की ओर विज्ञान के कदम बढ़ते हैं। यहां तक तो बात मेरी समझ में आती है और न-न करते हुए भी मुझे पूरी दुनिया को लैब बनाकर रख देने के इस अमानवीय प्रयोग से सहमत होना ही पड़ता है।
लेकिन अगर यही प्रयोग इंसानों को थोड़ा और बेईमान, थोड़ा और धोखेबाज या थोड़ा और लालची बनाकर उस सिस्टम में सेंध लगाने के लिए किया जाए, जिसे हम इंसानों ने सैकड़ों सालों में बनाया और पाया है और जिसे लगातार बनाने और पाने के लिए हम सभी लड़ रहे हैं तो? फेसबुक के दिए हुए छह तरह के इमोशन हमसे निकलकर किसी न किसी तरह के कंटेंट (टेक्स्ट, ऑडियो, वीडियो, फोटो) से जाकर चिपकते हैं। इंटरनेट पर मौजूद हर तरह के कंटेंट की हर तरह से डाटा माइनिंग हो सकती है। यहां तक कि इसकी भी कि आपने साल में कितने दिन मोदी जी से प्यार किया और कितने दिन भाभी जी से, इसकी भी। मैं अगर आपके घर आकर भाभी जी को बताऊं कि भैया तो आपसे ज्यादा प्यार मोदीजी से करते हैं, सोचिए फिर क्या होगा? पिछले दिनों इसी मुद्दे पर देश में कई तलाक भी हो चुके हैं। बहरहाल, कंटेंट पर इमोशंस के डेटा फ्लो के अध्ययन से हम भविष्य को बदल सकते हैं और बदल भी रहे हैं। लेकिन मैनमेड सिस्टम को बदलने का कोई तो रीजन होगा? कोई तो कारण होगा कि दुनिया ने अपने उगने के बाद से जो कुछ पाया है, उसे सांख्यिकी क्यों बदल दे?
अगले में गूगल बाबा की कारस्तानी। फेसबुक तो बच्चा है जी।