असम डायरी : अहोमों से मारवाड़ियों तक AS02
कटे पहाड़ों से उपजी शर्म और जाम से जूझते हुए हम आगे बढ़े। आगे हमें ब्रह्मपुत्र पार करना था। पहले इसे पार करने के लिए लोहे का पुल था, मगर अब नया पुल बन गया है। बनावट में यह काफी-कुछ अयोध्या में सरयू पार करने के लिए बने पुल सा है, यानी कोई खास डिजायनिंग नहीं- बस एक साधारण सा पुल। नाम है सराईघाट पुल। सराईघाट वही जगह है जहां अहोम राजाओं और मुगलों की जंग हुई थी। मेरा साला बोरगोहेन है। अहोम राजाओं के दरबार में बोरगोहेन लोग राजा के सेकंड सबसे सीनियर काउंसलर हुआ करते थे। नंबर एक पर बरगोहांई थे। यहां पर असम पर बेहद प्रसिद्ध ट्रैवेलॉग- यह भी कोई देस है महाराज लिखने वाले अनिल कुमार यादव मुतमईन नहीं हैं। उनका मानना है कि बोरगोहेन और बरगोहांईं लोग एक ही हैं। बरगोहांईं अपने यहां के गुसाईं हैं। इसके लिए उन्होंने साहित्य अकादमी से सम्मानित असम के प्रसिद्ध साहित्यकार होमेन बरगोहांईं का नाम बताया।
वहीं मेरे साले के मुताबिक असम में बोरगोहनों की चार उपजातियां हैं- गोहेन, बोरपात्रागोहन, बोरगोहेन, बरगोहांईं। अंग्रेजी में इनकी स्पेलिंग ये होगी- Gohain, Borpatragohain, Borgohain, Buragohain. असम या फिर नॉर्थ ईस्ट की सातों परियों की बात हो तो यह हमेशा याद रखना चाहिए बोर यानी बड़ा। वैसे एक मायने में यह ठीक वैसे ही है जैसे कि मिश्रा, शर्मा, तिवारी, पाण्डेय, त्रिवेदी, या फिर गुंसाईं। सब ब्राह्मण हैं, मगर सोसाइटी में काम सभी का एक सा नहीं है। इसी तरह सारे गोहाईं अहोम राजाओं के काउसंलर नहीं थे। सराईघाट पार करते हुए साले ने बताया कि सन 1671 में जब मुगलों ने यहां हमला किया तो लचित ने यहां आसपास के गावों से मिट्टी भरवा दी और किनारों को कम से कम सौ डेढ़ सौ फीट ऊंचा कर दिया। गुवाहाटी के आसपास की मिट्टी दरबर है। जैसे ईंट भट्टे से निकली राबिश। ताजी खुद मिट्टी तो रंग में भी सूखी राबिश जैसी दिखती है, यानी रेड और फेडेड रेड का मेल।
इस पहाड़ पर चढ़ना आसान नहीं होता। इसका अंदाजा मुझे यूं लगा कि पहली बार ब्रह्मपुत्र मैंने ऐसी ही उठान से देखा। कहीं मिट्टी में पैर धंस रहे थे तो कहीं सम थे। मैदानी होने के नाते मुझे इसका बिल्कुल भी अंदाजा नहीं लग पा रहा था कि कहां पैर रखने चाहिए और कहां कमर झुकानी चाहिए। मुगल सेना ने जब इन पर चढ़ने की कोशिश की तो अहोम सेना ने इन्हें ऊपर से ही काट डाला। वे अपनी मिट्टी का धंसान जानते थे, सो उनके लिए यह कोई बड़ी बात नहीं थी। धंसान से याद आया, जिस सड़क पर हम चल रहे थे, वह भी लेवल में नहीं थी। यहां की मिट्टी कहीं से भी धंस सकती है और इसीलिए गुवाहाटी में मेट्रो नहीं चल सकती। मेट्रो के लिए हुई सॉइल टेस्टिंग में गुवाहाटी फेल हो चुका है। बहरहाल, पूरी गुवाहाटी में आपको दीवारों पर इसी युद्ध के सरकारी विज्ञापन कलात्मक ढंग में देखने को मिलेंगे। ब्रह्मपुत्र के किनारों और ब्रह्मपुत्र के बीचोबीच होने वाले युद्ध। पता चला कि दीवारों पर ऐसी जंग खासकर तबसे उकेरी जा रही है, जबसे यहां बीजेपी की सरकार आई है। जंग का बखान इंसानी आदतों की उतनी ही बुरी चीजों में है, जितनी की खुद जंग है। फिर भी हमें लड़ने में ही सबसे ज्यादा रस मिलता है तो हम क्या करें?
हम तकरीबन साढ़े ग्यारह पर पांजाबाड़ी गुवाहाटी से निकले थे, मगर ब्रह्मपुत्र पार करते-करते दो बजने को हो रहे थे। अभी तो हम नलबाड़ी के रास्ते में आधे भी नहीं आ पाए थे। अब तलाश शुरू हुई ढाबे की। हम बाजोइ नाम के ढाबे पर रुके। यहां असमिया थाली 80 रुपये की थी और यह पहली असमिया थाली थी, जो मुझे अब तक दूसरी जगहों पर खाए गए खाने में सबसे अच्छी लगी। असमी थाली में आपको पांच तरह की सब्जी, सलाद, चटनी, दो तरह की दाल बैंगन भाजे और पापड़ के साथ मिलती है। दाल एक अरहर की और एक यहां की लोकल उड़द की। यहां की काली उड़द हम लोगों की तरफ होने वाली उड़द से साइज में लगभग आधी होती है। सब्जी आमतौर पर एक आलू भुजिया, एक साग- अक्सर लाही का, कहीं कहीं नींबू की सब्जी, बीन्स, चना वगैरह होती है, जिसे मछली चाहिए, उसका भी इंतजाम इन्हीं पैसों में हो जाता है।
अस्सी रुपये में आप जितना खा सकते हों, यहां उतना खिलाया जाता है। यहां क्या, मेन गुवाहाटी में भी जितने होटलों में आप थाली ऑर्डर करेंगे, वे सब आपके पेट भरने तक आपको थाली की हर चीज परोसेंगे, कोई एक्स्ट्रा चार्ज नहीं। इससे पहले मैं 6 माइल गुवाहाटी पर राजबोंग्शी और राभा में भी खाया था, मगर बाजोइ वाली थाली ज्यादा सही लगी। एक खास बात और, यहां के होटलों-ढाबों में अधिकतर वेटर महिलाएं हैं। ढाबों की बात करें तो कई जगहों पर गल्ले से लेकर चूल्हे तक पर भी महिलाएं ही मिलती हैं। सुंदर, स्मार्ट और हर चीज एक प्रेमिल मुस्कान के साथ परोसने वाली। एकाध बार तो मुझे ऐसा भी फील हुआ कि जैसे कोई महिला वेटर बिहू मोड में परोस रही है।
वैसे इन दिनों समूचा असम बिहू मोड में है, घर-घर में बिहू की तैयारियां जोरों पर हैं। जिस दिन अपनी ओर खिचड़ी का नहान होता है, उस दिन इस ओर बिहू शुरू होता है। बिहू अहोम राजाओं ने शुरू कराया था और मुख्य बिहू सिवसागर के रंगमहल में आज भी मनाया जाता है। रंगमहल असम राज्य के प्रतीकों में है और लकड़ी के गैंडे-बारहसिंगे की तरह यहां इसके भी छोटे-बड़े हर साइज में मॉडल बिकते मिलेंगे। सिवसागर में ही मेरी नानी सास मेरे इंतजार में है, जिसने मेरे ब्याह में असम में सबसे पवित्र माने जाने वाले कांसे और पीतल के बर्तन भेजे थे। वैसे कांसे और पीतल के बिना क्या अपने यूपी में भी शादी पूरी हो सकती है? आई थिंक- नो। कांसे के ये बरतन अब तो बांग्लादेशी भी बनाने लगे हैं, वरना मुगलों से हुई लड़ाई के बाद जो मुसलमान सैनिक यहां घायल होकर जिंदा बचे रहे गए, उन्होंने यह काम संभाला, और उनके बाद उनकी पीढ़ियों ने।
खाना खाने के बाद हमारा अगला पड़ाव था परिणिता की दुकान। इन्होंने नलबाड़ी गुवाहाटी के रास्ते में पूरी-सब्जी से अपनी दुकान शुरू की थी, जो चल निकली तो अब इनकी यहां पर तीन-तीन बड़ी दुकानें हो चुकी हैं, जो हमेशा भीड़ से भरी रहती हैं। यहां हमें मिठाई वगैरह खरीदनी थी। असम में रिवाज है कि आप किसी के घर जा रहे हों तो अपने नाश्ते का सामान खुद बंधवाकर ले जाइए, जो वहां चाय के साथ खुद भी खाइए, अपने मेजबान को भी खिलाइए। हमने यहां से दो तीन तरह की बरफी पैक कराई। नलबाड़ी में हमें बालीकोरिया जाना था। पहले यह नलबाड़ी का एक गांव था, मगर अब शहर डिवेलप होते हुए यहां तक पहुंचने को बेताब है तो कह सकते हैं कि यह एक अधगंवई इलाका है। मने गांव भी और शहर भी। मकान गांव जैसे कच्चे-पक्के भी मिलेंगे और शहर जैसे तीन तल्ला भी।
यहां नोट करने लायक एक खास बात दिखी। नलबाड़ी में मारवाड़ी खूब हैं। जिस तरह से इनके जगह जगह पर मकान दिखते हैं, लगता है कि गुवाहाटी में इतने नहीं होंगे। सबके घरों के बाहर लोहे के स्लाइडिंग चैनल बने हुए हैं, और घर की हर खुली जगह, चाहे वो खिड़की हो, रौशनदान हो या बालकनी हो, लोहे की मजबूत ग्रिल से लैस होगी। मगर अब यही कल्चर धीमे-धीमे गुवाहाटी में नए बनने वाले लगभग सारे असमी घरों में लागू होने लगा है। वे भी मकानों में ग्रिल लगवाने लगे हैं। मैंने पूछा तो पता चला कि उल्फा के जमाने में इन पर वसूली के लिए खूब अटैक हुए। असम में बड़ा पैसा मारवाड़ियों के पास था। असम की आबादी के दस से पंद्रह फीसदी मारवाड़ी असम के कुल व्यापार का अस्सी से पचासी फीसदी कंट्रोल करते हैं। बिजनेसमैन हैं, करंसी नोट बहुतायत में इन्हीं के पास हैं तो जाहिर है कि कभी इनसे वसूली होती तो कभी इन लोगों ने खुद अपनी ताकत जताने के लिए उल्फा और आसु जैसी चीजों में पैसा लगाया। बहरहाल, यहां बस इसी पहचान के सहारे कोई भी मारवाड़ियों के घर पहचान सकता है। लोहे के गेट असमियों के घर के बाहर भी लगे हैं, मगर वो ठीक वैसे ही हैं, जैसे यूपी या उत्तराखंड में दिखते हैं। सरकाने वाला फोल्डिंग टाइप का चैनल गेट सिर्फ मारवाड़ियों के घर के बाहर दिखता है।
नलबाड़ी के प्रसिद्ध आई सर्जन डॉ. सदानंद रायबरुआ का परिवार हमारा मेजबान था। मेरी साली इन्हीं के सबसे बड़े लड़के से ब्याही है। लड़का-लड़की दोनों यूएस में रहते हैं, और इन्हीं के आठ महीने के सुपुत्र के अन्नप्राशन समारोह में हम पहुंचे थे। पहले डॉक्टर साहब का मकान एकदम असमिया स्टाइल में था। बस बांस और मिट्टी से बनी कच्ची दीवारों की जगह दीवारें पक्की थीं, मगर डिजाइन वही था जो पूरे असम के मकानों का डिजाइन है- टिन की छत। पीछे लंबी चौड़ी बाड़ी, यानी बागीचा और मछली के लिए तालाब। मगर कुछ साल पहले इसी घर के आगे तीन तल्ले का काफी बड़ा मकान बना लिया है और पुराना पीछे वाला मकान किराए पर चढ़ा दिया है।
डॉक्टर साहब अपनी स्टूडेंट और उसके कुछ बाद की लाइफ तक किसी न किसी रूप से आरएसएस से जुड़े रहे हैं। अभी भी वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कट्टर वाले समर्थक हैं और आयुष्मान भारत योजना के तहत कैटरैक्ट ऑपरेशन करने में नलबाड़ी में अव्वल जगह बना रहे हैं। वाइफ, यानी कि किसी न किसी रिश्ते में मेरी सास मंजुला दत्ता रायबरुआ हैं जो नलबाड़ी कॉलेज में जूलॉजी की प्रफेसर तो रही ही हैं, वहां की एक्टिंग प्रिंसिपल के पद से अब रिटायर हो चुकी हैं। साइज में लगभग मेरी मम्मी की तरह, रंग और आदतों में भी। जैसे मेरी मम्मी घर में किसी को यूं ही बैठा या राह से गुजरता देखती हैं तो कुछ न कुछ खाने के लिए पूछती रहती हैं, और मैं उनसे परेशान होता रहता हूं, इन्होंने भी मेरा वही हाल किया।
मैंने अपनी साली के पति यानी इनके लड़के सिद्धार्थ से पूछा कि क्या नौकरी के दिनों में भी ये ऐसी ही थीं तो वह बोला- हां। सिद्धार्थ प्रोजेक्ट मैनेजर है, अमेरिका में पोस्टेड है। पता चला कि सिद्धार्थ अकेला नहीं है, नलबाड़ी के बहुतेरे लोग अमेरिका में काम कर रहे हैं। इसकी वजह पूछने पर पता चला कि नलबाड़ी असम के दो तीन सबसे स्मार्ट जिलों में से एक है, यहां के बहुत सारे लोग अमेरिका और यूरोप में फैले हुए हैं। असम.ओआरजी के मुताबिक अमेरिका में दो चार हजार असमी लोग काम कर रहे हैं। और ये आज से नहीं, 1960 के भी पहले से वहां पर हैं और वहां पर इनका असोम संघ, असम सोसायटी ऑफ अमेरिका, असम एसोसिएशन ऑफ नॉर्थ अमेरिका, असम साहित्य सभा नॉर्थ अमेरिका भी है।
...जारी
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