Thursday, January 12, 2023

असम डायरी : यह रायबरुआ कौन जाति होते हैं? AS03

 


बालीकोरिया पहुंचते-पहुंचते शाम होने लगी थी। महीना दिसंबर-जनवरी का हो तो असम में तीन-साढ़े तीन बजे तक शाम होने लगती है और पांच-साढ़े पांच बजे तक रात हो जाती है। यहां मेरे सास मेरी मोहतरमा के साथ पहले ही दिल्ली से पहुंची हुई थीं। इन दिनों वर्क फ्रॉम होम ही चल रहा है, सो मुझे दफ्तर के जरूरी काम निपटाने थे। जो कमरा मुझे एलॉट हुआ था, वहां मैं अपना लैपटॉप लेकर बैठ गया। काम निपटाने के बाद वापस घर के मेन हॉल में पहुंचा तो डॉ सदानंद रायबरुआ आ चुके थे, कुछ देर में डॉ निबिर रायबरुआ भी आ पहुंचे। वह अपने साथ पढ़ने वाले किसी दोस्त के ढाबे से चिकन भुनवाकर लाए थे, और आते ही नए साल की पार्टी में कुछ लज्जत भरने के काम में लग गए। रात हमें छत पर आग जलानी थी और डॉ निबिर के पकाए चिकन के स्वाद के साथ सबने नए साल का खैरमकदम करना था। आग जलाने का जिम्मा मुझे सौंपा गया, यह कहकर कि एक तो यूपी वाला, ऊपर से ब्राह्मण- इससे जल्दी और इससे अच्छी आग भला कौन लगाएगा? मोहतरमा ने भी गवाही दी कि घर पर रखी कोयले की अंगीठी को यह यूपी वाला पांच-दस मिनट में दहका देता है। 

अभी तैयारी हो ही रही थी कि मेरी तलब ने मुझे कुछ परेशान सा किया। मैं घर से बाहर निकल आया और अंधेरे में पैदल ही धुंआ उड़ाते हुए नामघर की ओर बढ़ा। रास्ते में गांव के ही एक साहब नबाज्योति टकरा गए। अपनी ओर के राहुल या विजय की तरह असम में भी आपको दो नाम खूब मिलेंगे- नबाज्योति और ध्रुबाज्योति। पहले असमी में कुछ पूछा, मैं बोला मुझे असमी नहीं आती, हिंदी आती है। फिर उन्होंने पूछा कि किसके घर? मैंने बताया। वह बोले, फिर तो आप हमारे भी मान्य हुए। अब आपको हमारे घर चलना पड़ेगा। मेरी तलब शांत नहीं हुई थी, मैं बड़ी अनिच्छा से उनके साथ चला। नामघर के पहले ही उनका घर था। गेट के अंदर घुसते ही बड़ा सा खाली दलान, जिसमें चूल्हा जलाकर उनकी पत्नी मुर्गी पका रही थीं। दुआ-सलाम हुई, परिचय हुआ। पता चला कि नबाज्योति अच्छे तैराक हैं और इन दिनों गुवाहाटी में कहीं तैराकी कोच हैं। उनकी पत्नी भी एनसीसी में रही हैं और बच्चा बारहवीं गुवाहाटी से कर रहा है। उनकी पत्नी ने तुरंत कढ़ाई से मुर्गी निकालकर मुझे पेश करनी चाही, पर मैंने बहाना बना दिया कि मैं नॉनवेज नहीं हूं। इस पर नबाज्योति घर के अंदर गए और स्पंज का रसगुल्ला दो बिस्कुट के साथ ले आए। 

मैं उनके घर था तो, मगर मेरी सहाफी नाक को चूल्हे पर पकती मुर्गी के अलावा भी कुछ गंध आ रही थी। उधर नबाज्योति कह रहे थे कि सिद्धार्थ को समझाते क्यों नहीं? यहां इतनी खेती-बाड़ी है, पिता का इतना बड़ा नाम है, अमेरिका में क्या रखा है? रसगुल्ले के बाद किसी तरह से बिस्कुट पानी से निगले और यह कहते हुए मैं वहां से उठ खड़ा हुआ कि आपका कहना बिलकुल वाजिब है, मैं आपकी बात आगे तक पहुंचा दूंगा। वह मेरे पीछे-पीछे मुझे छोड़ने घर तक आए। घर के बाहर जैसे ही उन्होंने डॉ सदानंद को देखा, तुरंत छुप गए। यानी मेरी सहाफी वाली नाक सही थी। अपनी नाक पर अपनी सहाफत लेकर मैं आगे बढ़ा। डॉ सदानंद नबाज्योति की परछाईं भी पहचानते थे। इससे पहले कि वो कुछ बोलें, मैंने बोल दिया- आपके गांव में कोई नबाज्योति हैं, वो मुझे अपने घर लेकर गए थे। डॉ सदानंद तुरंत बोले, उसके घर नहीं जाना चाहिए था। वह अच्छा आदमी नहीं है। एकाध बार जेल के चक्करों में भी पड़ चुका है। मैंने कहा, इसका कुछ-कुछ अंदाजा तो मुझे हो चला था, बस मेरे अंदाजे पर आपकी मुहर लगनी बाकी थी।


वहां से मैं सीधे छत पर पहुंचा। डॉक्टर साहब की इकलौती बेटी, जो खुद भी डेंटिस्ट हैं- डॉ दीक्षिता रायबरुआ, उन्होंने तसले में आग लगा दी थी। आग भड़की नहीं थी, सो मैंने पहुंचते ही भड़का दी। साथ ही आग के आसपास बैठे लोगों को यह खबर भी दी कि नबाज्योति के घर से होकर आ रहा हूं। सबका वही कहना था, जो कुछ देर पहले डॉ सदानंद ने कहा था। इतने में देखता हूं कि नबाज्योति का फोन मेरे मोबाइल पर आने लगा था। डॉ दीक्षिता रायबरुआ ने पूछा, फोन नंबर भी दे आए? मैं बोला, अब कोई नंबर मांगता है तो सहाफी होने के नाते मुझे कभी भी हिचकिचाहट नहीं होती, सबको दे देता हूं। वह बोलीं, अब ये आपको परेशान करेगा। मैं बोला, वो मैं देख लूंगा, पहले आप मेरी सबसे बड़ी जिज्ञासा शांत करिए। मैंने यहां देखा कि मारवाड़ियों के घर अपने चैनल डोर की वजह से पहचान लिए जाते हैं। मगर आपके यहां बिहारी भी रहते हैं, बंगाली भी। सिर्फ बाहर से ही पहचानने हों तो उनके घर कैसे पहचाने जाएं? 

उन्होंने बताया कि बिहारियों के घर हम ऐसे पहचानते हैं कि उनके छोटे से घर में बड़ी भीड़ रहती है। एक छोटे से घर में दस से पंद्रह लोग पाए जाते हैं। और बंगालियों के घर उनकी औरतों की आवाज से पहचानते हैं। अगर घर के अंदर से किसी औरत के चिल्लाकर बात करने की आवाज आ रही है तो हम समझ जाते हैं कि बंगाली है। मगर यह मेरे सवाल का जवाब नहीं था। मैंने फिर से सवाल को चैनल डोर पर केंद्रित किया। इस बार उनका कहना था कि बिहारी और बंगाली के घर के बाहर ऐसा कोई साइन नहीं मिलेगा, जो उन्हें मारवाड़ियों की तरह अलग करता हुआ दिखाएगा। उनके घर की बनावट भी यहीं के बाकी घरों की तरह होती है। फिर उन्होंने मुझसे सवाल पूछा, पूछा क्या, सवाल दागा- आपके यूपी में तो जात-पात बहुत चलता है? मैंने कहा, खूब, बल्कि जरूरत से ज्यादा। बल्कि खुद मेरे घर में खूब जात-पात और छूत-छिरकन है। उन्होंने बताया कि पढ़ने के लिए जब वह लखनऊ गई थीं तो पहले तो किराए पर कमरा ना मिले। बड़ी मुसीबत से एक कमरा मिला तो यूपी वालों को रायबरुआ न समझ में आए। 


और फिर एक दिन मकान मालकिन ने पूछ ही लिया- ये रायबरुआ क्या चीज होते हैं? डॉक्टर साहिबा ने बताया- कायस्थ होते हैं। और जब उन्होंने यह किस्सा कॉलेज में अपने सीनियर से बयान किया तो सीनियर का कहना था, उसे बता देती कि तुम ब्राह्मण हो तो जब तक तुम रहती, तुमसे ज्यादा सवाल या किचकिच करने की जगह बड़े ठीक से रहती। मैं खिसियानी हंसी हंसा। यूपी की जो छूत-छिरकन और जात-पात की आदत है, उसकी वजह से इकलौता मैं ही नहीं हूं जो बाहर के प्रदेशों या देशों में बेइज्जत होता हूं, मेरी तरह और भी बहुतेरे हैं। मगर इससे यूपी को क्या, यूपी वालों को क्या? यूपी की छूत-छिरकन की इन कहानियों के साथ नया साल आया, हमने एक दूसरे को मुबारकबाद दी और अपने-अपने बिस्तरों के हवाले हुए। कल सुबह घर पर देवता बैठाए जाएंगे, कुछ लोग व्रत रहेंगे और सैकड़ों लोग जीमेंगे। कल हमारे यहां नलबाड़ी में ब्रह्मभोज है। 

....जारी

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