Sunday, January 29, 2023

अहोमों की शादी, नामधारियों का उत्सव AS04

 
जैसे अपने यहां, मने ईस्ट यूपी में ब्रह्मभोज की शुरुआत गूला खोदने से होती है, ऐन वैसे ही यहां भी खाना बनाने वास्ते आग दहकाने के लिए गूले खोदे गए, फिर आग जलाने से पहले इनकी पूजा हुई। अग्नि पूजा कहीं न कहीं हम सारे भारतीयों को एक सी तपिश देती है। यूपी में आमतौर पर मेरी ओर, यानी फैजाबाद-सुल्तानपुर की ओर दो गूले खोदे जाते हैं, या फिर महज एक। पूरी-सब्जी एक साथ बनेगी, या फिर एक ही चूल्हे यानी गूले पर एक के बाद एक बनेगी। दावतों के चूल्हे को गूला शायद इसलिए कहते हैं क्योंकि यह जमीन में अंदर गोल आकार में खोदा जाता है। वैसे भी गूला शब्द गोला के ज्यादा पास है। 

यहां भी इन्हें गूला ही कहते हैं। मगर यहां एक साथ तीन गूले खोदे गए। एक पर लगातार पानी गरम होता रहा, और बाकी दोनों पर पकवान पकते रहे। जैसे अब अपनी ओर गूलों के साथ-साथ एकाध गैस के चूल्हे भी रहने लगे हैं, यहां भी एक चूल्हा गैस का था। मने चार चूल्हे जले, जिनमें चावल, पुलाव, असमी मटन, मछली, मुरीघंटो (मछली का सिर तोड़कर उसमें 2-3 तरह की दाल डालकर), पनीर वेज, मिक्सवेज, बैंगन भाजा, पपीते का हलवा, चिली चिकन, सिवईं बनी। इन सबको जीमने के बाद आखीर में भुनी हुई सौंफ के साथ घर के पेड़ों से तोड़े तांबूल और घर में ही उगाए गए पान के पत्ते। 

अपनी ओर जिस तरह से गांव भर की महिलाएं पूरी बेलने और मर्द पिसान मर्दने आते हैं, मैं देखना चाहता था कि गांव के बाकी लोग इस भोज में क्या प्रबंध करते हैं। बदकिस्मती से गांव से आया पहला प्रबंधक वही दिखा, जिसके बारे में रात ही ताकीद कर दी गई थी कि इससे दूर रहो। यानी नबाज्योति। मुझे याद आया, मेरी ओर भी वही लोग सबसे कुशलता से ऐसी दावतों का प्रबंधन संभालते हैं, जिनके बारे में दावत देने वाले बहुत अच्छी राय नहीं रखते। फिर मामला अगर पटीदारों का हो, तो और भी चुभता हुआ होता है। 

मगर मुझे यह बात बेहद अच्छी लगती है। यह हमारे समाज के उन लोगों का अहिंसक प्रदर्शन है, जो कहीं न कहीं यह चाहते और मानते हैं कि सब एक ही घर या कबीले के हैं और भले उन्होंने कुछ अच्छा न किया हो, मगर आज तो अच्छा करके दिखा रहे हैं। जैसे ही मैं गूलों की ओर से मुख्य पूजास्थल पर आया, नबाज्योति बाबू मुझे ही ताड़ते मिले। वह तो अच्छा हुआ कि मुझे तुरंत मेरी साली के ससुर (मेरी साली ने ताकीद की है कि मैं उन्हें अपने रिश्ते का ससुर लिखने की जगह उसी का ससुर लिखूं) यानी डॉ सदानंद का साथ मिल गया, वरना फिर से मुझे कल रात वाली बातें सुनने को मिलतीं- दूर रहो उससे। 

डॉक्टर साहब के पास पहुंचा तो उन्होंने मुझे शहर के लोगों से मिलवाना शुरू किया। बहुत लोग थे, बीस से अधिक। मुझे सबके नाम तो नहीं याद, मगर सिद्धार्थ के मामा प्रभाष दत्ता और बुआ इला दत्ता जरूर याद हैं। जैसे ही बुआजी ने यह सुना कि मैं जबसे असम आया हूं, तांबूल पर तांबूल चबाए जा रहा हूं, झट उन्होंने दावत दे डाली कि हमारे पेड़ों के तांबूल खाकर देखो, ऐसे तांबूल पूरे असम में कहीं नहीं मिलेंगे। बुआजी, मेरी शिकायत नोट करिए, बल्कि उसी पोटली में बांधिए, जिसमें कि मुझे शक है कि जरूर आपके घर का तांबूल बंधा था... 

बुआ से मिल ही रहा था कि डॉ सदानंद मुझे गेट की ओर खींच ले गए। वहां उनके चार दोस्त आए थे। उन्होंने उन सबसे मेरा परिचय कराया कि मैं उनकी बहू की बड़ी वाली बहन से ब्याहा हूं और इससे भी बड़ा मेरा परिचय यह है कि मैं अयोध्या से आया हूं, और मेरा घर अयोध्या में बन रहे नए राम जन्म भूमि मंदिर के पांच किलोमीटर की रेंज में है। 

आपस में परिचय चल ही रहा था कि मेरे सलिया ससुर बोले, मोदीजी ने तो मंदिर बनवा दिया! मैं भी तपाक से बोला, मोदी जी ने नहीं बनवाया। यह तो आपके असमिया भाई गोगोई ने बनवाया। उसी ने तो सुप्रीम फैसला दिया था। वह फैसला न देता तो क्या मोदी और क्या कोई दूसरी पार्टी मंदिर न बनवा पाती। इसी बीच उनके एक दोस्त ने कहा, मगर गोगोई साहब भी तो कई दिक्कतों में फंसे थे? 

मैंने कहा, हां, फंसे तो थे, मगर यह सब राजकाज का मामला है। आपने चाणक्यनीति पढ़ी है? उसमें यह सारे टंट-घंट दिए हुए हैं। वैसे एक तरह से डॉ साहब का कहना सही है ही कि मोदी जी ने मंदिर बनवा दिया। मगर कायदे कानून के हिसाब से मेरा बयान यही होगा कि गोगोई जी ने मंदिर बनवा दिया। मेरा यह कहना था कि मेरे सलिया ससुर के चार के चारों दोस्तों ने, जो मेरे से उम्र में और नहीं तो कम से कम बीस साल बड़े होंगे, मेरी पीठ ठोंकी, और बोले, यह सही कह रहा है। 

इसके बाद तो हाजरीन, मैं कहूं तो क्या ही कहूं। मेरे सलिया ससुर यानी डॉ सदानंद ने वहां आए ढेरों मेहमानों को खोज-खोज कर मुझसे मिलवाया। मैं थोड़ा इंट्रोवर्ड हूं तो कुछेक मौकों पर छुप भी जाता कि अभी डॉक्टर साहब फिर किसी से मुलाकात कराने लगेंगे। कुछ ही देर में तीन तल्ले मकान के हरेक कमरे में यह खबर पहुंच गई कि डॉक्टर साहब को मैं बहुत पसंद आया हूं और वो ब्रह्मभोज में आने वाले लगभग सभी लोगों से मुझे ही मिलवा रहे हैं। 

चूंकि मैं भी वहीं किसी तल्ले में था तो अलट-पलटकर यह खबर मेरे भी कानों में गूंजी। रश्क हुआ। कम से कम एक अनजान असमिया तो मुरीद हुआ! भले गोगोई साहब के नाम पर हुआ, मगर हुआ तो सही। जो लोग मुझे ठीक से जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि जुडिशरी की हिस्ट्री में मैंने बहुत कायदे से गोगोई साहब की क्लास लगाई है। मेरी चलती तो मैं उनको जेल कराकर ही मानता। मगर यह बात मैं वहां छुपा गया। कहीं कहीं खुद को ठीक से जानने न देना भी बहुत जरूरी होता है। रिश्तों में तो यह बात और भी कड़ाई से लागू होती है, खासकर इन दिनों के दिनों में। 

इस ओर पंडित जी अपना आसन लगा चुके थे। हमें बताया गया था कि सात-आठ बजे से पूजा शुरू हो जाएगी, मगर अब तो दस बजे को थे। मैं पूजा की जगह पर पहुंचा। मेरे सलिया ससुर नामधारी हैं, खुद मेरी भी ससुराल नामधारी है। बोरगोहनों की पारंपरिक शादी नामघर में ही होती है। बेहद सादा शादी समारोह। जिस तरह से अपने यहां हवन होने के पहले से लेकर हवन होने के बाद तक वर-वधु को धुंआ होना पड़ता है, ऐसा कोई चक्कर नामघरों में नहीं है। बोरगोहेन अहोम हैं और इनकी शादी को चक-लॉन्ग कहा जाता है। 

इसमें 101 दिए जलाए जाएंगे। फिर पुरखों को याद किया जाएगा, जिसके बाद पुरानी वाली थाई में दूल्हा-दुल्हन कुछ मंत्र बोलेंगे। अगर किसी की औकात सौ दियों की ना हो, तो वह एक दिया जलाकर भी इन मंत्रों के साथ वह शादी कर सकता है, जिसके बारे में मुझे नहीं पता कि कानूनी मान्यता है या नहीं, मगर पारंपरिक और सामाजिक मान्यता पूरी है। बहरहाल, इतने से ही इनकी शादी पूरी हो जाती है, जिसके बाद दूल्हा-दुल्हन सहित मेहमान रोभा में जाते हैं। रोभा इनकी शादी में सजे पंडाल को कहते हैं। गुवाहाटी के जिस पहले होटल में मैंने असमिया थाली खाई थी, उसका नाम भी राभा ही था। मगर राभा यहां की कम्युनिटी है और रोभा मतलब पंडाल।

भास्कर ने भी इन्हीं दियों और मंत्रों के साथ शादी की थी और उसकी जिद यह थी कि यह शादी बिहू के दिन ही हो। बिहू के दिन में असल में असमिये पूरी तरह से पगला जाते हैं। असल में इस पागलपन की जड़ प्रेम और परंपरा का मिलाजुला वह वृक्ष है, जिसके वाकई पूरे राज्य को एक कर रखा है। जैसे अपनी ओर किसी और जाति या फिर गोत्र में शादी करने पर कत्ल हो जाते हैं, यहां ऐसा बिलकुल नहीं होता। 

यहां तो बिहू होता है और आप जिस किसी से भी प्रेम करते हैं, बिहू के वक्त उससे कैसे भी करके शादी कर सकते हैं। पूरे समाज में इतनी हिम्मत नहीं कि इस वक्त हुई शादी पर एक भी सवाल उठा सके। मसलन, बोरगोहनों में आपस में शादी नहीं होती, मगर जाखलोबंधा में मेरी फुफेरी सास ने यह परंपरा तोड़ी और किसी ने भी इसका विरोध नहीं किया। सब खुशी-खुशी दोनों शादी में शामिल हुए। 

अहोम राजाओं ने चाहे जो किया हो, या चाहे जो ना किया हो, असम को बिहू जैसे प्रेम करने के मौके देकर इसे वाकई दुनिया से एकदम अलहदा और अनोखा राज्य तो बना ही दिया है। अपने यूपी या बिहार में प्रेम करने के क्या ऐसा कोई भी उत्सव हैं? उत्तराखंड में? हरियाणाा में? दिल्ली में? राजस्थान में? कहीं हो ऐसा उत्सव तो कोई बताए? 

... जारी


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