असम डायरी : धरती को शर्मिंदा करती गुवाहाटी AS01
गुवाहाटी बसिष्ठ आश्रम के पास बीजेपी मुख्यालय |
फिर गुवाहाटी से नलबाड़ी जाने वाला रास्ता चौड़ा किया जा रहा है तो इन दिनों जगह-जगह से खुदा पड़ा है, डायवर्जन अलग से बोनस में मिलता है। सड़क बनाने का यही सीजन होता है, यानी सर्दियों का। इसके बाद तो गर्मियां अपने साथ बाबा ब्रह्मपुत्र का वो पानी लेकर आती हैं, जो असम, यानी ऐसी जगह जो कहीं से भी सम नहीं है, उसे हर जगह भरकर सम कर देता है। ऐसे में सड़क तो दूर, लोगों के घरों में दो जून का भात ही बन जाए तो बड़ी बात है। असम में दो जून की रोटी नहीं, दो जून का भात चलता है। काजीरंगा में जब मैं बड़े शौक से धान की साढ़े तीन सौ किस्में रेकॉर्ड कर रहा था तो उन्हें दिखाने वाले ने कौतूहल से पूछा- आप तो रोटी वाले हैं ना? मैंने कहा, भैया, मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश का हूं और विशुद्ध भात वाला हूं। हमारे यहां जितने लोकगीत धान रोपने पर हैं, गेहूं पर उसके आधे तो दूर, चौथाई भी नहीं हैं। रोटी हमारे यहां बनती है, लोग खाते हैं, मगर ज्यादा शौक से भात ही खाते हैं। और एक बात, यूपी तो दूर, उत्तराखंड वालों का भी जीवनमंत्र भट-भात ही है। बेचारे का मुंह खुला का खुला रह गया था, मैं बोला कि बंद कर लो, मक्खी घुस जाएगी। मेरे इतना कहते ही वह ठठाकर हंस पड़ा, और फिर मुझे उसने इतने शौक से अपने सारे के सारे धान दिखाए कि उसका एक अलग अध्याय न लिखा तो बड़ी बेइमानी होगी।
बहरहाल, वापस चलते हैं नलबाड़ी की ओर। बल्कि नलबाड़ी पहुंचने से पहले क्यों न रास्ते का पूरा जायजा लेते चलें। गुवाहाटी से जरा सा बाहर निकलते ही आपको बीजेपी का एक फाइव स्टार दफ्तर दिखेगा। पिछले साल अक्टूबर में भारत के गृहमंत्री अमित शाह ने इसका फीता काटा था। यह समूचे नॉर्थ ईस्ट में बीजेपी का सबसे बड़ा दफ्तर और शायद यहां पार्टी की सबसे बड़ी प्रॉपर्टी भी है। इसके पास है बसिष्ठ मंदिर और एक साउथ इंडियन मंदिर। बसिष्ठ मंदिर अंदर है और साउथ इंडियन मंदिर सड़क किनारे ही है। असमिया में ब या श खूब होता है, मगर अक्सर वहां नहीं होता, जहां हम मानते हैं कि हिंदी में होना इसकी जरूरत है। इसीलिए हमारे यहां के वशिष्ट यहां आकर बसिष्ट हो जाते हैं, या फिर शंकर संकर में बदल जाते हैं, शिव सिव में। सिवसागर यहां का एक जिला है, जहां मेरी ननिहाल वाली ससुराल है। मैंने सुना है कि ननिया सास मुझे बड़े दिल से देखना चाहती हैं और यह मेरा वहां फिर से जाने का बहुत बड़ा बहाना भी है। खैर, गुवाहाटी से बढ़े तो नगांव, जाखलोबंधा, काजीरंगा, जोरहाट और फिर सिवसागर। कोई चाहे तो इसे शिवसागर कह सकता है, असमी लोग बुरा नहीं मानेंगे, मगर उनको कहना होगा तो वे सिवसागर ही कहेंगे।
रैडिसन ब्लू प्रवेश द्वार |
कुछ और आगे बढ़े तो लाइम और स्टोन फैक्ट्रियां शुरू हुईं। मैं इन फैक्ट्रियों को बहुत अच्छे से पहचानता हूं। नब्बे के दशक की शुरुआत में देहरादून में जब अपनी मामी वाली लेडीज साइकिल से मैं रायपुर पोस्ट ऑफिस की रोड से निकलकर दुल्हनी नदी पार करते हुए डालनवाला की हफ्तिया हाट जाता था तो ये रास्ते में चूने सा सफेद धुंआ निकालती दिखती थीं। मुझे समझ में आ गया कि यहां जो भी टीले जैसे पहाड़ हैं, उनका हाल उत्तराखंड के लुटेरों की बदलौत लुट चुकी धरती की इस शान से कुछ अलग नहीं मिलने वाला। और वाकई कुछ आगे बढ़ने पर मुझे इन पहाड़ियों का वह हाल दिखा, जिसके बारे में मैं नहीं कहूंगा कि इसमें असम के शासन-प्रशासन का दोष है या लुटेरों का दोष है। या फिर उनको इस करतूत पर शर्म आनी चाहिए। मैं बस इतना कहता हूं कि हे पृथ्वी, हे प्रकृति, मैं समूची इंसानी कौम की इस करतूत के लिए भरे दिल से शर्मिंदा हूं।
गुवाहाटी में काटे जाते पहाड़ |
जब मैं महोबा होते हुए कानपुर से खजुराहो अपनी बुलेट से जा रहा था, मुझे एक आधा कटा एकदम खून सा लाल पहाड़ दिखा। मैं वहीं उसी वक्त गाड़ी खड़ी करके अपने घुटनों पर बैठ गया था, इस पछतावे से कि इंसानों ने यह क्या कर दिया। एकदम वही फीलिंग मुझे इन रास्तों पर एक दो नहीं बल्कि आधा दर्जन या फिर इससे ज्यादा कट चुके खत्म होने की कगार पर पहुंचे पहाड़ों को देखकर आई। जिस किसी ने भी यह किया है, मैं उसी महोबा वाले भरे दिल से उसे बद्दुआ देता हूं कि ब्रह्मपुत्र का पानी न तो कभी उसके घर से निकले, ना खेतों से। मैं जो कुछ कह रहा हूं, पूरे सबूत के साथ कह रहा हूं और मेरे पास इन सबकी विडियो साक्ष्य के रूप में मौजूद है। और साक्ष्य वगैरह तो दूर की बात, इस सड़क से औसतन हर रोज गुजरने वाली हजारों गाड़ियों में बैठे हजारों हजार लोग यह सीन देखते हैं। मेरा सवाल है कि उनकी हिम्मत कैसे हो जाती है यह सीन देखने की। यार, मौसम तो असम का भी बदल रहा है, बूरापहार में चाय की पत्तियां जरूरत से ज्यादा हरी होने लगी हैं। ऐनीवे, महोबा के सबूतों को दोबारा देखने की हिम्मत मेरी आज तक नहीं हो पाई है, असम में कटे-फटे पहाड़ों के इस विडियो को भी मैं दोबारा देखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूं। एक बार फिर से साफ कर दूं कि इसकी शर्म सिर्फ और सिर्फ मुझे है, असमियों को हो या ना हो, भारतीयों को हो ना हो, इसका उससे कोई मतलब नहीं है।
....जारी
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